नाभिकीय ऊर्जा की शरण: देशहित में या पूँजी के हित में?

आनन्द

जापान में हाल ही में आयी सूनामी आपदा के बाद जब समूचे विश्व में फुकूशिमा नाभिकीय हादसे के बारे में चर्चा हो रही थी, तब भारत के सरकारी वैज्ञानिकों ने ऐसे किसी नाभिकीय हादसे की बात को ही सिरे से ख़ारिज़ कर दिया। परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष श्रीकुमार बनर्जी की माने तो जापान में कोई नाभिकीय हादसा हुआ ही नहीं; वहाँ जो कुछ हुआ वह महज़ एक रासायनिक दुर्घटना थी जिसको मीडिया ने बढ़ा-चढ़ाकर एक नाभिकीय हादसे के रूप में प्रस्तुत किया। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि जब जापान की सरकार ने ख़ुद ही सुनामी के बाद आसन्न नाभिकीय हादसे के मद्देनज़र देशव्यापी एलर्ट जारी कर दिया था और जब विश्व के तमाम देशों के वैज्ञानिक सम्भावित नाभिकीय ख़तरे से बचने के उपायों के बारे में चर्चा कर रहे थे तो भारतीय सरकारी वैज्ञानिकों को ऐसी क्या आन पड़ी थी कि वे इस ख़तरे को कम करके आँकें? निश्चित रूप से, हमारी सोच अपने आप में नाभिकीय ऊर्जा का निरपेक्ष विरोध नहीं है। नाभिकीय ऊर्जा का उपयोग हो सकता है। ऊर्जा के किसी भी रूप का उपयोग हो सकता है, लेकिन उसके केन्द्र में मुनाफा नहीं मनुष्य होना चाहिए। यही सुरक्षा और उपयोगिता की गारण्टी है। नाभिकीय ऊर्जा अधिक सुरक्षा और सावधानी की माँग करती है और इसके सुरक्षा और सावधानी के और उन्नत तरीके और उपाय विकसित करने के लिए अभी बहुत शोध की आवश्यकता है। इसकी उम्मीद हम मौजूदा विश्व पूँजीवादी व्यवस्था से नहीं कर सकते। ऐसे में, नाभिकीय ऊर्जा का उपयोग बेहद जोखिम के साथ होता है, जो अगर वास्तविकता में तब्दील होता है तो उसकी कीमत शासक वर्ग नहीं बल्कि जनता चुकाती है। फिर भी, नाभिकीय ऊर्जा के मौजूदा रूप में ही उपयोग के पक्ष में शासक वर्ग तमाम तर्क पेश कर रहे हैं। क्यों?

इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें नाभिकीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के पीछे के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझना होगा। पिछले कुछ वर्षों से शासक वर्ग द्वारा प्रायोजित भाड़े के टुट्टू लोगों को यह यकीन दिलाने में लगे हैं कि देश के सर्वांगीण विकास हेतु नाभिकीय ऊर्जा कितनी आवश्यक है। असल में नाभिकीय ऊर्जा का इस्तेमाल त्वरित पूँजीवादी विकास करने की योजना का अभिन्न हिस्सा है जिसका मकसद देश की व्यापक आबादी के जीवन स्तर में सुधार नहीं बल्कि यहाँ के उच्च वर्ग और उच्च मध्य वर्ग के ऐशो-आराम और विलासिता को बेरोक-टोक जारी रखना है और साथ ही साथ उद्योगों में अधिक से अधिक स्वचालित यन्त्रें को बढ़ावा देना है जिससे औद्योगिक उत्पादन में इंसानों की ज़रूरत कम से कम हो एवं पूँजीपतियों का मुनाफा बरकरार रहे। इसी के मद्देनज़र वर्ष 2008 में भारत-अमेरिका नाभिकीय करार पर हस्ताक्षर किये गये। जैसा कि हाल ही में विकीलीक्स खुलासे से प्रमाणित हो गया है कि इस ग़ैरजनवादी करार पर संसद की मंजूरी थोपने के लिए संसद सदस्यों की ख़रीद-फरोख़्त में पैसा पानी की तरह बहाया गया। इस करार के बाद भारत किसी भी देश के साथ नाभिकीय ऊर्जा की टेक्नोलॉजी का आयात कर सकता है। यह करार न्यूक्लीयर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) में शामिल राष्ट्रों के हित में भी था, क्योंकि उनको अपनी टेक्नोलॉजी बेचने के लिए ऐसे ख़रीददार की ज़रूरत थी जिससे उनको अकूत मुनाफा भी प्राप्त हो और साथ ही कोई रणनीतिक ख़तरा भी न हो। विश्वव्यापी मन्दी के दौर में इस करार पर अमल पश्चिमी राष्ट्रों के लिए और भी ज़रूरी हो गया है, क्योंकि इसके द्वारा वे बड़े पैमाने पर पूँजी का निर्यात कर सकते हैं और इसके द्वारा निचोड़े गये अधिशेष से अपनी लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला सकते हैं।

