सद्भावना मिशन, जनचेतना यात्रा, भ्रष्टाचार-विरोधी यात्रा, साम्प्रदायिकता विरोधी उपवास
भारतीय पूँजीवादी राजनीति का प्रहसनात्मक यथार्थ
प्रेमप्रकाश
भारत की पूँजीवादी राजनीति आजकल ऐसी हो गयी है जिस पर कोई कॉमेडी फिल्म नहीं बन सकती। कॉमेडी शैली का मूल होता है अलग-अलग तत्वों का व्यंग्यात्मक रूप से छोर तक खींच दिया जाना, अत्युक्तिपूर्ण प्रदर्शन करना। लेकिन जब यथार्थ में यह प्रक्रिया पहले ही घटित हो गयी हो, तो!!?? जैसे कि सितम्बर महीने में गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने “सद्भावना मिशन” के नाम से एक जमावड़ा किया और तीन दिन का उपवास रखा! उन्होंने अपने भाषण में गुजरात के “विकास” की चर्चा करते हुए कहा कि गुजरात के प्रगति की चर्चा आज देश और विदेश में हो रही है (हो भी क्यों न जब आप पूँजीपतियों के लिए कौड़ियों के भाव ज़मीन, पानी, बिजली मुहैया करते हों!)। उन्होंने छह करोड़ गुजरातियों के जीवन को सुखमय बनाने का दावा किया। मोदी ने कहा कि ‘प्रत्येक व्यक्ति कहता था कि गुजरात में कोई भी निवेश नहीं करेगा, लेकिन हमने उन दिक्कतों को कम कर दिया हैं’ और ‘सद्भावना मिशन वोट बैंक की राजनीति का अन्त करेगा’ आदि-आदि। आइये नरेन्द्र मोदी के हृदय-परिवर्तन की मर्मस्पर्शी कथा पर एक नज़र डालें।
गुजरात विश्वविद्यालय के एयरकण्डीशन हाल में आयोजित शो के लिए पुलिस व एस-आर-पी के 1200 जवान लगाये गये थे। इस पूरे शो का प्रबन्धन गुजरात सरकार के सूचना विकास विभाग द्वारा किया गया। राज्य परिवहन की 600 बसों को इस कार्यक्रम की सफलता के लिए लगाया गया। अहमदाबाद के 60 नगर निगम के विद्यालय एवं 50 कॉलेजों के बच्चों को वहाँ भेजने के लिए निर्देश दिया गया था। पूरे शो में 50 सी-सी-टी-वी कैमरा व 35 हैण्ड हेड कैमरा प्रयोग किये गये। स्टेज के पीछे प्लाज्मा स्क्रीन एवं तमाम सोफों आदि की व्यवस्था थी। जाहिरा तौर पर, इस शो को सफल बनाने के सारे इन्तज़ामात का ख़र्चा नरेन्द्र मोदी अपनी जेब से नहीं उठाने वाले बल्कि उसे गुजरात की जनता के कन्धों पर ही डाला जायेगा। दूसरी बात आज गुजरात के नरेन्द्र मोदी के जिस प्रबन्धन एवं विकास की चर्चा की जाती है वह क्या है? वह मात्र पूँजीवादी नीतियों को अन्धाधुन्ध लागू करते हुए पूँजीपतियों एवं व्यापारियों को खुली छूट देना है। यहाँ प्रतिरोध के स्वर के लिए कोई जगह नहीं होती। नरेन्द्र मोदी के आर्थिक विकास की प्रक्रिया एवं मॉडल को अमेरिकी संसद की रिपोर्ट यूँ ही कारगर नहीं बता रही! आज गुजरात को पूँजीपति वर्ग अपने पूंजी निवेश की सबसे माकूल जगह पा रहा है तो इसका कारण यह नहीं है कि पूँजीपति गुजरात की जनता पर मेहरबान हो रहे हैं बल्कि गुजरात में उन्हें मुनाफ़ा पीटने की सर्वाधिक अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध हैं। जनता की कमाई से खड़े सार्वजनिक प्रतिष्ठान, बिजली, सड़क जगह जंगल एवं प्राकृतिक संसाधनों को पूँजीपतियों को औने-पौने दामों पर देकर ही आज गुजरात सरकार उनको लुभा रही है। नरेन्द्र मोदी जब यह कहते हैं कि उन्होंने ‘निवेश की दिक्कतों को कम कर दिया है’ तो इसका मतलब है कि पूँजीपतियों को करों में बेतहाशा छूट, श्रम कानूनों से मुक्ति। गुजरात में एस-ई-जेड की बढ़ती संख्या मोदी के “विकास” का प्रतीक है।
अब अर्थजगत छोड़कर ज़रा नरेन्द्र मोदी के हृदय-विदारक हृदय-परिवर्तन पर आते हैं! मोदी की “सद्भावना” की पोल तब खुल गयी जब मंच पर परारा के शाही इमाम द्वारा भेंट की गयी टोपी को उन्होंने पहनने से मना कर दिया। दक्षिण गुजरात के नवसारी में एक मुसलमान द्वारा शाल भेंट किये जाने पर मोदी ने उसे नहीं लिया। आखि़र यह कैसी सद्भावना है? जहाँ एक तरफ तो लोगों के सामने दिखावा करो कि सभी गुजराती ही नहीं अपितु सभी हिन्दुस्तानी आपके भाई-बहन हैं और दूसरी तरफ भेंट में दी गयी चीज़ों को ग्रहण करने में धर्म और मजहब आड़े आने लगता है। मोदी के लिए सद्भावना की यह नौटंकी वक्त की ज़रूरत है। संघ की पूरी राष्ट्रीय योजना में मोदी के उग्र हिन्दुत्व को थोड़ा नरम करने की ज़रूरत थी और इसी व्यापक योजना के तहत मोदी के दिल में सद्भावना की बाढ़ आ गयी थी।
गुजरात के जिस “विकास” को नरेन्द्र मोदी वहाँ की जनता का विकास बता रहे हैं वह महज़ पूँजीपतियों और खाते-पीते मध्यवर्ग का विकास है। आइये एक नज़र कुछ आँकड़ों पर डालें। गुजरात की 11 प्रतिशत विकास दर के बावजूद आज भी 31 प्रतिशत गुजराती ग़रीबी रेखा से नीचे जीने पर मजबूर हैं। और यह ग़रीबी रेखा भी इस महँगाई भरे दौर में 600 रु. प्रतिमाह शहरों एवं 420 रु. प्रतिमाह गाँवों में कमाने को आधार मानकर बनायी गयी है। ‘ग्रामीण भारत में खाद्य असुरक्षा’ पर स्वामीनाथन रिसर्च फ़ाउण्डेशन की रिपोर्ट में कहा गया है कि गुजरात में 21 प्रतिशत लोग कुपोषित हैं। वर्ष 2005-06 में गुजरात में 15-49 वर्ष की उम्र की औरतों में 59.20 प्रतिशत औरतें रक्तअल्पता की शिकार थीं।
वर्ष 2002 में हज़ारों बेगुनाह ग़रीब मुसलमानों के कत्लेआम और जनता की लाशों पर वोट की फसल काटकर सत्ता में आये नरेन्द्र मोदी की “सद्भावना” में ही आज तक गुजरात दंगों के नरोदा पटिया के पीड़ित न्याय की आशा में भटक रहे हैं। तमाम फर्जी एनकाउण्टर की घटनाएँ आज भी न्याय के लिए लम्बित पड़ी हैं। न्याय एवं अधिकार की माँग को दबा दिया जाता है। “सद्भावना मिशन” के ही दौरान 2002 के गुजराज दंगों में पीड़ित लोगों की तरफ से जन संघर्ष समिति जो ज्ञापन मोदी को देने आ रही थी उनको पुलिस ने गिरफ्ऱतार कर लिया और उसको ज्ञापन तक नहीं देने दिया गया। अपनी बात कहने की आज़ादी भी गुजरात में आम जनता को नहीं है। यह है मोदी की “सद्भावना”। इस सद्भावना की बयार के बहने के ठीक बाद गुजरात दंगों में आरोपी विधायकों को कठघरे में खड़ा करने वाला एक गवाह मार दिया गया!
