भूमण्डलीकरण उदारीकरण के दौर की हड़पनीति!
प्रेम प्रकाश
मई माह में ग्रेटर नोएडा के भट्टा पारसौल में ‘‘यमुना एक्सप्रेस वे” के लिए ज़मीन अधिग्रहण को लेकर पुलिस और किसानों के बीच हिंसक मुठभेड़ हुई। महाराष्ट्र के जैतापुर में परमाणु ऊर्जा परियोजना के विरोध में किसान व स्थानीय लोग आन्दोलन की राह पर हैं। बिहार में ‘‘विकास पुरुष” नितीश मुज़फ्फ़रपुर में प्रस्तावित एस्बेस्टस कारख़ाने के लिए कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण करवा रहे हैं। पुलिस इस देश में अपने अधिकारों के लिए खड़े किसान मज़दूरों पर गोलियाँ चला रही है। आज डलहौजी की आत्मा भारतीय शासक वर्ग के अन्दर प्रवेश कर अपने क्रूरतम रूप में अट्टहास कर रही है। देश के प्रत्येक प्रान्त में पूँजी व मुनाफ़े के लिए लोगों से उनकी ज़मीनें छीनी जा रही हैं। भट्टा से 178 हेक्टेअर व पारसौल से 260 हेक्टेअर ज़मीन ली गयी है। छत्तीसगढ़ में 1.71 लाख हेक्टेअर कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण ग़ैर-कृषि कार्यों के लिए किया गया जिसमें से 67.22 भूमि खनन के लिए ली गयी जो तमाम निजी कम्पनियों को दे दी गयी। मध्य प्रदेश में 150 कम्पनियों को 2.44 लाख हेक्टेअर भूमि अधिग्रहण की अनुमति दी गयी है जिसमें से लगभग 1.94 हेक्टेअर भूमि किसानों से ली गयी जबकि 12,500 हेक्टेअर जंगल की ज़मीन है। झारखण्ड बनने के बाद से खनिज सम्पदा से समृद्ध इस प्रदेश में कार्पोरेट कम्पनियों के साथ 133 सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किये गये जिसमें आर्सेलर ग्रुप, जिन्दल और टाटा प्रमुख हैं। मायावती सरकार द्वारा गंगा और यमुना एक्सप्रेस वे में 15,000 गाँवों के विस्थापन का अनुमान है। उड़ीसा में पॉस्को और वेदान्ता आदिवासियों की जीविका और आवास छीन रही हैं। एक अनौपचारिक अनुमान के अनुसार उड़ीसा में 331 वर्ग किलोमीटर भूमि 300 औद्योगिक संरचनाओं के लिए दी गयी है। 9,500 करोड़ रुपये के यमुना एक्सप्रेस वे के लिए लगभग 43,000 हेक्टेअर ज़मीन ली जायेगी जिसके लिए 1,191 गाँवों को नोटिफ़ाइड किया गया है। और एक अनुमान के अनुसार हाइटेक सिटी द्वारा सात लाख लोग तथा 334 गाँव प्रभावित होंगे। मायावती नोएडा में किसानों को 32 से 44 लाख प्रति एकड़ देने की बात कर रही हैं, लेकिन सरकार वहीं आवास प्लाट 6.17 करोड़ प्रति एकड़ और व्यावसायिक प्लाट 25-60 करोड़ प्रति एकड़ की दर से बेच रही है। किसानों से जो ज़मीन 850-950 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से ली जा रही है, उसे बाजार में 10,000-16,000 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से बेचा जा रहा है। ग्रेटर नोएडा से आगरा तक कुल 11 बिल्डरों को ज़मीन दी गयी है जिसमें 4,000-8,250 एकड़ ज़मीन एक-एक कम्पनी के हवाले कर दी गयी है। ये कम्पनियाँ आगे छोटे बिल्डरों और बिल्डर छोटे प्रापर्टी डीलर/बिल्डर माफि़या को भूमि देने के लिए स्वतन्त्र है। इस पूरे तन्त्र में जो बिल्डर माफि़या जाल विकसित हो रहा है, वह पूरे इलाके में किसानों से ज़मीन छीनने और उसे लूटने में कम्पनियों की गुण्डा पंक्ति का काम कर रहा है।