देश के स्तर पर भारतीय पूँजीपति वर्ग और विश्व स्तर पर साम्राज्यवादियों के हितों के इस मेल की वजह से ही पिछले कुछ वर्षों से बुर्जुआ मीडिया में नाभिकीय ऊर्जा की ज़रूरत और लाभ के बारे में ज़ोर-शोर से लिखा जा रहा है जिससे कि इसके पक्ष में जनमत तैयार किया जाये। जापान में सुनामी आने के पहले तक पूंजीवादी कलमघसीट लोगों को यह बताने में लगे थे कि अब ‘नाभिकीय पुनर्जागरण’ का दौर आसन्न है। पिछले साल ओबामा की भारत यात्रा के ठीक पहले आनन-फानन में न्यूक्लीयर सिविल लायबिलिटी एक्ट पास किया गया जिसके तहत भारत में विदेशी मदद से बनने वाले किसी नाभिकीय संयन्त्र में दुर्घटना की स्थिति में नाभिकीय रियेक्टर के आपूर्तिकर्ता को जिम्मेदारी से मुक्त किया गया और मुआवज़े की राशि को हास्यास्पद रूप से कम रखा गया है। इसके बाद फ्रांस के राष्ट्रपति सारकोज़ी की भारत यात्रा के ठीक पहले फ्रांस के द्वारा प्रदान किये जाने वाले नाभिकीय रियेक्टर से चलने वाले प्रस्तावित महाराष्ट्र के जैतापुर नाभिकीय संयन्त्र को कुछ मामूली शर्तों के साथ आनन-फानन में हरी झण्डी दिखा दी गयी।

जैतापुर में प्रस्तावित नाभिकीय संयन्त्र में 1,650 मेगावाट की क्षमता वाले 6 नाभिकीय रियेक्टरों को लगाये जाने की योजना है। ये रियेक्टर फ्रांस की नाभिकीय ऊर्जा कम्पनी अरेवा द्वारा प्रदान किये जायेंगे। अगर यह संयन्त्र अस्तित्व में आता है तो यह विश्व का सबसे बड़ा नाभिकीय विद्युत संयन्त्र होगा। इस प्रोजेक्ट के लिए भूमि अधिग्रहण का काम 2005 से ही शुरू हो गया था लेकिन सारकोज़ी की भारत यात्रा के दौरान 6 में से 2 रियेक्टरों को ख़रीदने के लिए हुए समझौते के बाद से महाराष्ट्र सरकार इस प्रोजेक्ट को लागू कराने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर रही है। अभी तक महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के मदबन, करेल, मिथगावने और निवेली नामक गाँवों में करीब 2,375 परिवारो की ज़मीन अधिग्रहित की जा चुकी है जिसमें से 95 प्रतिशत से अधिक परिवारों ने सरकार द्वारा निर्धारित मुआवज़ा लेने से मना कर दिया है। लेकिन मुआवज़े की कीमत से कहीं ज़्यादा अहम सवाल उस इलाके के लोगों की जीविका, उनके स्वास्थ्य और समूचे कोंकण क्षेत्र (जिसके अन्तर्गत यह इलाका आता है) के पारिस्थितिक सन्तुलन का है। इस उपजाऊ इलाके में चावल, ज्वार, बाजरा, सबि्ज़याँ और फल उगाये जाते हैं। विश्व प्रसिद्ध हाफ़ुस (alfanso) आम इसी इलाके में पाया जाता है और चूँकि आम की फसल तापमान और मृदा रसायन के थोड़े परिवर्तन मात्र से ही अत्यधिक प्रभावित हो जाती है, इसलिए लोगों को भय है कि इस प्रोजेक्ट के आने के बाद से आम की पैदावार में विचारणीय गिरावट आयेगी।

