कश्मीर समस्या का समाधान
शिशिर
पिछले कुछ महीनों से जो मुद्दा देश के हर नागरिक के दिलो-दिमाग़ पर छाया हुआ है वह है कश्मीर का मुद्दा। जुलाई में एक किशोर तुफैल मट्टू की सेना के लोगों द्वारा हत्या के बाद से अभी तक कश्मीर में जनता सड़कों पर है। प्रधानमन्त्री से लेकर राष्ट्रपति तक इस बात पर अफसोस जता रहे हैं कि कश्मीर की सड़कों पर जो भीड़ सशस्त्र बलों पर पथराव कर रही है, वह कोई उग्रवादियों की भीड़ नहीं है। वे भी यह मानने को मजबूर हुए हैं कि ये आम लोग हैं जिसमें बच्चे, किशोर, नौजवानों के साथ-साथ स्त्रियाँ तक शामिल हैं। जुलाई से लेकर अब तक इन प्रदर्शनों पर सेना द्वारा गोली चलाये जाने के कारण करीब 80 लोग मारे जा चुके हैं और सैकड़ों घायल हो चुके हैं। कश्मीरी जनता का एक विचारणीय हिस्सा सैयद अली शाह गिलानी, मसर्रत आलम और आसिया अन्द्राबी जैसे इस्लामिक अलगाववादी नेताओं की अपीलों पर चल रहा है। जो अलगाववादी अभी 2009 के पहले तक नेपथ्य में धकेल दिये गये मालूम पड़ते थे, वे एक बार फिर मंच के बीचों-बीच हैं और मामले काफी कुछ उन्हीं के इशारों पर चल रहे हैं।
खाया-पिया भारतीय मध्यवर्ग अपने ‘‘राष्ट्रवाद’‘ और उपभोग में सराबोर हो भारतीय सरकार को लानत-मलामत भेज रहा है कि वह कश्मीर के अलगाववादियों के साथ नरमी से पेश आ रही है। उसे लग रहा है कि उसके ‘भारत का ताज’ छिनने वाला है और सरकार की नरमी के कारण कहीं हमें कश्मीर से हाथ न धोना पड़े। यह वह वर्ग है जो कश्मीर में दशकों से मौजूद हालात के बारे में कुछ नहीं जानता। कश्मीर का मतलब उसके लिए कश्मीर की जनता नहीं है, बल्कि एक नक्शा है जो भारत के नक्शे के भीतर होना चाहिए। उसे पता नहीं है कि एक सैन्य शासन के अन्तर्गत रहने का क्या अर्थ होता है। उसे मालूम नहीं है कि कश्मीर में पिछले डेढ़ दशक में सशस्त्र बलों द्वारा 60,000 कश्मीरी अपनी जान से हाथ धो चुके हैं और 7,000 लापता हैं। हाल ही में तमाम सामूहिक कब्रें बरामद हुई हैं जो इन लापता लोगों का सुराग हो सकती हैं। उन्हें नहीं पता कि इसकी कोई गिनती नहीं कि कितनी औरतों का अपहरण और बलात्कार किया जा चुका है और कितने मासूम अपाहिज़ हो चुके हैं। उन्हें इससे कोई मतलब भी नहीं है। उन्हें नहीं पता कि ये मौतें उस दौर में नहीं हुई हैं जब घाटी सशस्त्र आतंकवाद का दंश झेल रही थी। 2003 से लेकर अब तक के दौर में यह सबकुछ हुआ है, जिस दौर के बारे में सरकारी आँकड़े ही बताते हैं कि घुसपैठ को ख़त्म किया जा चुका है और घाटी में कुल मिलाकर 1000 आतंकवादी भी नहीं हैं। लेकिन आतंकवाद का यह दौर ख़त्म होने के बाद भी घाटी में आज 7 लाख सशस्त्र बल के सिपाही मौजूद हैं; वहाँ ख़ुफिया एजेंसियाँ इस तरह से काम करती हैं, मानो वे किसी दुश्मन देश के भीतर काम कर रही हों; सड़कों पर घूमने भर से आतंकित कर देने वाली सैन्य उपस्थिति को आप देख सकते हैं। कहीं पर सेना के शासन के बारे में सुनने और उसके तहत रहने में ज़मीन-आसमान का अन्तर होता है। सेना की इस ग़ैर-ज़रूरी उपस्थिति को कश्मीर की जनता भारत द्वारा कब्ज़ा मानती है। यही कारण है कि आज जो कश्मीर में चल रहा है उसके निशाने पर हर वह चीज़ है जो भारत की उपस्थिति का प्रतीक है। चाहे वह स्कूल हो, सरकारी ऑफिस हो, सैन्य छावनी हो, पुलिस स्टेशन हो, या कोई और सरकारी इमारत।
