अरुणिमा को ग़लत साबित करने का कुचक्र रचती सिद्धान्तहीन राजनीति
अटल, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
तीन साल पहले नोएडा में आरुषि हत्याकाण्ड हुआ था। अभियुक्त अब तक पकड़े नहीं जा सके, लेकिन देश की जि़म्मेदार जाँच एजेंसियाँ (छोटी से लेकर बड़ी तक) आरुषि व उसके माता-पिता के संम्बन्धों का मनगढ़न्त चिट्ठा सामने लाती रही हैं। इनसे चार कदम आगे बढ़कर मीडिया 14 वर्षीय आरुषि के घरेलू नौकर हेमराज (जो उसी दिन मारा गया था) से अन्तरंग सम्बन्ध साबित करने में लगा रहा। कमोबेश यही हालात वालीबॉल खिलाड़ी अरुणिमा सिन्हा उर्फ सोनू के मामले में देखने को मिल रहे हैं। ज्ञातव्य है कि, उत्तर प्रदेश के शहर बरेली के निकट चनेहटी स्टेशन के पास ट्रेन में आधा दर्जन लुटेरों से भिड़ने वाली अरुणिमा को लुटेरों ने ट्रेन से फेंक दिया था। सोनू का एक पैर ट्रेन से कट गया, दूसरा टूट गया। पलक झपकते घटी इस घटना ने उसके भविष्य के सपने चकनाचूर कर दिये। मीडिया की नज़रें इनायत हुईं तो केन्द्रीय खेलमन्त्री ने 25 हज़ार रुपये की मदद की घोषणा कर दी। खेलमन्त्री का यह एक खिलाड़ी के साथ भद्दा मज़ाक था। एक खिलाड़ी अपना पूरा जीवन देश की सेवा में लगा देता है। पदक जीतकर पूरी दुनिया में नाम रोशन करता है। उसी पर मुसीबत पड़ने पर मदद के नाम पर 25 हज़ार रुपल्ली दिखाना कहाँ तक जायज़ है? इतनी रकम तो छठा वेतनमान पाने वाले सबसे निचले स्तर के कर्मचारी को महीने में मिलती है। तभी तो दृढ़ इरादों वाली अरुणिमा ने खेलमन्त्री की इमदाद को ठोकर मार दी। कहा – “मेरे सामने लम्बा जीवन पड़ा है और मेरे सपने चकनाचूर हो गये हैं। मुझे यह मदद नहीं चाहिए।” अरुणिमा की इस लाइन ने केन्द्र से लेकर राज्य सरकार तक को अपने दामन में झाँकने को विवश कर दिया। आर्थिक मदद, नौकरी की पेशकश व इलाज ख़र्च की जि़म्मेदारी उठाने का ऐलान करने लगे। ब्रिक्स सम्मेलन में हिस्सा लेने चीन गये प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अफ़सोस जताया। प्रधानमन्त्री कार्यालय ने रेल मन्त्रालय से रिपोर्ट तलब की तो राष्ट्रीय महिला आयोग ने उत्तर प्रदेश सरकार से। प्रधानमन्त्री कार्यालय के संज्ञान लेते ही मामले में राजनीति होने लगी। अरुणिमा को बरेली से सन्दर्भित कराकर लखनऊ के छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय ले आया गया। इसका श्रेय लेने की राज्य व केन्द्र सरकार में होड़ मच गयी। केन्द्रीय खेलमन्त्री अजय माकन दिल्ली से डॉक्टरों की टीम लेकर लखनऊ पहुँच गये तो राज्य सरकार के मंन्त्रियों और आला अफ़सरों की लाइन लग गयी। संक्रमण से बेपरवाह व डॉक्टरी हिदायत के बावजूद राजनेता व उनके साथ के लोगों का मेला लगा रहा। चिकित्सा विश्वविद्यालय किसी राजनीतिक पार्टी का मुख्यालय लगने लगा। अरुणिमा केस को राजनेता अपने राजनीतिक नफ़ा-नुकसान के आईने से देखने लगे। इस चक्कर में हालात इतने ख़राब हो गये कि अरुणिमा के रिश्तेदारों को कहना पड़ा – “प्लीज़ आप लोग यहाँ से चले जाइये।” इस सिद्धान्तहीन राजनीति में ही अरुणिमा को यूपी सरकार के राजकीय विमान से एम्स भेजने का फ़रमान हो गया।
सियासत की शह-मात के बीच कुछ उजले पक्ष भी देखने को मिले। राजनीतिक दल जहाँ वालीबॉल खिलाड़ी को मदद देने के साथ श्रेय लेने में जुटे रहे। वहीं कुछ खेल संगठनों ने बिना हल्ला-गुल्ला अरुणिमा को आर्थिक मदद दी। क्रिकेटर हरभजन सिंह व युवराज सिंह ने एक-एक लाख रुपये देने का ऐलान किया। (हालाँकि, इतने रुपये ये क्रिकेटर जेब में रेज़गारी की तरह रखकर घूमते हैं!) युवराज ने पीडि़त खिलाड़ी का उत्साह बढ़ाते हुए कहा – “अरुणिमा के साथ जो कुछ भी हुआ वह दुर्भाग्यपूर्ण है। बहादुर खिलाड़ी की तरह उसने लुटेरों का मुकाबला किया। मैं जानता हूँ कि उसे हुए नुकसान की भरपाई बेहद मुश्किल है, लेकिन मैं उसके लिए एक लाख की मदद का छोटा सा योगदान देना चाहता हूँ।” काश! यह बात राजनीतिक दलों के नुमाइन्दे समझते तो वे लोग पैर गँवा चुकी खिलाड़ी के साथ दिल से सहानुभूति जताते। उस पर राजनीति करने से बाज आते। जाँच एजेंसियाँ अभियुक्तों को पकड़ने के लिए दिन-रात एक करतीं, न कि अरुणिमा व उसके परिवार की पिछली कुण्डली बाँचने में समय ज़ाया करतीं। एडीजी जीआरपी ने यहाँ तक कहा – “अरुणिमा को ट्रेन से फेंकने का सबूत नहीं है। उसके राष्ट्रीय व प्रदेश स्तर के खिलाड़ी होने की पुष्टि नहीं है। लूट का नहीं, मामला आत्महत्या की कोशिश का लगता है। देश के खेल संगठन उसे नहीं जानते। सीआईएसएफ़ की परीक्षा सात मई को थी। चेन पर्स में मिली आदि।” स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ़ इण्डिया के अधिकारी खेल के उसके प्रमाण जाँचने अम्बेडकरनगर पहुँच गये। कुछ प्रमाणपत्र मिले तो उसकी जन्मतिथि ग़लत बताने का कुचक्र अख़बारों के ज़रिये रचा जाने लगा। वैसे मैं इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता कि अरुणिमा किस स्तर की खिलाड़ी थी, और न मुझे उसकी तरफ़दारी और जीआरपी की बुराई करने का ठेका मिला है। एडीजी ने जो बात कही है उसकी पड़ताल अवश्य होनी चाहिए, लेकिन उसके लिए यह समय उचित नहीं था। अभी अरुणिमा व उसके परिवार को सम्बल की ज़रूरत है। ऐसे में जि़म्मेदार अफ़सर की बातें उसे व परिवार को अवसाद में ले जा सकती हैं। वैसे जीआरपी के कुछ तर्कों की कलई अरुणिमा व उसके घरवाले ही खोल देते हैं। पहले जीआरपी ने कहा – अरुणिमा बिना टिकट यात्रा कर रही थी। टिकट मिलने पर कहा गया – टिकट दूसरी ट्रेन का था। परिवारीजन शुरू से चिल्लाते रहे कि सीआईएसएफ़ परीक्षा का अरुणिमा का प्रवेशपत्र नहीं आया था, इसलिए वह सीआईएसएफ़ के मुख्यालय नोएडा पता करने जा रही थी। वैसे जाँच एजेंसियों का यह फ़ार्मूला नया नहीं है कि मामले का सही खुलासा न होता दिखे तो जाँच की दिशा ही मोड़ दो, जैसा आरुषि-हेमराज हत्याकाण्ड में किया गया था।
एडीजी की बात सुनकर अरुणिमा ने कहा भी – “रेलवे मानसिक रूप से परेशान कर रहा है। जीआरपी ख़ुद को बचाने के लिए उल्टे मेरे ऊपर आरोप लगा रही है।” मीडिया की भूमिका शुरुआत में कुछ सकारात्मक रही। उसी ने इसे मुद्दा बनाया, लेकिन बाद में वह जाँच एजेंसी की भाषा बोलने लगा। इतना ही नहीं वह उससे भी आगे निकल गया। उसका फोकस अरुणिमा व उसके परिवार के चरित्र पर केन्द्रित हो गया। बताया गया – अरुणिमा का भाई लूट के मामले में जेल जा चुका है। माँ के खि़लाफ़ मामला दर्ज हो चुका है। घटना के समय अरुणिमा अपने जीजा के साथ थी। छेड़खानी के विरोध पर जीजा ने ही धक्का दिया। वह घर से लड़कर आयी थी। जैसा कि हमेशा होता है, अन्ततः मीडिया शासन-प्रशासन की ही भाषा बोलने लगा, बल्कि एक अच्छे चमचे की तरह उससे भी बढ़-चढ़कर बोलने लगा। हालाँकि वह हर घटना ख़ासकर अपराध की घटनाओं में यही करता है। उसकी यही भूमिका आरुषि और कवयित्री मधुमिता हत्याकाण्ड में देखी जा चुकी है, जिसमें पीडि़ता के चरित्र हनन का ठेका उसने सालों-साल उठाये रखा। रही बात ट्रेनों में घटनाओं की तो यह कोई पहली व आखि़री नहीं है। कुछ दिन पहले ही झारखण्ड नेशनल गेम्स में हिस्सा लेने गयी उत्तर प्रदेश की वुशू टीम की खिलाडि़यों से कानपुर स्टेशन पर सीआरपीएफ़ जवानों ने अभद्रता की थी। छेड़खानी, पॉकेटमारी, चोरी व लूट की घटनाएँ तो आम हैं। यदा-कदा डकैती भी पड़ जाती है, लेकिन जीआरपी इन्हें रोकने के बजाय होने वाले हादसों पर पर्दा डालने में अधिकतर समय ज़ाया करती है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2011
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