खेती और बागवानी के अलावा जैतापुर-मदबन इलाके में लोगों की जीविका का एक अन्य साधन वहाँ का मछलीपालन उद्योग है। यदि जैतापुर नाभिकीय संयन्त्र अस्तित्व में आता है तो वह प्रतिदिन 5,200 करोड़ लीटर गरम पानी समुद्र में छोड़ेगा जिसकी वजह से समुद्र तट के करीब समुद्र जल के तापमान में वृद्धि होगी फलस्वरूप वहाँ मछलियों की संख्या में कमी आयेगी। इसके अतिरिक्त, नाभिकीय संयन्त्र से करीबी होने की वजह से इस इलाके की मछलियों के निर्यात पर प्रतिकूल असर पड़ेगा क्योंकि यूरोप के कई राष्ट्र व जापान जैसे कई देशों में मछलियों की गुणवत्ता सम्बन्धी नियम काफी सख़्त हैं। इस प्रकार मछली पालन पर निर्भर लगभग 15,000 लोगों की जीविका पर प्रश्नचिह्न लग गया है।

लोगों की जीविका के साधन नष्ट होने के अतिरिक्त जैतापुर नाभिकीय प्रोजेक्ट से जुड़ा एक और बड़ा मुद्दा इस समूचे क्षेत्र में रहने वाले लोगों की स्वास्थ्य सुरक्षा का है। किसी भी नाभिकीय ऊर्जा संयन्त्र से निकलने वाले सम्भावित विकिरण (radiation) का ख़तरा लगातार बना रहता है। चेर्नोबिल, थ्री माइल आइलैण्ड और फुकूशिमा जैसे बड़े हादसों के अलावा विश्वभर में नाभिकीय विकिरण के छोटे-छोटे तमाम मामले देखने में आये हैं, जिनकी वजह से नाभिकीय संयन्त्र के करीब रहने वाले लोगों में विभिन्न किस्म की स्वास्थ्य सम्बन्धी व्याधियाँ पायी गयी हैं। और चूँकि जैतापुर में एक-दो नहीं बल्कि छह नाभिकीय रियेक्टरों को लगाने की योजना है, जिसकी मिसाल पूरे विश्व में कहीं और नहीं मिलती, इसलिए इस इलाके के लोगों में और भी अधिक ज़्यादा भय व्याप्त है। स्वास्थ्य सुरक्षा से जुड़ा एक और पहलू यह है कि फ्रांस की कम्पनी अरेवा जो नाभिकीय रियेक्टर जैतापुर विद्युत संयन्त्र को बेच रही है, उस किस्म के रियेक्टर की डिज़ाइन, यूरोपियन प्रेशराइज़्ड रियेक्टर (EPR) अभी तक नाभिकीय सुरक्षा सम्बन्धी पैमाने पर कहीं नहीं खरी उतरी है। अरेवा ने इस किस्म के रियेक्टर पहले फिनलैण्ड को बेचे थे लेकिन सुरक्षा, डिज़ाइन और निर्माण से जुड़े तमाम मुद्दों की वजह से यह सौदा खटाई में पड़ गया है। इसके अतिरिक्त संयुक्त अरब अमीरात की सरकार ने हाल ही में अरेवा द्वारा प्रदान किये जाने वाले नाभिकीय रियेक्टरों की तुलना में दक्षिण कोरिया की एक कम्पनी को चुना। जन-स्वास्थ्य सुरक्षा से सम्बन्धित एक और ख़तरा यह है कि जैतापुर का इलाका भूकम्प की सम्भावना वाले क्षेत्रों में से एक है। भूकम्प की सम्भावित तीव्रता के आधार पर भारत के विभिन्न क्षेत्रों को 5 ज़ोनों में बाँटा गया है जिसमें जैतापुर इलाका जोन IV में आता है यानी इस क्षेत्र में भूकम्प आने की सम्भावना औसत से कहीं अधिक है। जैसा कि हाल में जापान में देखने में आया कि भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदा एक नाभिकीय हादसे का कारण भी बन सकती है। भारत जैसे देश में जहाँ भोपाल में एक रासायनिक गैस लीक होने की वजह से इतनी भयानक तबाही मच गयी थी, यह सोचने मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि एक नाभिकीय हादसे की सूरत में यहाँ का परिदृश्य कितना भयावह होगा।

