15 अगस्त के मौक़े पर कुछ असुविधाजनक सवाल!
आशीष
राजसत्ता
तिहाड़ की दीवार है
भागलपुर की तेज़ाब है
अन्तुले की नैतिकता और
जगन भाई का लोकतन्त्र है।
राजसत्ता
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का
कानून है
और जो इस कानून की ज़द में है
उसे बोलने नहीं देती राजसत्ता।
राजसत्ता
प्रजातन्त्र का प्रजापति है
और “प्रजा” अगर “तन्त्र” से
टकराती है कभी
तो तन्त्र कि हिफाज़त में तैनात
बन्दूक की नाल से
बोलती है राजसत्ता –
कि सुनो मेरी प्यारी-प्यारी प्रजा
तुम्हें तन्त्र के भीतर ही
प्रजा होने का हक है
पुलिस और फौज
सचिवालय और न्यायालय
कर्फ्यू और गोली
प्रजा और तन्त्र के सम्बन्धों की संवैधानिक व्याख्याएँ हैं।
राजसत्ता कहती है –
कविता को नहीं होना चाहिए
राजसत्ता के बारे में
कानून के बारे में नहीं होनी चाहिए
कोई कविता,
तन्त्र के बारे में
कविता को नहीं होना चाहिए
कविता को होना चाहिए
सिर्फ चाहिए जैसी कविता
के बारे में।
राजसत्ता अस्सी प्रतिशत लोगों की आँखों में
बूट और बारूद की सत्ता है
पाँच प्रतिशत लोगों के हाथ में
मनमाना राज्य
और बाकी हम जैसों के दिमाग़ में
राजसत्ता।
और संविधानों और भाषणों के बाद
अन्ततः राजसत्ता
सीसे की ढली हुई
दो ओंस की गोली है।
इस वक़्त दिन में
जब ठीक बारह बजकर
ठीक दो मिनट हुए हैं
तब क्या यह बिखरी-बिखरी सी कविता
राजसत्ता से पूछ सकती है
कि ठीक इस वक़्त
राजसत्ता
दो ओंस के सीसे में ढलकर
किस शहर के
किस जुलूस के
किस मनुष्य के सीने के
गरम-गरम जिन्दा रक्त में
मृत्यु बनकर प्रवेश कर रही है।
काश! 15 अगस्त के मौके पर टिप्पणी करते हुए उदय प्रकाश की इन पंक्तियों का इस्तेमाल न करना पड़ता। मैं भी ‘आज़ादी’ के जश्न में मशगूल होता। देश-राग सुनते हुए आनंदित होता। माननीय प्रधानमन्त्री जी की मनमोहनी वक्तृत्व-कला पर रीझ जाता। जैसे उनके आलाकमान व अफसरान रीझे हुए हैं। खाया-अघाया, हृष्ट-पुष्ट देश का सम्भ्रान्त, सभ्य-शालीन प्रभुवर्ग डूबा हुआ है। मैं मनमोहन जी का ‘सारगर्भित’ भाषण डूबकर सुन पाता कि बार-बार मन में कुछ सवाल कौंधने लगते। वे सवाल जवाब चाहते हैं। हो न हो, वे सवाल आपके जेहन में भी उठ रहे हों कि –
क्या प्रधानमन्त्री जी को पता है कि जब वे लालकिला की प्राचीर से भारतीय जन-गण को सम्बोधित कर रहे थे, उसके ठीक 24 घण्टा पहले अलीगढ़ में पुलिस इस देश की ‘जन’ पर गोलियाँ बरसा कर कइयों को लहूलुहान कर चुकी थी और तीन को मौत के घाट उतार चुकी थी। मारे गये किसानों की महज़ इतनी भर माँग थी कि ‘यमुना एक्सप्रेस वे’ के नाम जे.पी. समूह के लिए उनसे जो ज़मीन सरकार ने हथिया लिया है उसका उचित मुआवज़ा दिया जाये। बस इतनी सी बात।