कश्मीर की समस्या का समाधान हर अख़बार के स्तम्भ लेखक सुझा रहे हैं। कोई कुछ बोल रहा है तो कोई कुछ। हर किसी के पास हल मौजूद है! लेकिन इस पूरी समस्या को समझने के लिए हमें कुछ बातों को अच्छी तरह समझना होगा। और इसके लिए एक संक्षिप्त निगाह हमें इतिहास पर डालनी होगी। इसके बिना कश्मीर मसले के हल की बात करना बेमानी है।
कश्मीर का भारत में विलय कुछ विशेष परिस्थितियों में हुआ था। भारत का विभाजन साम्प्रदायिक आधार पर किया गया था। कश्मीर एक मुसलमान-बहुल राज्य था लेकिन वहाँ का शासन एक हिन्दू राजा के हाथ में था। कश्मीर ऐतिहासिक रूप से साम्प्रदायिकता से काफी हद तक मुक्त रहा था। कश्मीर की जनता में जिस नेता की उस समय सर्वाधिक पकड़ थी, वह थे शेख़ अब्दुल्ला। शेख़ अब्दुल्ला साम्प्रदायिक आधार पर पाकिस्तान में शामिल होने को लेकर सशंकित थे और एक इस्लामिक सिद्धान्तों पर बने राज्य में शामिल नहीं होना चाहते थे। आज़ादी के तुरन्त बाद पाकिस्तान द्वारा समर्थित कबायली हमले से शेख़ अब्दुल्ला पाकिस्तान में शामिल होने पर विचार के विरोधी हो गये। लेकिन भारतीय संघ में शामिल होने को लेकर भी उनकी अपनी शंकाएँ थीं। कश्मीरी जनता बिना शर्त भारतीय संघ में शामिल होने को लेकर भी असमंजस में थी और अपनी अलग राष्ट्रीय पहचान को लेकर सचेत थी। काफी विचार-विमर्श और राजनीतिक मन्थन के बाद कश्मीर ने सशर्त भारतीय संघ में होना स्वीकार किया। कश्मीर इस शर्त पर भारतीय संघ में शामिल हुआ कि विदेशी मसलों, सुरक्षा और मुद्रा चलन के अतिरिक्त भारतीय राज्य कश्मीर के मामलों की स्वायत्तता को बरकरार रखेगा। इसके लिए भारतीय संविधान में विशेष धारा 370 को शामिल किया गया। यह इस बात का प्रावधान करती थी कि कश्मीर का मुख्यमन्त्री प्रधानमन्त्री कहलायेगा और राज्यपाल गवर्नर। कश्मीर के आन्तरिक मामलों में कश्मीर की सरकार को स्वायत्तता प्रदान की जायेगी। इस तरह से भारतीय संविधान के दायरे के भीतर कश्मीर के एक स्वायत्त राज्य के रूप में अस्तित्व को निगमित किया गया। लेकिन नेहरू को संघीयता का यह ढाँचा स्वीकार्य नहीं था। भारत और पाकिस्तान के विभाजन में अक्सर सारी जिम्मेदारी जिन्ना के सिर डाल दी जाती है, लेकिन कम ही लोग यह जानते हैं कि क्रिप्स मिशन के बाद जिन्ना ने अलग पाकिस्तान की माँग छोड़ने का प्रस्ताव नेहरू के सामने रखते हुए कहा था कि एक ऐसे भारतीय संघ में रहना उन्हें मंजूर है जिसमें मुस्लिम-बहुल राज्यों को सापेक्षिक स्वायत्तता हो। लेकिन एक मज़बूत केन्द्रीय राज्य मशीनरी के पक्ष में खड़े नेहरू ने इस प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया। इस मुद्दे पर नेहरू की गाँधी के साथ भी असहमति थी। पटेल और नेहरू हर कीमत पर एक मज़बूत केन्द्र चाहते थे, चाहे इसके लिए विभाजन का दंश ही क्यों न झेलना पड़े।
