आजादी के 64 साल
अरविन्द, दिल्ली
हर बार की तरह इस बार भी 15 अगस्त को आजादी की 64 वीं वर्षगांठ धूमधाम के साथ मनाई गई। गलियों, नुक्कड़ों से लेकर सड़कों पर छुटभइयों तथा उनकी डोर थामने वालों के ‘आजादी की शुभकामनाएं’ देने वाले छोटे-बड़े होर्डिग लगे दिखे तथा अखबारों व टीवी पर तो ‘इतनी शुभकामनाएं’ दी गई कि आम आबादी को उकताहट ही होने लगी। उकताना उचित भी था क्योंकि लोग ‘‘आज़ादी’’ का मतलब अपनी ज़िन्दगियों से ही देखते हैं। उन्हें पता होता है कि इस तमाम वाक्छल और आजादी मनाने के ढोंग से वास्तविक जीवन में कुछ भी फर्क नहीं पड़ने वाला। आजादी के 64 साल बाद भी शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार के जो हालात हैं, मंहगाई से लोगों की जेबों पर डाके डाले जा रहे हैं, हर जीवनोपयोगी चीज को ‘बाजारू माल’ बनाने की प्रक्रिया जारी है, ऐसे में यह सोचना ज़रूरी बन जाता है कि क्या आजादी का मतलब और आजादी का जश्न मनाने का मकसद सिर्फ़ झण्डे फहराना, फूलमालाएं चढ़ाना तथा बगुला भगत बनकर वन्दे मातरम गाना ही होता है?
14 अगस्त व 15 अगस्त को राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने देश के नाम अपने सम्बोधनों में एक तो भ्रष्टाचार के ‘प्रति’ चिंता व्यक्त की व इसे विकास के मार्ग में रुकावट बताया तथा दूसरा इस बात पर भी जोर दिया कि विरोध के हड़ताल और अनशन जैसे तरीके ना अपनाए जाएं इनसे भी देश के विकास में बाधा पैदा होती है। भ्रष्टाचार-विरोध की और सुधारवादी राजनीति पर ‘आह्वान’ के पिछले दो अंकों में आयी सामग्री ज्ञानवर्द्धक है और उसकी असलियत को उजागर करती है। लेकिन साथ ही ‘‘विकास’’ के नाम पर लोगों के जनवादी अधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता क्योंकि विकास जनता के लिए होना चाहिए न कि विकास जनता की कीमत पर। अब हम आजादी के पूरे चरित्र तथा 1947 की राजनीतिक स्वतन्त्रता के बाद अस्तित्व में आयी पूंजीवादी व्यवस्था के जनसरोकारों पर संक्षिप्त में चर्चा करेंगे।
अक्सर हम लोगों ने प्रधानमंत्री से लेकर वित्तमंत्री तक को विकास के बड़े-बड़े दावे करते सुना है कि सकल घरेलू उत्पाद की दर 7 से 9 फीसदी बढ़ रही है, सेंसेक्स 20,000 अंक पर कुलांचें भर रहा है, खाद्य उत्पादन पुराने सारे रिकॅार्ड तोड़ रहा है। देश बड़ी भारी तरक्की करके 2020 तक महाशक्ति बन जाएगा! इस प्रकार के जुमले सिर्फ कांग्रेस ही नहीं हर चुनावबाज पार्टी प्रयोग करती है, चाहे वह राज्य में हो अथवा केन्द्र में। ऐसे में सवाल उठता है कि इन ‘‘जनप्रतिनिधियों’’ को मेहनतकश जनता के हालात क्यों नहीं दिखाई देते। लगभग 28 करोड़ लोग बेरोजगार हैं, भारी आबादी शिक्षा से महरूम है, 18 करोड़ लोग झुग्गी-झोपड़ियों में तथा इतने ही फुटपाथों पर रहने को मजबूर है, 46 प्रतिशत बच्चे तथा 50 प्रतिशत माहिलाएं कुपोषित हैं।
हमारे तथाकथित जनप्रतिनिधियों का जनता के हालातों से मुंह मोड़ने तथा जनता की समस्याओं को नजरअंदाज करने का स्पष्ट कारण यह है कि वास्तव में वे पूंजीपतियों के प्रतिनीधि हैं, हर नीति मुनाफे को केन्द्र में रखकर बनती है, इक्का-दुक्का यदि मनरेगा जैसा कोई शिगूफा उछाला जाता है, तो वह बस इसलिए कि लोगों में व्यवस्था के प्रति भ्रम बना रहे।