भारत के वर्तमान एवं प्रस्तावित नाभिकीय ऊर्जा संयन्त्र  भूकम्प तीव्रता के जोन

जैतापुर के सन्दर्भ में एक और अहम मुद्दा वहाँ की पारिस्थितिकी का है। कोंकण का क्षेत्र जिसमें जैतापुर का इलाका आता है, अपनी प्राकृतिक छटा के लिए विश्व-विख्यात है। यहाँ की जैव विविधता भारत में अद्वितीय है। इस इलाके में नाभिकीय संयन्त्र लगाने के बाद निश्चय ही यहाँ का पर्यावरण तहस-नहस हो जायेगा और जिस प्राकृतिक ख़ूबसूरती के लिए यह इलाका जाना जाता है, वह अतीत की बात हो जायेगा। ग़ौर करने वाली बात यह है कि पर्यावरण मन्त्री जयराम रमेश का सारा हरित एक्टिविज़्म जैतापुर जैसे पर्यावरण की दृष्टि से अति-संवेदनशील मामले में हवा हो गया है।

उपरोक्त सभी वजहों से इस इलाके के लोग और तमाम संगठन कई महीनों से जैतापुर विद्युत संयन्त्र लगाये जाने का विरोध कर रहे हैं और राज्य मशीनरी इस प्रतिरोध का दमन करने पर आमादा है। इस प्रतिरोध में तमाम किस्म के संगठन – गाँधीवादी, सुधारवादी, पर्यावरणवादी, एनजीओ-पन्थी आदि शामिल हैं। परन्तु सुस्पष्ट रणनीति और कारगर योजना के अभाव में यह जनप्रतिरोध एक जुझारू आन्दोलन की शक्ल नहीं अख्तियार कर पाया है।

ग़ौरतलब है कि जैतापुर अकेला ऐसा संयन्त्र नहीं है जो भारत के हुक्मरानों की योजना में शुमार है। जैतापुर के अलावा देश के अन्य हिस्सों जैसे कि हरीपुर (पश्चिम बंगाल), मिठी विरदी (गुजरात), पिटी सोनारपुर (उड़ीसा), चुटखा (मघ्य प्रदेश) और कोवाड़ा (आन्ध्र प्रदेश) में भी नाभिकीय संयन्त्र स्थापित करने की दूरगामी योजना है।