दसअसल यह तथाकथित “सद्भावना मिशन” वर्ष 2012 के गुजरात चुनावों एवं वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों को दृष्टि में रखकर देश में एक बार पुनः वोट की राजनीति की शुरुआत एवं भाजपा के भीतर के संघर्षों में अपनी अवस्थिति को और अधिक मजबूत करने की सियासी चाल से इतर कुछ भी नहीं है। गुजरात सरकार द्वारा पिछले कुछ समय से गुजरात एवं उससे बाहर के राज्यों के तमाम अख़बारों को फुलपेज विज्ञापन दिये गये। टी-वी पर लम्बे-लम्बे विज्ञापन देकर देश भर में गुजरात सरकार एवं मोदी की छवि को सुधारने की कोशिश की गयी। मीडिया एवं विज्ञापन जगत के अर्थशास्त्र की थोड़ी-सी भी समझ रखने वाला व्यक्ति समझ सकता है कि गुजरात के “विकास” एवं मोदी की जिस छवि को परोसा जा रहा है उससे इतर भी गुजरात की एक तस्वीर है। केवल सड़कें और उद्योग लगना विकास नहीं होता वरन विकास लोगों को प्राप्त होने वाली मूलभूत जीवनोपयोगी सुविधाओं से तय होता है।
बात जब “सद्भावना मिशन” की चली तो रथयात्रा को कैसे छोड़ा जा सकता है! भाजपा के ही दूसरे बड़े बुजुर्ग ‘लौह पुरुष’ लाल कृष्ण आडवाणी का तो यात्रा पर पेटेण्ट है। देश में ऐसा कोई मुद्दा जो सीधे जनता की जिन्दगी से जुड़ा हो आडवाणी को प्रभावित नहीं करता। कभी भी बेरोज़गारी, अशिक्षा, कुपोषण पर वे यात्रा नहीं निकालते। आडवाणी ने 1990 में रामजन्मभूमि रथ यात्रा निकाली, पूरे देश को मन्दिर-मस्जिद के नाम पर लड़ाया, साम्प्रदायिकता फैलायी। 1997 में स्वर्ण जयन्ती यात्रा, 2004 में भारत उदय यात्रा, 2006 में भारत सुरक्षा यात्रा और 2009 में जनादेश यात्रा तथा अब 2011 में “जनचेतना यात्रा”! लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जन्मस्थल सिताब दियारा से बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ने हरी झण्डी दिखाकर आडवाणी की जनचेतना यात्रा की शुरुआत की। 38 दिन में 100 जिले और 7600 कि-मी- की दूरी सभी सुविधाओं से लैस इसुजु माजदा कम्पनी की बस में सवार होकर आडवाणी कर रहे हैं! और यह यात्रा भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ है! जिस जगह से आडवाणी यात्रा की शुरुआत कर रहे हैं उस जगह पर ग़रीबों को हर साल बाढ़ से उजड़ना पड़ता है और आज भी वहाँ लोग शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार एवं सड़क बिजली की समस्या से जूझ रहे है। लेकिन आडवाणी लोगों में चेतना भरना चाह रहे हैं कि भाजपा-शासित राज्यों में मत देखिये! येदियुरप्पा के भ्रष्टाचार एवं कर्नाटक में खान उद्योग के भ्रष्टाचार को मत देखो। मत देखो कि छत्तीसगढ़ में जल, जंगल और ज़मीन को औने-पौने दामों में बेचा जा रहा है! फार्बिसगंज के नरसंहार को मत देखो! मत देखो की उत्तराखण्ड में प्रकृति को कैसे तबाह किया जा रहा है और कैसे घोटाले-घपले हो रहे हैं! आडवाणी की जनचेतना का कहना है कि “संकीर्णता से उठो”! प्रदेश नहीं, देश देखो! देखो कैसे केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार में लिप्त है? कैसे 2जी और तमाम अन्य घोटाले हो रहे है? और हमें वोट दो, अपनी चेतना को ऊपर उठाओ! यह बात अगर जनता समझ जाये तो शायद टिक्ठी पर जाने से पहले प्रधानमन्त्री की कुर्सी नसीब हो जाये!
इसी बीच शंकर सिंह वाघेला भी उपवास पर बैठ गये, कुछ रामदेव भी यात्रा शुरू कर दिये, श्री श्री रविशंकर ने भी उत्तर प्रदेश में यात्रा शुरू कर दी, साथ ही, अण्णा हज़ारे दूसरा उपवास करने वाले हैं— जैसा कि आप देख सकते हैं, इस पूरे घटनाक्रम पर कोई कामेडी नहीं रची जा सकती और न ही कोई फिल्म बन सकती है। यथार्थ में प्रहसन इतना है कि उसकी अत्युक्ति हो ही नहीं सकती। भारतीय पूँजीवादी राजनीति का दृश्य इस समय किसी चिड़ियाघर से कम नहीं है। बिना किसी विकल्प के, बिना किसी संगठित प्रतिरोध के, यह प्रहसन भी काफ़ी लम्बा चल सकता है। लेकिन रहेगा यह प्रहसन ही।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-अक्टूबर 2011
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