हमने देखा विकास की अपनी परिभाषा में मदोन्मत्त शासन द्वारा सिंगूर और नन्दीग्राम। नर्मदा बाँध से बेघर लोगों ने आसरे की तलाश में टकटकी लगाये एक उम्र गुज़ार देना। इसी मुल्क में विकास के भूमण्डलीय मॉडल में आये दिन किसानों की आत्महत्याएँ और पूँजी की शोषणकारी चक्की में पिसते लोग! अपनी जगह-ज़मीन से उजड़कर अपने ही देश में शरणार्थी की तरह प्रवास झेलते लोग! लोग जब चुप रहते हैं तो पूँजीवादी शान्ति में बिना लहू के सुराग के भी हो रही होती हैं हत्याएँ! और जब आवाज़ उठाना ही विकल्प होता है तो काँप उठती है शासन की बन्दूक! और आज फिर लोग खड़े हैं अपने न्याय और हक के लिए सीना ताने शोषण के विरुद्ध एक बग़ावती तेवर में।
उद्योगों के नाम पर विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) में मज़दूरों के भयंकरतम शोषण की कहानी से लेकर विकास के लिए भूमि की डाकेजनी तक शासक वर्ग का आवाम विरोधी चेहरा बेनकाब हो चुका है। विकास के इस मॉडल ने दसों हज़ार किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर किया। 35 लाख लोग घर-बार छोड़ चुके हैं, जबकि उन्हीं की ज़मीन पर 90 लाख 70 हज़ार करोड़ का मुनाफ़ा रीयल स्टेट और कॉर्पोरेट के लिए खड़ा हो रहा है।
आज विकास ज़मीन कब्ज़ा एवं श्रम की बाधामुक्त लूट का पर्याय बन गया है। मेहनतकश के शोषण पर टिका पूँजीवाद आवाम के हाथों से जीवन के बुनियादी ज़रूरी साधन भी छीन रहा है। मुनाफ़े की हवस के कारण बढ़ती महँगाई लोगों की क्रय शक्ति को कम करके मन्दी के चक्रों को जन्म देती है, जो पूँजी और श्रम के अन्तरविरोध को और तीखा करती है। वहीं दूसरी तरफ़ जनता की श्रम की लूट से एक ऐसा खाता-पीता मध्य वर्ग पैदा हो जाता है, जो लूट-तन्त्र में अपनी आमदनी बढ़ाता जाता है। यही मध्यवर्ग रीयल स्टेट का उपभोक्ता है जिसके पैसे पर पूँजीवाद लार टपकाता हुआ मुनाफ़े के लिए भूमि अधिग्रहण और रीयल स्टेट के विकास का गोरखधन्धा खड़ा करता है। पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफ़े को लगातार बढ़ाने के लिए पूँजीवादी राजसत्ता द्वारा लगातार जनता के श्रम, टैक्स द्वारा लिया गया धन और ग़रीब किसान की भूमि आदि सस्ते दरों पर लेकर अपने मुनाफ़े के नये आयाम एवं मार्ग तलाशते हुए लूट-तन्त्र को आगे बढ़ाने का काम करता है। विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए राजसत्ता द्वारा ली गयी ज़मीनें, बिजली सड़क की मुफ्त सुविधाएँ, करों व श्रम कानूनों में पूरी तरह छूट देना विकास के जिस मॉडल को दिखा रहा है वह धनिक वर्ग के लिए और अधिक लूट व ग़रीबों की शरीर से ख़ून की अन्तिम बूँद तक निचोड़ने का साधन है। पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाने के लिए सड़कों और उद्योगों के नाम पर भूमि का जबरन अधिग्रहण जनता के जनवादी अधिकारों का खुला उल्लंघन है। भूमि अधिग्रहण में राज्य की भूमिका पुलिसिया गुण्डाराज द्वारा जनता में आतंक फैलाकर पूँजीपतियों के लिए ज़मीन देने पर मजबूर करना है। सरकार ने बिल्डरों के लिए नियमों में ढील दी है। जिस ज़मीन पर कब्ज़े के लिए पहले 30 फ़ीसदी अग्रिम भुगतान करना होता था, उसे अब घटाकर मात्र 10 फ़ीसदी कर दिया गया है। यह छूट दी गयी है कि मुनाफ़े के मुताबिक बिल्डर योजनाएँ बनायें, उपभोक्ताओं से वसूली करें और फिर भुगतान करें।