कश्मीर के शामिल होने पर कश्मीरी जनता के जनमत संग्रह का भी वायदा जनता से किया गया था, जिसे कभी निभाया नहीं गया। इसके लिए नेहरू का तर्क यह था कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1947-48 में पाकिस्तान-समर्थित हमले के बाद यह तय किया गया था कि पाकिस्तान कश्मीर के उत्तर-पश्चिमी हिस्से से अपनी सेनाएँ वापस बुलायेगा और उसके बाद जनमत संग्रह कराया जायेगा। पाकिस्तानी शासकों ने अपना कब्ज़ा छोड़ा नहीं और इसके कारण जनमत संग्रह कराने से भारतीय शासकों ने इंकार कर दिया। लेकिन भारत और पाकिस्तान की क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षाओं में पिस गया कश्मीरी अवाम।
1953 में नेहरू ने शेख़ अब्दुल्ला की चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर दिया और शेख़ अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया और कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। शेख़ अब्दुल्ला बीच में बाहर आये लेकिन जनमत संग्रह को लेकर उनकी अपेक्षाकृत नरम अवस्थिति अब भी नेहरू को स्वीकार नहीं थी। कुछ समय बाद उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। 1964 में शेख़ अब्दुल्ला जब रिहा हुए तब तक वे कश्मीर में जनमत संग्रह और उसकी स्वायत्तता के मसले को लेकर काफी हद तक समझौता-परस्त हो चुके थे। 1970 का दशक आते-आते धारा 370 का कोई अर्थ नहीं रह गया था। भारतीय शासक वर्ग की इस असुरक्षा भावना ने, कि अगर कश्मीर की जनता को खुला हाथ दिया गया तो वह पाकिस्तान में शामिल हो सकती है, कभी भी कश्मीर की जनता को भारत में अपनी राष्ट्रीय अस्मिता के साथ शामिल नहीं होने दिया। कश्मीर की जनता अपनी इच्छा से स्वायत्तता की शर्त के साथ भारतीय संघ में शामिल हुई थी। ऐसे में भारतीय राज्य द्वारा उनके साथ ऐसे व्यवहार को कश्मीरी जनता ने एक धोखे और विश्वासघात के रूप में लिया। यही कारण है कि आज फारूख अब्दुल्ला जैसे समझौता-परस्त भी 1953 तक की स्थिति को बहाल करने की माँग कर रहे हैं, अगर वे इससे आगे न भी बढ़ें। क्योंकि इतनी माँग किये बग़ैर वे कश्मीरी जनता में अपना हर किस्म का आधार खो बैठेंगे। पहले ही कश्मीरी जनता का एक विचारणीय हिस्सा उन्हें गुलाम बख़्शी मोहम्मद जैसा ग़द्दार मानने लगा है। गुलाम बख़्शी मोहम्मद शेख़ अब्दुल्ला के हटाये जाने के बाद कश्मीर का मुख्यमन्त्री बना था और पूरी तरह भारतीय राज्य की कठपुतली के रूप में काम करता था।