आसमान में उड़ते लाल, नीले, हरे, गुलाबी बहुरंगी गुब्बारों के गुच्छे बेहद अच्छे लगते हैं। जब यही गुब्बारे नन्हे-मुन्ने बच्चों के हाथों में होते हैं तो और भी ख़ूबसूरत लगते हैं। लेकिन जब यही बच्चे हाथों में पत्थर लेकर फौजियों की ओर फेंकते हैं तो आपको कैसा लगता है? क्या ये बच्चे आतंकवादी हैं? जब पूरा कश्मीर फौजी छावनी में तब्दील हो, ‘आज़ादी’ का जश्न कफ्ऱर्यू के साये में हो तब बरबस सवाल उठता है कि किसकी आज़ादी है और संगीनों के साये में जीती इस ‘आज़ादी’ को डर किससे है। यह ख़बर भी मनमोहन जी ने सुनी होगी कि जब जनाब उमर अब्दुला आला सदर जम्मू-कश्मीर जन-गण को सम्बोधित करने वाले थे कि उन्हें एक ‘जूता’ फेंककर मारा गया। शुक्र है लगा नहीं और आवाज़ आयी ‘हमें आज़ादी चाहिए’। बस इत्ती सी बात। बेहयायी की हद तो देखो अगले ही दिन सदरे आला के वालिद जनाब फारूख़ अब्दुल्ला का बयान आता है कि अब हमारा उमर बुश के बराबर का हो गया। (इराकी जनता की तबाही का मंज़र क्या आँखों से ओझल हो गया है?)
भारत एक सम्प्रभुतासम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य है। कानून के सामने सारे नागरिक बराबर हैं, कहा जाता है कि कोई छोटा हो या बड़ा सबके साथ एक सा व्यवहार किया जाता है। इसका मूल्यांकन करने के लिए अभी नज़दीक का उदाहरण काफी है – भोपाल की गैस त्रासदी को दुनिया भर ने जाना। करीब 35,000 आम ग़रीब लोगों की मौत हुई व 6 लाख से ज़्यादा हताहत हुए। सरकार के कारकूनों की मिलीभगत से कम्पनी का मुखिया ससम्मान बाहर भेज दिया गया। आज 26 बरस बाद भारतीय न्यायपालिका के फैसले को भी दुनिया भर ने जाना। जिम्मेदार अधिकारियों को बेहद मामूली सज़ा देकर साफ-साफ छोड़ दिया गया। इतना बड़ा हत्याकाण्ड और सज़ा के नाम पर मज़ाक। न्यायाधीशों ने कहा कि ऐसे अपराध के लिए भारतीय दण्ड संहिता में उपयुक्त धारा नहीं है, इसलिए इसे उसी धारा के तहत दर्ज किया गया, जिसके तहत लापरवाही से हुई सड़क दुर्घटना को दर्ज किया जाता है। सज़ा किसको मिली? 26 साल से दर-दर भटकते अनाथ बच्चों को; उन बेवाओं को जिन्होंने अपना पति खो दिया या उन माँओं को जो अपने बेटे खो चुकी हैं? एक और नमूना मौजूद है। नोएडा के ग्रेजियानो कम्पनी के 66 मज़दूरों को रासूका के तहत जेल के सींखचों में ढकेल दिया गया। कारण कम्पनी का सीईओ आपसी झड़प में मर गया। ऐसे में सवाल उठता है कि भारतीय जेलों में सड़ रहे लोग कौन हैं? सबके-सब प्रमाण-सिद्ध अपराधी? सचमुच!
मेरी निगाह में यह न्याय का तमाशा है। ऊबाऊ है, बोगस है। जितना बोगस, थकाऊ 15 अगस्त का सालाना जलसा। लालकिले से प्रधानमन्त्री का भाषण। परेड की सलामी। ‘जन-गण-मन अधिनायक’ का उद्घोष आदि-आदि। ज्यों-ज्यों दिन गुज़रते जा रहे हैं यह सवाल गहराता जा रहा है कि – (रघुवीर सहाय के शब्दों में)
राष्ट्र गीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है।
पूरब-पच्छिम से आते हैं
नंगे-बूचे नर कंकाल
सिंहासन पर बैठा उनके
तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन-बेमन जिसका
बाजा रोज़ बजाता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्टूबर 2010
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