यदि ‘‘आजादी’’ को पूरे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो साफ हो जाएगा कि क्यों हमारे देश का पूँजीवादी जनतन्त्र उतनी आज़ादी भी नहीं देता है जितने का वह वायदा करता है। जनता के आन्दोलनों व जनता की शहादतों को अपने लिए भुनाते हुए पूंजीपति वर्ग तथा उसकी राजनीतिक प्रतिनिधि कांग्रेस पार्टी ने अंग्रेजो से समझौते के द्वारा सत्ता हासिल की थी। पूंजीपति वर्ग ने मेहनतकश जनता की प्रतिनिधित्व करने वाली प्रगतिशील ताकतोें के कमजोर होने का पूरा फायदा उठाया, तथा राजनीतिक सत्ता हासिल होने के बाद उसने क्रान्तिकारी पूंजीवादी विकास की बजाय क्रमिक पूंजीवादी विकास (गैर क्रान्तिकारी) का मार्ग अपनाया, जिसकी परिणति इस रुग्ण, विकलांग पूंजीवादी देश के रूप में हुई। साथ-साथ जनता के हर संघर्ष को कुचल देने का काम भी इस व्यवस्था ने बखूबी किया, चाहे तेलंगाना का जनसंघर्ष हो अथवा नक्सलबाड़ी का मजदूर किसान संघर्ष हो या फिर समय-समय के छात्र-युवा-मजदूर संघर्ष।
प्रगतिशील ताकतों को भी अगर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाए तो इनकी कमजोरी का सबसे बड़ा कारण लगभग 200 सालों की औपनिवेशिक गुलामी में देखा जा सकता है, जब भारत अपने स्वाभाविक विकास के द्वारा सामन्तवाद से आगे बढ़ने की प्रक्रिया में था; जब भारत में भी विभिन्न कृषक तथा दस्तकार जातियां स्वस्थ पूंजीवादी तत्व लिए हुए थी; भारत में भी एक अपने प्रकार के ‘पुनर्जागरण-प्रबोधन’ के बीज मौजूद थे जिन्हे नामदेव, तुकाराम, कबीर-रैदास आदि के निर्गुण भक्ति आन्दोलन की विभिन्न धाराओं में आसानी से चिन्हित किया जा सकता है। लगभग उसी दौरान अंग्रेज उपनिवेशवादियों ने भारत की अर्थव्यवस्था में अपना दखल देना शुरू कर दिया तथा एक चरणबद्ध तरीके से यहां की उत्पादन प्रक्रिया को ध्वस्त करके आर्थिक तथा राजनीतिक दोनो ही स्तरों पर अपनी सत्ता कायम की। अंग्रेजो ने यहां के तमाम संसाधनों को तो लूटा ही, उसके साथ-साथ उन्होनें यहां की आम जनता को भी ज्ञान-विज्ञान तकनीक से वंचित रखने की पूरी कोशिश की। अंग्रेजों को मुख्यतः क्लर्कों की जरूरत थी, जिन्हें उन्होंने तैयार किया। भाषा-कला-साहित्य के क्षेत्र में आज भी औपनिवेशिक गुलामी के चिन्हों को ढूंढा जा सकता है, तब उस समय सांस्कृतिक स्तर पर जनजीवन को कितना अधिक प्रभावित किया गया होगा! इस प्रकार औपनिवेशिक दासता मे पूंजीपति वर्ग की रुग्णता और प्रगतिशील ताकतों की कमजोरी को पहचाना जा सकता है।
लेकिन फिर भी जनता ने शानदार लड़ाइयाँ लड़ीं तथा बगावतें की, जनता के बेटे-बेटियों ने बढ़-चढ़ कर अपनी शहादतें दी। समय-समय पर उठे किसान संघर्ष, मजदूरों की राजनीतिक हड़तालें तथा आन्दोलन, आदिवासी विद्रोह तथा सैनिक विद्रोह जनता के संघर्षो को दर्शाते हैं, किंतु पूंजीपति वर्ग ने अपनी राजनीतिक ताकतों के द्वारा शुरु से ही ‘‘समझौता-दबाव-समझौता’’ की नीति अपनाई। जनता के आन्दोलनों पर सवारी करके उसने अपने लिए रियायतें मांगी। इस प्रकार एक तरफ तो पूंजीपति वर्ग ने अन्तर्साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का फायदा उठाया तथा वहीं दूसरी तरफ जन संघर्षां का भी फायदा उठाया। तथा अन्त में समझौते के द्वारा सत्ता पर कब्जा कर लिया। पूंजीपति वर्ग की अवसरवादिता को उसके बाद की कारगुजारियों से भी समझा जा सकता है। पूंजीपति वर्ग ने तथा उसके राजनीति