प्रशासनिक सेवा की तैयारी में लगे “होनहारों” के सपने-कामनाएँ, व्यवस्था की ज़रूरत और एक मॉक इण्टरव्यू

प्रसेन

जार्ज पंचम जब 1911 ई. में भारत आये तो उनका स्वागत-सत्कार भारतीय संस्कृति के अनुसार करने का फ़ैसला लिया गया। आखि़र भारत की सारी धन-सम्पदा का दोहन कर रहे थे तो कुछ क्षण के लिए इस अतिशय लाभदायक-उपनिवेश की संस्कृति को अपनाने में क्या हर्ज। (राहुल गाँधी नहीं यकायक किसी ग़रीब की खटिया पर विराजमान होकर रोटी खाते हैं!?) ख़ैर! तय हुआ कि एक वृद्ध महिला को लाया जाये। इधर जार्ज पंचम ने चरण स्पर्श किया, उधर आशीर्वाद मिला – ‘ख़ुश रहा बेटवा, कलट्टर बना।’ तब से आज तक बहुत कुछ बदल गया है। भारत को अंग्रेज़ों से आज़ादी मिल गयी। “अपनी सरकार” बन गयी। भारत का शासक वर्ग श्रम के वैश्विक लूट में विश्व चौधरियों का जूनियर पार्टनर बन गया। परन्तु प्रशासनिक ढाँचा और उसका रुतबा वैसा ही बना रहा (कुछ इसी तर्ज पर कि – ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’) बल्कि और चुस्त-दुरुस्त, हाईटेक हुआ। रही बात रुतबे की तो गाँवों, कस्बों व विभिन्न शहरों से (व विभिन्न शहरों में) लाखों-लाख छात्र-छात्राएँ विभिन्न प्रतियोगी केन्द्रों की ओर यूँ ही रुख़ नहीं करते। इलाहाबाद, दिल्ली (नेहरू विहार, क्रिश्चियन कॉलोनी और मुखर्जी नगर) तो इसकी तैयारी का मक्का-मदीना समझे जाते हैं।

सिविल सेवा में आने वाले छात्र क्या सपना लेकर आते हैं, इसकी जाँच-पड़ताल के लिए यथार्थ ही टटोलना पड़ेगा। पहले रुतबा! पर जहाँ बाप बड़ा न भईया, सबसे बड़ा रुपइया तो रुतबे का नीला फूल (नीली बत्ती) तो मनी प्लाण्ट पर ही खिलता है। प्रशासनिक सेवा एक साथ इन दोनों की गारण्टी देता है। फिर एक बार यूपीएससी की लिस्ट में नाम आते ही बड़े मन्त्री, नेता, बिज़नेसमैन आदि-आदि का घरजमाई बनने का निमन्त्रण आने लगता है। इधर निमन्त्रण स्वीकार किया उधर दान-दक्षिणा (दहेज) से लाद दिया गया। एक दिन में एक करोड़ रुपया केबीसी भी नहीं देता (क्योंकि 40 प्रतिशत तो टैक्स ही कट जाता है)। वहीं यह धन टोकन होता है कुबेर के ख़ज़ाने का दरवाज़ा खोलने के लिए। अन्य गौण लाभों की चर्चा ही छोड़ो! कर लें? अच्छा चलो कर ही लेते हैं।

सिविल सेवक बनते ही एकाएक आप ग्रह-नक्षत्र रूपी रिश्तेदारों के सूर्य बन जाते हैं । कई जन्मों के रिश्तों की खोज से कुछ और ग्रह-नक्षत्रों का पता चलता है। बड़ा पश्चाताप प्रकट करते है कि कितने समय तक हम इस होनहार से और यह होनहार हमसे ओझल रहा!

यह सपना न केवल प्रतियोगियों बल्कि उनके माँ-बाप की आँखों में भी तीव्र गति से नाचता रहता है। कितने तो ज़मीन-जायदाद तक को दाँव पर लगा देते हैं। भाई, कामधेनु को आँगन में बाँधने की इतनी क़ीमत तो चुकानी ही पड़ेगी। पर यह मार्ग है बहुत कठिन! “बड़े संकल्प” और “बड़े धैर्य” की आवश्कता होती है। चार से पाँच सौ पद और चार से पाँच लाख कम्पटीटर!

