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पाठक मंच

जी चाहता है
मुबारक़बाद दे दूँ, नववर्ष की
फिर सोचता हूँ
क्या ख़ास होगा नये साले में?
हाथों में डिग्रियाँ,
फिर भी ख़ाली हाथ
ख़ाली घूमते, आवारा से
युवा बेरोज़गार
जो बनते ही गये
राजनेताओं के झाँसे,
और राजनीति का शिकार
फँस कर रह गये, बस!

गर तुम इस दौर के इंक़लाबी न हुए, तो क्या हुए?

कोई क्लर्क, दिहाड़ी मज़दूर, जज-वकील, डॉक्टर, इंजीनियर या कोई बड़ा अधिकारी बनकर इस बर्बर, मानवद्रोही, सड़ान्ध मारती पूँजीवादी व्यवस्था की सेवा करने से तो बेहतर है कि इसकी क़ब्र खोदने वाले हाथों के साथ अपना हाथ मिलाया जाये। अपना पक्ष चुना जाये और इंक़लाब में अपनी भूमिका निभायी जाये। चुना जाये कि तौरे-ज़िन्दगी क्या हो! समझौता करते हुए कि संघर्ष करते हुए।

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 साथी, मैं एक मज़दूर हूँ और गुड़गाँव की एक कम्पनी में नौकरी करता हूँ। आज के समय में संकट और बेरोज़गारी जो कि दिन-प्रतिदिन मेरी आँखों के सामने नंगी सच्चाई की तरह उपस्थित है, इसे मैंने कविता के रूप में व्यक्त किया है। उम्मीद करता हूँ कि ये विचार ‘आह्वान’ के लायक होंगे!

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मैं काफी समय से ‘आह्वान’ का नियमित पाठक हूँ। पत्रिका के पिछले दोनों विशेषांक – फासीवाद-विरोधी अंक और मीडिया पर केन्द्रित अंक – बहुत ही उपयोगी और बहुमूल्य सामग्री उपलब्ध कराते हैं। इन विषयों पर एक साथ इतनी विचारोत्तेजक और सूझबूझ भरे गहन विश्लेषण से भरी सामग्री एक साथ नहीं मिलती। आजकल हर विषय के जिस तरह से सरलीकृत विश्लेषणों का दौर है, उससे हटकर ‘आह्वान’ के लेख ठहरकर सोचने और गहराई में जाकर चीज़ों को समझने के लिए प्रेरित करते हैं। मुझे हैरानी होती है कि जहाँ सतही सामग्री वाली पत्रिकाओं का भी बाज़ार गर्म है, वहाँ इस पत्रिका की उचित चर्चा क्यों नहीं की जाती। आप लोगों को इसका दायरा और व्यापक बनाने के बारे में सक्रिय प्रयास करने चाहिए। मुझसे जो भी सहयोग बन पड़ेगा वह मैं करने के लिए तैयार हूँ।

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मैं दो वर्ष से ‘आह्वान’ का नियमित पाठक हूँ। देर से ही सही ‘आह्वान’ का फासीवाद-विरोधी विशेषांक प्राप्त हुआ। इसे पढ़कर बहुत कुछ सीखने को मिला। इससे हमें पता चला कि कैसे घोर प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ जनता की निम्न चेतना का फ़ायदा उठाकर उसे राष्ट्र, धर्म, नस्ल, जाति, रंग, भेद आदि के नाम पर भड़काकर अपने ही वर्ग भाइयों से लड़वाती है। तमाम सरकारें बड़ी पूँजी की सेवा करती हैं, ठीक वैसे ही जिस प्रकार अलीशान बंगले की हिफ़ाज़त बाहर पहरा दे रहे कुत्ते करते हैं। ऐसे विशेषांकों की हमारे देश को बहुत ज़रूरत है। क्योंकि इस समय क्रान्तिकारी शक्तियों पर प्रतिक्रान्तिकारी शक्तियाँ हावी हैं। मेरी आह्वान के सम्पादक से अपील है कि वे ऐेसे ही फासीवाद पर साम्रगी देते रहें।