इस ऐतिहासिक विश्वासघात ने कश्मीरी जनता में अलगाव की भावना को और अधिक बढ़ाया। जनमत संग्रह और स्वायत्ता की माँग को लेकर अलग-अलग समय पर अलग-अलग संगठनों ने कश्मीरी जनता के बीच काम किया और उन्हें संगठित किया। इस प्रकार की गतिविधियाँ जिस रफ्तार से बढ़ीं, उसी रफ्तार से भारतीय राज्य का चरित्र अधिक से अधिक दमनकारी होता गया। सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद कश्मीर में एक सैन्य शासन जैसी स्थिति बन गयी। इस पूरे दौर में पाकिस्तान द्वारा कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने और धार्मिक कट्टरपन्थी आतंकवाद के बढ़ने की प्रक्रिया जारी रही। 1980 के दशक से कश्मीर में आतंकवाद एक बड़ी परिघटना के रूप में अस्तित्व में आ चुका था। इस दशक का उत्तरार्द्ध आतंकवाद की भयंकरता का उत्कर्ष था। 1989 से 1991-92 के बीच ही हज़ारों कश्मीरियों ने आतंकवाद और भारतीय राज्य के बीच के टकराव की कीमत चुकायी। धार्मिक कट्टरपन्थी आतंकवाद का कश्मीरी जनता के एक हिस्से में आधार भी तैयार हुआ। सेना द्वारा अकल्पनीय दमन, हत्या, बलात्कार और अपहरण की प्रतिक्रिया में कश्मीरी घरों के नौजवान आतंकवाद के रास्ते पर जाने लगे। भारतीय राज्य द्वारा किये गये धोखे और उसके बाद कश्मीरी जनता के भयंकर दमन ने मिलकर कश्मीरी जनता के अलगाव को नयी हदों तक बढ़ा दिया था। आज़ादी या फिर पाकिस्तान में शामिल हो जाने वाले अलगाववादी समूहों की कश्मीरी जनता के बीच ज़बर्दस्त पकड़ बन चुकी थी। लेकिन इस बात की सच्चाई यह है कि इसके लिए काफी हद तक भारतीय राज्य का विश्वासघात और सेना-दमन जिम्मेदार था। निश्चित रूप से इसमें सहायक योगदान पाकिस्तान द्वारा आतंकवादी और धार्मिक कट्टरपन्थी गतिविधियों को बढ़ावा देना भी था। एक और महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि 1970 के दशक में जनसंघ और उसके बाद संघ-समर्थित जम्मू प्रजा परिषद की साम्प्रदायिक गतिविधियों ने भी हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच के तनाव को काफी बढ़ाया। यह अनायास नहीं था कि कश्मीर में सदियों से साथ रह रहे हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच 1930 के दशक से तनाव की स्थिति बनने लगी थी। इसके लिए इस्लामिक कट्टरपन्थ और संघ की गतिविधियाँ, दोनों ही जिम्मेदार थीं।
1989 से भारतीय राज्य ने कश्मीर घाटी में आतंकवाद के विरुद्ध बड़े पैमाने पर सैन्य अभियान शुरू किया और अपनी सैन्य शक्तिमत्ता के बूते पर 1993 आते-आते आतंकवादी समूहों को काफी हद तक कुचल डाला। बताने की ज़रूरत नहीं है कि यही वह समय था जिस दौरान आतंकवाद को कुचलने के नाम पर कश्मीरी जनता का भी सेना ने भयंकर दमन और उत्पीड़न किया। 1993 में भारत सरकार ने दावा किया कि कश्मीर घाटी में आतंकवाद और पाकिस्तान से घुसपैठ को ख़त्म कर दिया गया है और अब घाटी में एक अनुमान के अनुसार केवल 600 से 1000 सशस्त्र आतंकवादी मौजूद हैं। लेकिन आतंकवाद को कुचलने के लिए जिस ज़बर्दस्त सैन्य उपस्थिति को सही ठहराया जाता रहा था, वह इसके बाद भी मौजूद रही। सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम भी अपनी जगह पर रहा और सेना द्वारा इसका अमानवीय दुरुपयोग जारी रहा।