केवल उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार ही नहीं आज देश की विभिन्न चुनावी पार्टियों के लिए ज़मीन पर कब्ज़ा ही विकास है। सभी दल आज जनता की लाशों पर चुनावी राजनीति की गोटियाँ फिट करते नज़र आ रहे हैं। तथा जनता के हितों का सौदा करने में कहीं भी पीछे नहीं हैं। पिछले एक वर्ष में केन्द्र सरकार ने 8 नदी घाटी जलविद्युत परियोजनाओं व 49 बिजली परियोजनाओं को हरी झण्डी दी है, इस दायरे में देश की 275,000 एकड़ भूमि है। इसी दौर में 63 से अधिक स्टील और सीमेण्ट प्लाण्ट को हरी झण्डी दी गयी है। जिसके दायरे में 90,000 एकड़ ज़मीन आ रही है। इन योजनाओं के लिए ज़रूरी कोयला और लोहा की खदानों को सरकारें निजी हाथों में सौंप रही हैं। पॉस्को मामले में केन्द्र व राज्य सरकार का रवैया देखकर यह साफ़ हो जाता है कि सरकारों को पूँजीपतियों के हितों की चिन्ता अधिक है। इस देश की ग़रीब जनता तो उनके लिए वोटों के पुतले हैं।
औपनिवेशिक काल का ‘‘भूमि अधिग्रहण कानून 1894” किसानों के इतने विरोध और गोलियाँ खाने के बाद भी आज तक बदला नहीं गया। 2007 एवं 2009 में इस कानून में सुधार के लिए जो बिल आये थे वे आज तक अधर में लटके हुए हैं। ज़मीन अधिग्रहण में राज्य की भूमिका को तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता जब तक यह स्पष्ट न हो कि अधिग्रहण व्यापक सार्वजनिक हित के लिए हो रहा है। दूसरी तरफ़ जिनकी ज़मीनें ली जा रही हैं, उनकी सहमति भी अनिवार्य है। लेकिन इसके उलट यहाँ भूमि अधिग्रहण नीति कम्पनियों के मुनाफ़े को ही और बढ़ा रही है। यह स्पष्ट हो गया है कि निजी कम्पनियों के लिए राज्य अन्यायपूर्ण तरीके से पूरे अर्धसैनिक बलों के साथ लोगों से उनकी जीविका छीन रहा है। पूँजीवादी जनतन्त्र सभी नागरिकों को राज्य एवं कानून के सामने समानता की जो बात करता है, उसे आज भूमि अधिग्रहण प्रकरण ने साफ़ कर दिया है कि पूँजीवादी जनतन्त्र वास्तव में व्यापक जनता के ऊपर पूँजीपति वर्ग की तानाशाही है।
भूमि अधिग्रहण के विरोध ने आज जो बग़ावती चेहरा अख्तियार कर लिया है, उसके सामाजिक आर्थिक मनोविज्ञान की निर्मिति इसी ‘‘विकासमान” पूँजीवाद की देन है। जीविका के साधन के रूप में मानव के लिए भूमि प्राचीन साधन है। वर्ग समाज के अस्तित्व में आने से लेकर आज तक शासक वर्गों और आम जनता के बीच इसके स्वामित्व और कब्ज़े के कारण मौजूद रहे हैं। जहाँ किसान इसे अपने जीवन के अनिवार्य साधन और एकमात्र विकल्प के रूप में देखता है, वहीं शासक वर्ग इसे अपने मुनाफ़े का साधन व पूँजी के और अधिक विस्तार के रूप में देखता है। पूँजीवाद के आरम्भिक दौर के व्यावसायिक क्षेत्रों में पूँजी की सन्तृप्तता के कारण मुनाफ़े के नये क्षेत्रों की तलाश में पूँजी ने कृषि में निवेश शुरू किया और ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख़्त व हड़प से मुनाफ़ा कमाने में जुट गयी। 