पैरोकारों गांधी से लेकर नेहरू, पटेल आदि तथा मुख्यतया कांग्रेस पार्टी ने ही जनता से ढेरों वायदे किए तथा बाद में मुकर भी गई। इसका एक उदाहरण सार्विक मताधिकार के आधार पर नई संविधान सभा बुलाने का वायदा भी था। फ़िर नेहरू द्वारा ‘समाजवाद’ का गुब्बारा फुलाया गया जो 1990 आते-आते फुस्स हो गया। सार्वजनिक क्षेत्रों का खड़े किया जाना पूंजीपति वर्ग की मजबूरी थी, क्योंकि उस समय पूंजीपतिवर्ग इतना ताकतवर नहीं था कि खुद इन क्षेत्रों को संभाल सके, धीरे-धीरे जैसे जैसे पूंजीपति वर्ग यहां की मेहनतकश जनता को निचोड़कर ताकतवर बनता गया वैसे वैसे ही इसने यहां के सार्वजनिक उद्यमों को हथियाया। इसका प्रतिनिधिक उदाहरण 1990.91 से लागू हुई उदारीकरण-निजीकरण की नीतियां है। जिनको लागू करते समय दुनिया के जाने माने ‘अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह जी ने मोंटेक सिंह अहलूवालिया तथा पी. चिदम्बरम के साथ मिलकर लफ्फाजीपूर्ण ‘‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’’ दी तथा बताया कि अगर समृद्धि ऊपर के संस्तरो पर आएगी तो वह रिसकर नीचे तक पहुंच जाएगी लेकिन वास्तविकता ठीक इसका उल्टा घटित हुई। 2006 की अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार ‘‘देश की 77 फीसदी आबादी 20 रुपए या उससे कम पर जीती है।’’ ऊपर के दस फीसदी अमीरजादों के पास देश की कुल सम्पत्ति का 85 प्रतिशत हिस्सा है, जबकि नीचे की 60 फीसदी जनता के पास कुल सम्पत्ति का महज 2 प्रतिशत हिस्सा ही है। आबादी का 0.01 प्रतिशत हिस्सा ऐसा है जिसकी आमदनी औसत से सौ से दो सौ गुनी अधिक है। आजादी के बाद से देश के 22 पूंजीपति घरानों की परिसम्पत्ति में 500 गुना से भी अधिक की वृद्धि हो चुकी है। धनी और गरीब के बीच असमानता लगातार बढ़ती जा रही है, देश के संसाधनों तथा मेहनतकश आबादी के श्रम की लगातार खुली लूट हो रही है कहने को संविधान में 260 श्रम कानून है, लेकिन वे इस देश के पूंजीपतियों , ठेकेदारों की जेब में रहते हैं। आए दिन गरीबी बदहाली के चलते मजदूर किसान बेरोजगार नौजवान आत्महत्याएं (जिन्हे हत्याएं कहा जाना चाहिए) करने के लिए मजबूर हो रहे हैं।
यह किस बात की आजादी है? क्या आजादी के मायने यही होते हैं कि समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा तो अपना खून पसीना जलाकर सभी चीजें पैदा करे, लेकिन उस उत्पादन को पूंजी में बदल कर हड़प जाएं मुट्ठी भर धनकुबेर कतई नहीं? आजादी का मतलब होता है, उत्पादन करने वाले वर्गों के हाथों में वितरण के अधिकार का भी होना। यदि हर प्रकार का भौतिक उत्पादन करने के बाद भी मेहनतकश आवाम मोहताज है, तो यह आजादी नहीं है सही मायने में आजादी तभी आ सकती है, जब व्यापक मेहनतकश जनता संगठित होकर अपने संघर्षो के द्वारा निजी स्वामित्व पर आधारित व्यवस्था को ध्वस्त करके सामाजिक-आर्थिक समानतापूर्ण व्यवस्था का निर्माण करें जाहिरा तौर पर इसमें छात्र-नौजवानों की भी अहम भूमिका होगी जिन्हें भगतसिंह के शब्दों में क्रान्ति का सन्देश कल कारखानों तथा खेतो-खलिहानों तक लेकर जाना होगा। ताकि सचेतन तौर पर मेहनतकश वर्ग सही मायने में लोकसत्ता कायम कर सके।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2011
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