कश्मीर की जनता ने 1980 के दशक से लेकर 1990 के दशक के पूर्वार्द्ध तक जो कुछ झेला था, उसके बाद के दस वर्ष एक सापेक्षिक चुप्पी का दौर रहा। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि कश्मीरी जनता की आकांक्षाएँ और उसकी चाहतें ख़त्म हो चुकी थीं। भारतीय सैन्य शक्तिमत्ता के सामने आतंकवाद या सशस्त्र संघर्ष टिक नहीं सकता था, यह साबित हो चुका था। कश्मीरी जनता के अधिकांश अलगाववादी दलों को न्यूट्रलाइज़ या समाप्त किया जा चुका था। जे.के.एल.एफ. की ताकत काफी कम हो चुकी थी और यासीन मलिक जैसे नेता दमन झेलने के बाद नरम पड़ चुके थे। लेकिन डेढ़ दशक बाद भारतीय शासकों की यह ख़ुशफहमी दूर हो चुकी है कि कश्मीर समस्या का समाधान उसने सैन्य-शक्ति से कर दिया है। नयी सहस्राब्दि के पहले दशक के मध्य से एक बार फिर से कश्मीर में उथल-पुथल शुरू हो चुकी थी। हुर्रियत कान्फरेंस के नेता सैयद अली शाह गिलानी के नेतृत्व में तहरीक-ए-हुर्रियत का आन्दोलन शुरू हो चुका था। और इस बार आन्दोलन का स्वरूप बिल्कुल भिन्न था। कश्मीरी जनता में सैन्य-दमन और अत्याचार के खि़लाफ जो भयंकर असन्तोष सुलग रहा था, उसे एक मार्ग मिल गया था। निश्चित रूप से, गिलानी एक इस्लामी कट्टरपन्थी नेता हैं और कई लोग यह भी आरोप लगाते हैं कि आज़ादी या स्वायत्ता की माँग के पीछे उनकी असली मंशा पाकिस्तान में शामिल होने की है। गिलानी के नये सिपहसालार मसर्रत आलम और आसिया अन्द्राबी ने जिस किस्म की गतिविधियों को अंजाम दिया उससे यह शक और पुख़्ता हुआ। मसर्रत आलम और ख़ास तौर पर आसिया अन्द्राबी एक इस्लामी कश्मीरी राज्य बनाने के पक्षधर हैं। गिलानी को भारतीय राज्य से बातचीत की टेबल पर भी बैठना होता है, इसलिए वे अपने इस्लामी कट्टरपन्थ को दिखलाते हुए भी आज़ादी की बात तुलनात्मक रूप से बच-बचाकर करते हैं। लेकिन आसिया अन्द्राबी ने गिलानी के नेतृत्व में अपना राजनीतिक कैरियर शुरू ही कट्टरपन्थी गतिविधियों से किया। सबसे पहले अन्द्राबी ने बुरका पहनने को थोपने और ब्यूटी पार्लरों पर हमले से शुरुआत की। इसके बाद, उन्होंने हर उस चीज़ पर हमला किया जो आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करती है। मसर्रत आलम ने भी अपने इस्लामी कट्टरपन्थी ‘क्रेडेंशियल्स’ को खुलकर पेश किया। लेकिन साथ-साथ इन लोगों ने भारतीय सेना द्वारा किये जा रहे अत्याचारों पर जमकर हमला बोला और लोगों को इसके विरुद्ध गोलबन्द और संगठित करना शुरू किया।