भारत के हुक्मरानों के नाभिकीय ऊर्जा प्रेम के पीछे एक लम्बा इतिहास रहा है। ज्ञात हो कि आज़ादी के बाद से ही देश में बहस चल रही है कि ऊर्जा सुरक्षा के लिए नाभिकीय ऊर्जा पर ज़ोर देना उचित है या फिर शोध और अनुसन्धान ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों पर केन्द्रित होना चाहिए। प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार एवं वैज्ञानिक डी-डी- कोसाम्बी शुरू से ही इस मत के थे कि भारत जैसे देश में जहाँ यूरेनियम की उपलब्धता निहायत ही कम है, वहाँ नाभिकीय ऊर्जा पर ज़ोर निश्चय ही विकसित देशों पर निर्भरता को बढ़ायेगा। उनका मानना था कि चूँकि भारत में वर्ष के अधिकांश समय में सूर्य की किरणें पर्याप्त मात्र में आती हैं और चूंकि यहाँ एक विस्तृत समुद्री तट है इसलिए शोध और अनुसन्धान की दिशा नवीकरणीय (Renewable) ऊर्जा के स्रोतों जैसे कि सौर ऊर्जा, समुद्र लहर ऊर्जा, ज्वार-भाटों से उत्पन्न ऊर्जा, पन-ऊर्जा इत्यादि पर होना चाहिए। किन्तु यहाँ के शासकों को कोसाम्बी की बजाय भाभा के विचार रास आये, जिनका मत था कि शोध नाभिकीय ऊर्जा की दिशा में होनी चाहिए। इसके फलस्वरूप अब यह आलम है कि नवीकरणीय ऊर्जा विभाग रस्मअदायगी का अड्डा बनकर रह गया है और शोध और अनुसन्धान के लिए आबण्टित फण्ड का अधिकांश हिस्सा नाभिकीय शोध पर ख़र्च होता है।

सवाल यह है ही नहीं कि नाभिकीय ऊर्जा का उपयोग किया जाना चाहिए या नहीं। किसी भी ऊर्जा स्रोत का उपयोग किया जा सकता है, बशर्ते कि उस पूरे उपक्रम के केन्द्र में मुनाफा नहीं बल्कि मनुष्य हो। नाभिकीय ऊर्जा के जिन स्वरूपों के सुरक्षित उपयोग की तकनोलॉजी आज मौजूद है, उनकी भी उपेक्षा की जाती है और उचित रूप से उनका उपयोग नहीं किया जा सकता है। दूसरी बात, नाभिकीय रियेक्टर बनाने का काम किसी भी रूप में निजी हाथों में नहीं होना चाहिए क्योंकि इन कम्पनियों का सरोकार सुरक्षा नहीं बल्कि कम से कम लागत में अधिक से अधिक मुनाफा होगा। तीसरी बात, नाभिकीय ऊर्जा के जिन रूपों का उपयोग सुरक्षित नहीं है, उन पर कारगर शोध और उसके बाद उसे व्यवहार में उतारने के कार्य किसी ऐसी व्यवस्था के तहत ही हो सकता है, जिसके लिए निवेश कोई समस्या न हो। यानी, कोई ऐसी व्यवस्था जिसके केन्द्र में पूँजी न होकर, मानव हित हों। एक ऐसी व्यवस्था जो साझे मालिकाने पर केन्द्रित हो, जिसमें जनता की पहलकदमी खुली हुई हो, उत्पादन और वितरण के सम्बन्ध समाजवादी हों और मालिकाना भी समाजवादी हो। केवल एक ऐसी व्यवस्था ही सुरक्षा को सर्वोपरि महत्त्व देते हुए ऐसी तकनोलॉजी विकसित कर सकती है और उसे व्यवहारतः एक सच बना सकती है, जो नाभिकीय ऊर्जा के अधिक से अधिक रूपों को उपयोग योग्य बना दे। और आखि़री बात यह कि आज के समय में ऊर्जा के अन्य स्रोत जैसे बाँध आदि या कोई भी अन्य विकास परियोजना घातक हो सकती है, और ऐसा बार-बार सिद्ध भी हुआ है। मिसाल के तौर पर, सरदार सरोवर बाँध। दिक्‍कत ऊर्जा के किसी रूप में नहीं बल्कि विकास के उस मॉडल में है जो एक पूँजीवादी व्यवस्था जनता पर थोप देती है। इस मॉडल में जनता कहीं नहीं होती, सिर्फ मुनाफा होता है। इसलिए, उपरोक्त सभी बातों का अर्थ नाभिकीय ऊर्जा के भारत में उपयोग की व्यावहारिकता पर प्रश्न उठाने से है। लेकिन अपने आपमें ऊर्जा के किसी भी रूप को ख़ारिज नहीं किया जा सकता। सवाल सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का है। ऊर्जा के किसी विशिष्ट रूप का नहीं।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2011

 

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