Civil-Services-Examination

ख़ैर! इस बीहड़ संघर्ष क्षेत्र में कदम रखते ही प्रतियोगी नौकरशाही का ककहरा सीखना शुरू कर देते हैं। भावी नौकरशाह के बुनियादी चरित्र और आत्मिक जगत की नींव यहीं से पड़ जाती है। मसलन, सीनियरों से नोट्स पाने के लिए मक्खन लगाने की कला! कट-पेस्ट की कुशलता! उनकी उतनी ही बात से मतलब रखने की आदत जिनसे कुछ काम सधता हो। वो कहावत है न – अपना काम बनता तो भाड़ में जाये जनता! परन्तु यह सब इतना आसान भी नहीं है। सीनियर, जिनके लिए यहाँ एक शब्द ईजाद हुआ है – “वैसू”, यानी पका-पकाया, घुटा-घुटाया। ये ‘वैसू’ बहुत दण्ड-बैठक करवाते हैं। परन्तु यही दण्ड-बैठक प्रशासनिक पद सोपानों के बीच सही अन्तर्व्यवहार की समझ प्रदान करता है। सीनियरों को सर-सर करते रहने, नाश्ता कराने, चाय पिलाने, बीच-बीच में मुग़ार् व शराब की दावत देने से यह समझदारी और परिपक्व होती है। बाद में सर्विस पाने के पहले तक ख़ुद वैसू बनकर नयों को नौकरशाही का ककहरा सिखाने में यह परिपक्वता काम आती है। वो तो भला हो कुकुरमुत्तों की तरह उग आये कोचिंग सेण्टरों का कि ‘बड़े सरों’ के समक्ष ढेर सारे ‘वैसुओं’ की सरगीरी होने को काफ़ी क्षति पहुँची है। ठीक उसी प्रकार जैसे पूँजी के संकेन्द्रीकरण से छोटी पूँजी को हानि पहुँचती है। “बड़े सर” सारा सेवा सत्कार मोटी फ़ीस के साथ लेना पसन्द करते हैं।

अरे! कितने तो “प्रगतिशील इतिहासकारों बुद्धिजीवियों”, समाज सुधारकों ने भी इसमें क़िस्मत आज़माई और सफल रहे! और ऐसे-ऐसे आई.ए.एस. पैदा किये कि उनकी नौका सुधार की वैतरणी में बहुत आगे तक निकल आयी। फिर अंग्रेज़ी शराबमय दावतें तो पूरे जीवनकाल के लिए सुनिश्चित! यानी, आम के आम गुठलियों के दाम!

ख़ैर छोड़ो इन्हें! भविष्य की रौब-दाब वाली पदवी की आकांक्षा में ये प्रतियोगीगण सतत् रट्टा मारते, एकनिष्ठ भाव से “ज्ञान” प्राप्ति की साधना में लीन रहते हैं। आस-पास में हो रही उठा-पटक से ऊपर उठकर ये अपने आत्मिक जगत के तमाम झरोखों-कोटरों को दत्तचित्त होकर आँकड़ों/तथ्यों से सजाने में लगे रहते हैं। तो ये हैं देश के भावी कर्णधारों के सपने-कामनाएँ। पर बात अधूरी रह जायेगी अगर यह न बताया जाये कि सरकार प्रतियोगियों से क्या अपेक्षा रखती है। सुनिये, ख़ुद इण्टरव्यू बोर्ड के एक मेम्बर से जो प्राइवेट कोचिंग संस्था के डायरेक्टर द्वारा मेन्स पास किये प्रतियोगियों की इण्टरव्यू हेतु तैयारी के मद्देनज़र मॉक इण्टरव्यू के लिए बुलाये गये थे: “देखो! आपने प्रीलिम्स पास किया तो यह मान लिया जाता है कि इससे आपके ज्ञान का विस्तार पूरा हो गया है। मेन्स पास करने का मतलब है, आप विश्लेषण की भी क्षमता हासिल कर चुके हैं। यानी कि आपका विस्तृत ज्ञान गहराई भी पा गया है। परन्तु इण्टरव्यू बहुत मायने रखता है सेलेक्शन में। बोर्ड इण्टरव्यू में अभ्यर्थी के अन्दर यह देखता है कि वे गहराई वाले विस्तृत ज्ञान का धरातल पर यानी व्यवहार में कुशल इस्तेमाल कर पाते हैं या नहीं। क्योंकि सरकार को ज़मीनी सिविल सेवकों की तलाश रहती है जो समस्याओं का ऐसा समाधान करें कि ‘व्यवस्था’ में खरोंच तक न आये। मसलन, अगर पब्लिक अपनी माँगों के लिए कहीं धरना-प्रदर्शन कर रही है तो उस पर गोली चलायें, लाठी बरसायें या कि आँसू गैस से काम चल जायेगा। और कई बार तो तीन तिकड़म करके उनके लीडर्स को शान्त कर (पैसे से या डण्डे से) देने से भी आन्दोलन फुस्स हो जाता है। यानी, सरकारी व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाते रहने में आपका ज्ञान कितनी तेज़ी से कार्य करता है। (मुस्कुराते हुए) भई, सरकार इसीलिए तो आपको इतनी सुविधा प्रदान करती है (फिर आँख मारकर) बाक़ी जो लूट सको! वैसे यह तो आपको पहले से पता रहता है कि हर पद पर महीने में कितना-कितना बन जाता है।