इस समय और कोई ऐसी ताकत मौजूद नहीं थी जो इस रैडिकल तेवर और साहस के भारतीय सेना के दमन के खि़लाफ आवाज़ उठा रही हो। नतीजतन, तहरीक आन्दोलन के पक्ष में जनता ने अपना समर्थन जताना शुरू कर दिया। 2004-05 आते-आते इस आन्दोलन ने कश्मीर घाटी में गहरे तक अपनी जड़ें जमा ली थीं। इसका पहला बड़ा प्रमाण मिला 2009 में अमरनाथ यात्रा के लिए भूमि अधिग्रहण के खि़लाफ हुए आन्दोलन में। इस आन्दोलन में काफी समय बाद ‘भारत वापस जाओ’ के नारे जमकर लगे। लेकिन इस बार इस प्रतिरोध पर खुलकर सैन्य ताकत का इस्तेमाल सम्भव नहीं था, क्योंकि प्रतिरोध का रूप सिविल था। अधिक से अधिक पथराव किये गये। लेकिन कहीं भी एक भी कारतूस नहीं दाग़ा गया। यह नया प्रतिरोध ज़्यादा आकारहीन और शक्तिशाली था। कारण यह था कि इस आन्दोलन की कतारों में सड़क पर आप जिन चेहरों को देख सकते थे, वे कोई लश्कर-ए-तैयबा या हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकवादी नहीं थे, जो ए.के.-47 से लैस हों। इसमें किशोरवय के स्कूल जाने वाले लड़के, विशेष रूप से बेरोज़गार नौजवान, प्रौढ़ और अधेड़ महिलाएँ और आम जनता थी, जो भारतीय सेना के दमन और उत्पीड़न के खि़लाफ अपनी नफरत के चलते सड़कों पर उतरी थी। यह भारतीय राज्य के लिए ख़ास तौर पर काफी शर्मिंदगी पैदा करने वाला था क्योंकि अभी कुछ समय पहले ही करीब 10 लाख सशस्त्र बलों की स्थिति में कश्मीर में चुनाव करवाये गये थे और कश्मीर में अस्तित्वहीन पार्टियों, जैसे कि सपा, राजद, बसपा आदि से भी पर्चे भरवा कर 60 प्रतिशत तक का मतदान करवाने में सफलता हासिल की गयी थी। इस चुनाव को भारतीय शासक वर्ग ने भारतीय लोकतन्त्र की कश्मीर में विजय के रूप में पेश किया था और खाता-पीता ‘‘राष्ट्रवादी’‘ भारतीय मध्यवर्ग इससे काफी प्रसन्न हुआ था और उसे लगा था कि कश्मीर समस्या का समाधान लगभग हो ही गया। लेकिन 2009 में अमरनाथ यात्रा विवाद और उसके बाद शोपियाँ में दो महिलाओं के सशस्त्र बलों द्वारा बलात्कार और हत्या, माछिल फर्जी मुठभेड़ में कश्मीरी युवकों की हत्या, और फिर जुलाई 2010 में तुफैल मट्टू सेना की गोलाबारी में मौत के बाद से कश्मीरी जनता जिस तरह से सड़कों पर है, उससे ऐसे सारे भ्रमों का निवारण हो गया है।
स्पष्ट है कि इस बार कश्मीर का उभार एक इन्तिफादा या जनविद्रोह का रूप लेकर सामने आया है। अगर यह भारतीय सैन्य दमन से जीत नहीं सकता तो भारतीय सैन्य दमन भी इसे हरा नहीं सकता है। भारतीय शासक वर्ग भी इस बात को समझ रहा है। यही कारण है कि सैन्य समाधान की बजाय किसी राजनीतिक समाधान और इस समाधान में पाकिस्तान को भी शामिल करने की बात प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह कर रहे हैं। यह काफी समय बाद है कि किसी भारतीय प्रधानमन्त्री ने खुले तौर पर कश्मीर मुद्दे के समाधान के लिए पाकिस्तान की भागीदारी आमन्त्रित की है। गिलानी की सारी माँगों को मानने के लिए भारतीय शासक वर्ग कतई तैयार नहीं है। कश्मीर पर अपने दमनकारी रुख़ को ख़त्म करने के लिए भी भारतीय शासक वर्ग तैयार नहीं है, क्योंकि उसे भय है कि कश्मीर पर शिकंजा ढीला करते ही वह पाकिस्तान के पास चला जायेगा। लेकिन हाल में दिये गये राजनीतिक पैकेज में भारतीय शासकों ने कुछ बातें मानी हैं। गिरफ्तार लोगों को छोड़ने की बात की गयी है और साथ ही सर्वपक्षीय प्रतिनिधि मण्डल को कश्मीर भेजा गया।