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मैं पिछले 3 अंकों से ‘आह्वान’ पढ़ रहा हूँ और अपने मित्रों को भी पढ़वा रहा हूँ। हमें यह बहुत प्रेरित करता है। इसके लेखों से हमें देश की समस्याओं के बारे में स्पष्ट समझ बनाने में बहुत मदद मिलती है। हम लोग केजरीवाल की पार्टी के समर्थक थे और उसका प्रचार भी करने लगे थे, लेकिन इसके घोषणापत्र की समीक्षा वाला लेख पढ़कर तो जैसे हमारी आँखें खुल गयीं। हमने भ्रष्टाचार और इसके समाधान पर आपके लेखों की आह्वान पुस्तिका भी पढ़ी। इसका व्यापक प्रचार करना चाहिए ताकि लोगों को पूँजीवाद के वास्तविक विकल्प के लिए लड़ने को तैयार किया जाये न कि वे भूलभुलैया में भटकते रहें।

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न सिर्फ़ मारुति मज़दूरों के संघर्ष के मामले में, बल्कि अन्य मज़दूर संघर्षों के मामले में भी क्रान्तिकारी वामपंथी संगठनों का नज़रिया पिछले लम्बे समय से अनालोचनात्मक रहा है। नतीजतन, इन संघर्षों को कोई दिशा देने की बजाय वे उनके पीछे ही चलते रह जाते हैं। यदि संघर्ष गड्ढे में जाता है तो वे भी गड्ढे में जाते हैं, और बाद में विश्लेषण पर लेख और पुस्तिकाएँ निकालते हैं, यह बताते हुए कि आन्दोलन में कहाँ क्या ग़लत था। क्या इससे बेहतर नहीं कि आन्दोलनों के जारी रहते ही इनकी कमियों के बारे में विचार किया जाय और उन्हें दूर किया जाय। जहाँ तक मारुति संघर्ष के बारे में कुछ नववामपंथी बुद्धिजीवियों के विचार की बात है, जिनकी आलोचना लेख में की गयी है, तो वह शेखचिल्लीवाद के सिवा और कुछ भी नहीं है। इस प्रकार के बुद्धिजीवियों के प्रभाव से मज़दूर आन्दोलनों को बचाया जाना चाहिए और सतत् इनके विचारों की आलोचना होनी चाहिए।

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‘आह्वान’ का नया अंक मिला। हमेशा की तरह विचारोत्तेजक था। मारुति सुजुकी मज़दूरों पर आये लेख ने अपनी जटिलता के बावजूद बहुत से भ्रमों का निवारण किया। निश्चित तौर से आज देश के मज़दूर आन्दोलन में प्रचलित अराजकतावादी प्रवृत्तियों के निरन्तर नकार की आवश्यकता है। व्यवस्थित शोषणकारी व्यवस्था को व्यवस्थित प्रतिरोध ही ध्वस्त कर सकता है।

कृत्रिम चेतना पर आया लेख ज्ञानवर्द्धक था। विज्ञान के कॉलम में नियमितता नहीं बन पा रही है, उसे बरकरार रखने का प्रयास करें। पहले के अंकों में कुछ विशेष राजनीतिक फिल्मों की समीक्षाएँ आयीं थीं, उन्हें भी दुबारा शुरू किया जाना चाहिए। फिल्मों का आज के युवाओं की मानसिकता पर जो प्रभाव पड़ता है, उसके मद्देनज़र पूँजीवादी प्रचार का नकार करने के लिए फिल्म समीक्षाएँ दी जानी चाहिए।

कविता – एक होज़री मज़दूर की कलम से / विशाल

दोस्तो! ‘तुम्हारी’ पैण्ट बनाने में या कमीज़ बनाने में
सिर्फ हमारी मेहनत ही नहीं
बहुत कुछ गलता-पिसता-घिसता-ख़त्म होता है
हाँ, ये सिर्फ तुम्हारी ही हैं
हमें तो ये सपनों में भी मयस्सर नहीं

पाठक मंच

पिछले अंक में माकपा की बीसवीं कांग्रेस की आलोचनात्मक समीक्षा ने बहुत से सवालों का जवाब दिया, और बहुत लम्बे समय से मौजूद जिज्ञासाओं का सटीक समाधान किया। कृपया संसदीय वामपन्थ और वामपन्थी दुस्साहसवाद पर आलोचनात्मक लेख छापते रहें। सूचना प्रौद्योगिकी के शासक वर्ग द्वारा इस्तेमाल और धार्मिक बाबाओं की काली करतूतों पर आये लेख भी प्रशंसनीय थे। मार्क ट्वेन की कहानियाँ भी पसन्द आयीं।