1947 के बाद भारतीय शासक वर्ग ने जनता से जो वादे किये उनको कभी पूरा नहीं किया। सरकारी नीतियाँ लोगों के जीवन को दिन-प्रतिदिन रसातल में ले गयीं। जीवन के मूलभूत साधनों से लगातार लोग दूर होते गये, अनिश्चितता और अधिक बढ़ती गयी, लोगों को पूर्णतया बाज़ार के हवाले कर दिया गया। भूमण्डलीकरण-उदारीकरण के दो दशकों ने यह स्पष्ट कर दिया कि जनता की जीविका, शिक्षा, चिकित्सा एवं आवास से, विकास का राग अलापने वाली इन सरकारों को कोई सरोकार नहीं है। बाज़ारवाद, मुनाफ़े की गलाकाट प्रतियोगिता एवं मत्स्य-न्याय व्यवस्था ने यह स्पष्ट कर दिया कि इस देश के हुक्मरानों की पक्षधरता क्या है? ऐसे में किसान आबादी अपनी जीविका के अन्तिम आसरे को छिनता देख इसके विरुद्ध खड़ी हो रही है।
इस देश में लोगों ने नर्मदा बाँध के लगभग 70,000 विस्थापितों को देखा है। जो आज भी अपनी जीविका और आवास के लिए शान्तिपूर्ण तरीके से सरकार से लड़ रहे हैं। लोगों ने ज़मीन के बदले मुद्रा मुआवज़ा पाने के बाद किसानों को मोटरसाइकिल व कार दौड़ाते तथा इनको कबाड़ होते देखा है। उन ज़मीनों पर खुलने वाले मॉलों-होटलों के सामने बेरोज़गार किसान परिवारों की लाइनें देखी हैं। मामला मात्र भूमि को ‘‘सार्वजनिक कार्य” व कम्पनियों को दिये जाने का नहीं है, बल्कि वर्तमान ढाँचे में जीविका व जीवन के द्वन्द्व का सवाल है। भूमि अधिग्रहण क्षेत्र के वर्तमान उत्पादन तन्त्र व जीवन-पद्धति को नष्ट कर रहा है। बिना वैकल्पिक उत्पादन तन्त्र व जीवन-पद्धति का विकास किये अराजक तरीके से मौजूद ढाँचे को नष्ट कर पूँजीवाद सामाजिक ध्वंस की स्थिति पैदा कर रहा है। यह समाज के सहसम्बन्धों व सामाजिक संरचनाओं को तोड़ रहा है। हालाँकि मौजूदा सम्बन्ध एवं सामाजिक संरचनाएँ विवेचन का विषय हैं, फिर भी पूँजी की ताकत द्वारा मनमाने तरीके से इनको नष्ट करना आक्रोश को जन्म दे रहा है। पहले से ही अलगाव एवं सन्त्रास में जी रही जनता को उसकी जड़ों से उजाड़कर, अकेलेपन और कुण्ठा के अन्ध-कूप में ढकेला जा रहा है। जनजाति एवं आदिवासी इलाकों में जो लोग मौद्रिक मुआवज़े के उचित प्रयोग एवं निवेश से अपरिचित हैं और साफ़ शब्दों में जो आज पूँजीवाद के तीन-तिकड़मों से अनभिज्ञ हैं, के लिए मुद्रा मुआवज़े के नकारात्मक पहलू हैं। मुद्रा ऐसे लोगों के लिए बर्फ के पिण्ड के समान है, जो कब पिघल गयी इसका पता भी नहीं चलता। भूमि अधिग्रहण के पूरे मामले का सबसे अधिक प्रभाव जिस पर पड़ता है, और जो अख़बारी मीडिया से लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया को दिखायी नहीं देता वह उस इलाके की बड़ी भारी साधन-विहीन मेहनतकश आबादी, जो भूमि श्रमिक है या रेहड़ी-खोमचा-पटरी बाज़ार से लेकर सैलून एवं चाय की दुकानों एवं तमाम छोटे मोटे कामों में लगी होती है। यह आबादी किसी भी क्षेत्र की दो तिहाई आबादी होती है। भारत में तमाम ऐसे सीमान्त किसान हैं जिनके पास कहने मात्र की भूमि है तथा जिसका मुआवज़ा उनके परिवार के दो माह का ख़र्चा भी नहीं चला सकता। जिस मुआवज़े के इर्द-गिर्द मीडिया की बहस प्रायोजित तरीके से केन्द्रित की जाती है, वह ठीक दर से मिल भी जाये तो क्या इस कानून और व्यवस्था में साधन-विहीन मेहनतकश आबादी, जो इस देश की उत्पादन शक्ति है और जिसे इस भूमि अधिग्रहण के पूरे परिदृश्य में न तो मुआवज़ा मिलना है, न ही पुनर्वास और न रोज़गार का कोई भरोसा है, को कुछ हासिल होगा। भारत की ग्रामीण आबादी का 50 फ़ीसदी हिस्सा भूमिहीनों का है। ऐसे में भूमि अधिग्रहण के लिए ज़मीन के बदले मुआवज़ा अपने आप में समग्र न्याय की अवधारणा से रहित है।