“ख़ैर! चलिये आापसे एक सवाल पूछता हूँ जो कई बार पूछा जा चुका है। प्रश्न: अगर तुम्हारी जान जाने से 50 पब्लिक की जान बच सकती है तो तुम क्या करोगे?” 20 प्रतियोगियों में से 18 प्रतियोगियों का जबाव – “सर पहले अपनी जान बचायेंगे।” दो प्रतियोगी असमंजस में पड़ गये शायद आत्मा के किसी कोटर में बैठा थोड़ा-सा आदर्श अड़ंगा डाल रहा था। जवाब थोड़ा डगामगा गया – “वैसे तो 50 लोगों की जान एक की जान से अधिक होती है पर शायद बचानी तो अपनी ही चाहिए।” बोर्ड मेम्बर ने नम्बर बाँटा – पहले 18 पास, बाक़ी दो अपनी किंचित हिचकिचाहट के साथ जवाब देने के कारण फेल!

बोर्ड मेम्बर ने मॉक इण्टरव्यू में दो अभ्यर्थियों को बताया कि तुम्हारे इस जवाब से तुम्हारी इस सोच का पता चलता है कि तुम अभी एकदम ज़मीनी नहीं हो पाये हो। इम्पॉर्टेण्ट लोगों के लिए पब्लिक मरती है, पब्लिक के लिए इम्पॉर्टेण्ट लोग नहीं। यही सोच रही तो कर चुके व्यवस्था की सेवा। क्योंकि “व्‍यवस्था” तो सबसे इम्पॉर्टेण्ट है! प्रशासन आदर्शों से नहीं चलता।

वैसे भी इण्टरव्यू बोर्ड में बैठा हर मेम्बर जानता है कि आप सिविल सेवा में जाकर क्या करेंगे, अतः पाखण्ड उन्हें ज़रा भी नहीं भाता। जबकि सरकार को आदर्शवाद झूठमूठ में भी नहीं चाहिए। प्रशासनिक कार्यों में फालतू अड़ंगा खड़ा करता है। 18 प्रतियोगी पहले ही इस समझ को आत्मसात कर चुके थे, बाक़ी दो ने भी बात पर ग़ौर किया, सोचा-विचारा और अपने एप्रोच को दुरुस्त किया।

इस तरह अब तक हमने जाना कि सिविल सेवा में लगे “होनहारों” की कामना क्या है? और कि सरकार कैसे सिविल सेवकों की अपेक्षा करती है। अब अपने पाठकों का ध्यान थोड़ा दूसरी ओर खींचने की मुआफ़ी चाहूँगा।