लेकिन सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम और डिस्टर्ब्ड एरियाज़ एक्ट को हटाने पर शासक वर्गों में दो-फाड़ हो गया है। भाजपा हमेशा की तरह इसके बिल्कुल खि़लाफ है और अपनी दक्षिणपन्थी फासीवादी लाइन के अनुसार वह कश्मीर को हमेशा की तरह अँगूठे के नीचे रखने की पक्षधर है। कांग्रेस में इस सवाल को लेकर असमंजस की स्थिति है। एक हिस्सा इसे हटाने पर विचार करने की बात कर रहा है, दूसरा इसमें संशोधन की और तीसरा पूरी तरह दक्षिणपन्थी रुख़ का समर्थन कर रहा है। संसदीय वामदल और क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधि बस बातचीत से हल और राजनीतिक समाधान की बात करते हैं। संसदीय वामदल सशस्त्र बल विशेषाधिकार को हटाने का ज़बानी समर्थन करते हैं, लेकिन इसका कोई विशेष अर्थ नहीं है। फिलहाल, भारतीय शासक वर्गों की स्थिति कश्मीर की जनता को थका देने की है। अपने दमनकारी रुख़ में तो वह कोई उल्लेखनीय कमी नहीं ला रहा है लेकिन मीठी बातों की बौछार कर रहा है और साथ में कुछ प्रतीकात्मक कदम उठा रहा है। एक बार कश्मीर के स्थिर होने पर शासक वर्ग सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून में संशोधन पर विचार वाकई कर सकता है। लेकिन इसका अर्थ कश्मीर समस्या का समाधान कभी नहीं हो सकता। चक्रीय क्रम में कश्मीर की जनता सड़कों पर कुछ-कुछ अन्तराल के बाद उतरती रही है और उतरती रहेगी। सैन्य दमन का ख़ात्मा कश्मीर में मौजूद ढाँचे के भीतर कर पाना भारतीय शासक वर्ग की किसी भी पार्टी के लिए सम्भव नहीं है। जो पार्टी स्वायत्ता या जनमत संग्रह की बात को मानेगी, वह पूँजीवादी राजनीति के दायरे के भीतर अपनी ही कब्र खोदेगी। कश्मीरी जनता की जो मूल माँगें हैं, यानी स्वायत्ता और आत्मनिर्णय का अधिकार, वे सैन्य-दमन के रास्ते से कभी ख़त्म नहीं होंगी। पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर ये माँगें कभी मानी नहीं जायेंगी और कभी सैन्य-दमन और कभी जनता को सड़कों पर थका देने की रणनीति और कभी इन दोनों रणनीतियों के मिश्रण से भारतीय शासक वर्ग कश्मीर पर अपने अधिकार को कमोबेश इसी रूप में कायम रखेगा।
यह भी सच है कि गिलानी, मसर्रत और अन्द्राबी जैसे धार्मिक कट्टरपन्थियों की कश्मीर की आज़ादी की माँग की अनुगूँज पूरे जम्मू-कश्मीर में नहीं है। यहाँ तक कि कश्मीर घाटी में भी जनता का एक विचारणीय हिस्सा उनके साथ सिर्फ इसलिए है क्योंकि भारतीय राज्य के दमन का कारगर विरोध करने वाली और कोई सक्षम ताकत नहीं है। जिस समय जे.के.एल.एफ. मौजूद था, जनता का इससे भी ज़बर्दस्त समर्थन उसे प्राप्त था और जे.के.एल.