भूमि अधिग्रहण में जिस विकास की बात की जाती है, वह व्यापक पैमाने पर पर्यावरणीय सन्तुलन को तबाह कर रहा है, जल लग्नता (water logging) को पैदा करता है एवं पारिस्थितिकी सन्तुलन को नष्ट कर रहा है जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा इस देश की ग़रीब जनता को उठाना पड़ रहा है। उपलब्ध रिपोर्टों के अनुसार 21 मिलियन लोग ‘‘विकास” प्रोजेक्ट के नाम पर अपनी जगह से हटाये गये। सरकार जनता के हितों की अनदेखी कर तथाकथित विकास के नाम पर ज़मीनें हथियाकर उसे या तो सीधे पूँजीपतियों को दे रही है या सरकारी योजनाओं में इस्तेमाल कर रही है जो पूँजीपतियों के मुनाफ़े को और अधिक बढ़ाने में सहायक हो। यह लोगों के जीवन अधिकारों पर राज्य द्वारा हमला है एवं मौलिक अधिकारों का अपहरण है। जिन लोगों से ज़मीनें छीनी जा रही हैं, उनको इस तथाकथित विकास में कोई हिस्सा नहीं मिलता। दूसरे जो व्यक्ति मुआवज़ा लेकर ज़मीन दे रहा है वह उस ज़मीन का स्वेच्छा से विक्रय नहीं करता बल्कि राज्य द्वारा उसके समक्ष विक्रय के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं होता।
सवाल भूमि देने का नहीं है। इसी देश के लोगों ने आज़ादी की लड़ाई के समय अपने प्राणों की बाज़ी लगायी। माओं और बहनों ने आज़ादी की लड़ाई में अपनी पाई-पाई कुर्बान की है, लाखों लोगों ने लाठियाँ खायी हैं। सवाल भरोसे का है। सवाल यह है कि जो ज़मीन ली जा रही है क्या वह हमारे विकास के लिए है? क्या हमसे जो छीना जा रहा है वह बदले में बेहतर भविष्य देगा? तो उत्तर न में मिलता है, इसके पीछे धोखे का इतिहास दिखता है। भरोसा ‘‘समग्र समावेशी विकास” की मनमोहनी लच्छेदार बातों में नहीं दिखता। भरोसा ठोस एवं दृष्टव्य कार्यवाही एवं यथार्थ ढूँढ़ता है और शासकों का फ़रेब भरोसे को चूर करता है। लोगों की जि़न्दगी में ख़ुशी के लिए, कृषि, उद्योग और आर्थिक एवं सामाजिक विकास का पथ प्रशस्त करने के लिए, व्यापक योजना एवं उसके क्रियान्वयन के लिए, मज़दूर वर्ग की राजनीतिक विचारधारा और इच्छाशक्ति की ज़रूरत होगी। यह वोट की राजनीति करने वाली, पूँजी की रक्षक, मज़दूर विरोधी नीतियों की पक्षधर चुनावी पार्टियों से नहीं होगा। जगह-जंगल-ज़मीन प्राकृतिक संसाधनों और सबसे आगे मानवता की रक्षा, एक मानव केन्द्रित समाज में ही की जा सकती है। पूँजी की इस अन्धी दौड़ में छोटे किसानों का पिसना व उजड़ना उनकी नियति है। देश की समग्र ग़रीब जनता एवं निम्न मध्यवर्ग के मंसूबों की रक्षा वर्तमान व्यवस्था नहीं कर सकती। ग़रीब-किसान-आदिवासी समुदाय, शोषितों, वंचितों की मुक्ति देश की व्यापक मेहनतकश आबादी के संघर्षों के साथ जुड़कर इस निजी मालिकाने और मुनाफ़े की पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़कर ही हो सकती है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2011
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