“नौकरशाही” का यह चरित्र कोई नयी चीज़ नहीं है। अंग्रेज़़ों के समय में भी यह नौकरशाही ही थी, जिसने अंग्रेज़ी व्यवस्था की सेवा में जनता को लूटा, निचोड़ा, लाठियों-गोलियों से बेदर्दी से शिकार किया और बड़े-बड़े कीर्तिमान स्थापित किये। हर घण्टे हर दिन हर महीने व हर साल, आज़ादी तक अंग्रेज़ों की नौकरशाही ने जनता पर जु़ल्म ढाये। ग़ौरतलब है कि अंग्रेज़ों की नौकरशाही का केवल एक चरित्र, एक रंग-रूप होता है – मौजूदा व्यवस्था की हर हाल में हिफ़ाज़त करना। आज़ादी के बाद चूँकि शोषणकारी व्यवस्था में केवल एक परिवर्तन आया, बकौल भगतसिंह, गोरे साहबों के स्थान पर भूरे साहबों का काबिज़ होना। इससे लूट-शोषण का न केवल वही मूल ढाँचा बना रहा, बल्कि आज़ादी के बाद कितने जलियाँवाला बाग़ को भारतीय नौकरशाही ने अंज़ाम दिया इसकी कोई गिनती नहीं है। और उदारीकरण लागू होने के बाद नेहरूवादी समाजवादी आदर्श का ढोंग निजीकरण की आँच पड़ते ही नौसादर की तरह बिना द्रव में बदले सीधे गैस बनकर उड़ गया। उदारीकरण निजीकरण लागू होने के बाद जिस तरह से महँगाई बढ़ी, बेरोज़गारी बढ़ी, अमीरी-ग़रीबी की खाई चौड़ी हुई, मज़दूरों के श्रम की लूट बढ़ी, किसानों की समस्याएँ बढ़ी उसी हिसाब से सरकार ने नौकरशाही को चुस्त-दुरुस्त किया है। वह उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के क्रियान्वयन के परिमाणों को पहले से ही कैलकुलेट कर रही है। चुनावी मदारियों के आन्दोलन से उसे कोई ख़तरा नहीं, परन्तु ऐसे आन्दोलन जिसके न केवल संकेत मिल रहे हैं, बल्कि कहीं-कहीं उभर रहे हैं या भविष्य में जिनकी बहुत सम्भावना साफ दिख रही है; जिनका नेतृत्व क्रान्तिकारी है या जिनका नेतृत्व जनता का सच्चा प्रतिनिधित्व कर रहा है, वे व्यवस्था के लिए बहुत ख़तरनाक हैं। “व्‍यवस्था” के रणनीतिकार इस बात को बहुत अच्छी तरह समझते हैं। अतः नौकरशाही को इस तरह से पुनर्गठित किया जा रहा है कि वह एकदम निरंकुश ढंग से सरकारी नीतियों को लागू करे। व्यवस्था झूठमूठ में भी आदर्श अफ़ोर्ड नहीं कर सकती। निरंकुश नौकरशाही व्यवस्था की ज़रूरत है। वैसे भी भारत में पुनर्जागरण-प्रबोधन की ऐतिहासिक परम्परा के अभाव व संचार माध्यमों से रुग्ण भोगवादी संस्कृति परोसे जाने से जो भयंकर आत्मिक पतन हो रहा है, उससे लोकतन्त्र का स्पेस और कम हुआ है। सिस्टम को यही चाहिए। ताकि व्यवस्था के लिए ख़तरनाक आन्दोलनों का निरंकुश-निर्मम दमन किया जाये, जैसा कि साफ देखा जा सकता है। परीक्षा का पैटर्न लगातार बदला जा रहा है (अभी हाल में सी.सेट लागू किया गया है और केन्द्रीय प्रशासनिक सेवा व प्रान्तीय प्रशासनिक सेवा का एकीकृत मानक का प्रयास चल रहा है) ताकि आदर्श व संवेदना का गला घोंटकर प्रशासनिक कुर्सी नसीब हो। परीक्षा के तीनों चरणों में व्यवस्था किस क्षमता को देखती है, उसे ऐसे समझा जा सकता है:

1) प्रीलिम्स – तथ्य की रटाई – संवेदना की हत्या करने की क्षमता

2) मेन्स – सरकारी पक्ष का सटीक विश्लेषण क्षमता

3) इण्टरव्यू – समस्या का (मारके या दुलारके) सरकारी पक्ष में समाधान करने की क्षमता।

इसके बाद भी कोई यह कहता है कि वह प्रशासन में जाकर जनता के हित में काम करेगा, तो या तो वह पाखण्डी है या मूर्ख। वैसे मूर्खता की उम्मीद बहुत कम है। मान लीजिये कि कोई मूर्ख पहुँच ही गया तो अपनी मूर्खता से सरकार की सेवा करेगा। भ्रष्टाचार न करना ईमानदारी का कोई तराजू नहीं है। भ्रष्टाचार तो व्यवस्था भी नहीं चाहती (हालाँकि इसे वह ख़त्म भी नहीं कर सकती) क्योंकि कानूनी तौर पर जनता को लूटने की इतनी सुविधा दी जाती है कि सारे लुटेरे ऐशो-आराम से रहें और दूसरी बात यह कि भ्रष्टाचार के हद से अधिक होने पर जनता का व्यवस्था से मोहभंग जल्दी हो जायेगा। यही वजह है कि कुछेक “ईमानदारों” को व्यवस्था बड़े ओहदों से पुरस्कृत करती है।

प्रशासनिक सेवाओं के चरित्र, उसकी तैयारी की प्रकृति, और प्रशासनिक सेवकों की वास्तविकता के बारे में कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। सभी जानते हैं कि एक लुटेरी व्यवस्था तले प्रशासन चलाने, यानी कानून-व्यवस्था कायम रखने का क्या अर्थ है। इसका अर्थ है हर प्रतिरोध का दमन, हर सवाल को कुचलना, और मुनाफ़े और लूट की मशीनरी को सुचारू रूप से चलाते रहना। प्रशासनिक सेवा और सेवकों का ऐसा चरित्र हर लूट और मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था में होगा ही। इससे अलग सोचना या तो ढोंग है या बेवक़ूफ़ी। और यह अटकलबाज़ी करने की छूट ली जा सकती है कि इस देश के बहुसंख्यक नौजवान ढोंगी या बेवक़ूफ नहीं हैं। और अगर यह अटकल सही है तो यह उम्मीद की जा सकती है कि इस देश के न्यायप्रिय, समानताप्रिय और बहादुर नौजवान जनता का पक्ष चुनेंगे, न कि इस देश के नरभक्षी लुटेरों और शासकों का।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011

 

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