एफ. को एक सेक्युलर विश्वसनीयता वाला संगठन माना जा सकता है। आज गिलानी की अपील इसी बात में है कि वही भारतीय राज्य के दमन का प्रतिरोध कारगर रूप से करने वाले नेता हैं। गिलानी की माँग का लेह-लद्दाख़ के बौद्धों, कारगिल के शिया मुसलमानों और जम्मू के सिख और हिन्दुओं में कोई समर्थन नहीं है। हालाँकि गिलानी और मसर्रत आलम दोनों ही बोलते हैं कि उनके आज़ाद कश्मीर में हिन्दुओं और बौद्धों और साथ ही शिया मुसलमानों को अपने तरीके से पूजा और जीवन की पूरी आज़ादी होगी और उनका इस्लाम इन समुदायों के लिए भी कल्याणकारी होगा, लेकिन इस पर कोई भरोसा नहीं करता। ख़ास तौर पर जब उन्हीं के संगठन की आसिया अन्द्राबी इस्लामिक कट्टरपन्थी आतंक फैलाने की गतिविधियों में संलिप्त हों। इसलिए एक बात तो साफ है कि आज़ादी की माँग का कोई भविष्य नहीं है। आत्मनिर्णय का अधिकार मौजूदा हालत में मिलता भी है और कश्मीर आज़ाद भी हो जाता है, तो वह पाकिस्तान या भारत का ‘सैटेलाइट स्टेट’ ही बनेगा। और यह सम्भव भी नहीं है।
फिर आखि़र कश्मीर समस्या का समाधान क्या है? यह एक जटिल प्रश्न है। कश्मीर समस्या का समाधान और न सिर्फ कश्मीर समस्या का, बल्कि भारतीय संघ में राष्ट्रीयता के प्रश्न जहाँ-जहाँ मौजूद हैं, उनका समाधान एक समाजवादी राज्य के तहत ही हो सकता है, जो इन इलाकों को अलगावग्रस्त कर दमन के शिकंजे में न रखे। आज से ही इन राष्ट्रीयताओं के मेहनतकश अवाम और नौजवानों के बीच क्रान्तिकारी ताकतों को काम करना होगा और उन्हें राजनीतिक रूप से सचेत बनाते हुए पूरी व्यवस्था के परिवर्तन की लड़ाई का एक अंग बनाना होगा। उन्हें इस प्रक्रिया में ही यह यकीन पैदा होगा और यह समझ आयेगा कि आत्मनिर्णय का अधिकार उन्हें तभी मिल सकता है, जब भारतीय पूँजीवादी राज्य को उखाड़ फेंका जाये और एक मेहनतकश सत्ता की स्थापना की जाये जिसमें उत्पादन, राज-काज और समाज के ढाँचे पर उत्पादन करने वाले वर्गों का हक हो। क्रान्तिकारी संघर्ष में इन राज्यों की जनता का साथ और भागीदारी ही इस बात को भी सुनिश्चित करेगी कि इन दमित-उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं को अपने आत्मनिर्णय और अपना भविष्य तय करने का हक मिले और इस संघर्ष की प्रक्रिया में ही एक राजनीतिक एकीकरण भी होगा, जो उन्हें एक ऐसे राज्य में अपनी पृथक राष्ट्रीय पहचान के साथ कायम रखने की सम्भावना रखता है, जो राजनीतिक, आर्थिक, राष्ट्रीय और सांस्कृतिक शोषण, उत्पीड़न और दमन पर आधारित न हो।
इसलिए राष्ट्रीयता के संघर्षों का अलग से कोई भविष्य नहीं नज़र आता है। दमित राष्ट्रीयताओं के संघर्षों को अगर मुकाम तक पहुँचना है तो उन्हें पूँजीवाद-साम्राज्यवाद विरोधी क्रान्ति के संघर्ष से जुड़ना होगा। पिछले 64 वर्ष का हमारे देश का और आज पूरी दुनिया का इतिहास इस बात को पुष्ट करता है, कि ऐसे संघर्ष अब अगर हारे नहीं जायेंगे तो जीते भी नहीं जा सकते। आत्मनिर्णय का अधिकार समाजवाद दे सकता है, पूँजीवाद नहीं। इसलिए ऐसी राष्ट्रीयताओं के संघर्ष के एजेण्डा में भी समाजवाद स्थापित करने के प्रश्न को लाना पड़ेगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्टूबर 2010
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