पानी का निजीकरण: पूँजीवादी लूट की बर्बरतम अभिव्यक्ति
प्रेम प्रकाश
हर जीवित प्राणी, प्रत्येक पौधे, प्रत्येक पशु और प्रत्येक मनुष्य को जिन्दा रहने के लिए पानी चाहिए। पृथ्वी पर जीवन का उद्भव पानी में हुआ, पानी के बिना जीवन की कल्पना भी सम्भव नहीं है। पृथ्वी के दो तिहाई भाग में जल होना भी सम्भवतः इसका एक कारण है। जल मानव मात्र के लिए ही नहीं बल्कि पृथ्वी पर जीव जगत के लिए एक प्रकृति प्रदत्त उपहार है। जल, जीव-जगत की साझी विरासत है और जीवन का ज़रूरी साधन है। जिस समाज में जल को ख़रीद-फरोख़्त, क्रय-विक्रय की वस्तु बना दिया जाये उसमें जीवन का क्रय-विक्रय तो निश्चय ही होगा। और दुर्भाग्य है कि हम ऐतिहासिक रूप से ऐसे ही समाज में जी रहे हैं। जो देश कुपोषण, महँगाई, बेरोज़गारी से इतना तंग हो कि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा भूखे पेट सोने पर मजबूर हो वहाँ पानी को बाज़ार की वस्तु बना देना व्यवस्था के मानवद्रोही चरित्र को पूर्णतः बेनकाब करता है।
एक बार फिर दिल्ली में पानी के निजीकरण की ख़बरें आ रही है। दिल्ली सरकार की जल-आपूर्ति को निजी हाथों में देने की योजना है। सरकार एमसीडी के सभी वार्डों के जल वितरण एवं प्रबन्धन को निजी हाथों में देना चाहती है। इसके पक्ष में सरकार की दलील है कि लोगों को लगातार 24 घण्टे पानी की उपलब्धता में और जल की बर्बादी और चोरी को रोकने में इससे मदद मिलेगी; इससे लोगों के जल के फिज़ूल व्यय करने की प्रवृति पर रोक लगेगी, आदि-आदि। दूसरी तरफ पूँजीवादी संसदीय राजनीति में आकण्ठ डूबी अन्य राजनीतिक पार्टियाँ जो मौका मिलने पर कहीं भी जनता के हितों का सौदा करने से नहीं चूकतीं, विरोध की नौटंकी करती नज़र आ रही हैं। दिल्ली में पानी के निजीकरण और प्रदूषित पानी की आपूर्ति के विरोध में भाजपा के तमाम नेताओं (भाजपा के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष विजेन्द्र गुप्ता, समेत प्रो. विजय कुमार मल्होत्र, मदन लाल खुराना, आदि) ने विरोध प्रदर्शन किया। दिल्ली के पूर्व मुख्यमन्त्री मदनलाल खुराना ने कहा कि ‘दिल्ली सरकार ने पूरी दिल्ली में 24 घण्टे पानी मुहैया कराने के नाम पर 5 करोड़ डॉलर का कर्ज प्रस्ताव विश्व बैंक को भेजा है और अगर यह कर्ज मंजूर हो जाता है तो दिल्ली में जलापूर्ति के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का रास्ता खुल जायेगा।’ जल के निजीकरण की परिघटना केवल दिल्ली की नहीं वरन सम्पूर्ण देश में एक प्रवृति के रूप में सामने आ रही है। मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, केरल, बंगाल, महाराष्ट्र कोई भी इससे अछूता नहीं है। जो पार्टियाँ दिल्ली में विरोध कर रही हैं, उन राज्यों में जहाँ उनकी सरकारें हैं, वे भी जल के निजीकरण से परहेज़ नहीं कर रही हैं। आज यह एक कड़वा सच है कि भारत की अधिकतर आबादी पेय जल के गम्भीर संकट से गुज़र रही है। पेय जल के सतही और भू-गर्भ स्रोत आज प्रदूषित हो चुके हैं और लोग दूषित जल पीने को मज़बूर हैं। एक तरफ जहाँ सरकारी आँकड़े जल की इस अपर्याप्तता का कारण देश में जल संसाधन की कमी को बता रहे हैं, वहीं कुछ लोग पानी की अपर्याप्त उपलब्धता के पीछे आम लोगों की जल के प्रति जागरूकता का अभाव तथा घरेलू उपयोग के पानी के अपशिष्ट को जल प्रदूषण के प्रमुख कारण के रूप में पेश कर रहे हैं। सबको पानी की उपलब्धता सुलभ करवाने के लिए सरकारें निजी भागीदारी को आवश्यक बता रही हैं। ऐसे में पेय जल की वर्तमान अवस्थिति, प्रदूषण के मूल कारण, जल संसाधन के अभाव का मिथक, भूमण्डलीकरण और पूँजी की लूट का खेल व पेय जल, जल उपलब्धता का उत्तरदायित्व और भारतीय पूँजीवादी व्यवस्था में कोई जवाबदेही न होना, संवैधानिक इबारतें और पेय जल का अधिकार आदि अनेक बिन्दु हैं जो जल के निजीकरण की पूरी परिघटना को समझने के लिए विवेचन की माँग करते हैं।
देश में दूषित और अपर्याप्त जल का प्रभाव महामारी की हद तक भयंकर है। एक अनुमान के अनुसार लगभग 377 लाख भारतीय प्रतिवर्ष जल-जनित बीमारियों से प्रभावित होते हैं। केवल डायरिया से 15 लाख बच्चे मर जाते हैं और 730 लाख कार्यदिवस का नुकसान प्रतिवर्ष जलजनित बीमारियों के कारण होता है। रासायनिक रूप से प्रदूषित पानी देश के 195,813 घरों को जल की ख़राब गुणवत्ता के कारण प्रभावित करता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के वर्ष 2005 में सर्वेक्षण के अनुसार पेयजल में जैविक प्रदूषण अत्यधिक मात्र में मौजूद है। 66 फीसदी नमूनों में बायो-आक्सीजन-माँग स्वीकार्य सीमा से अधिक पाया गया, 44 फीसदी नमूनों में कोलीफॉर्म (Coliform) की उपस्थिति पायी गयी जबकि जल में कोलीफार्म की उपस्थिति शून्य होनी चाहिए। विश्व बैंक के एक अनुमान के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष पर्यावरण विनाश की कीमत 9.7 अरब डॉलर है जो सकल घरेलू उत्पाद का 4.5 फीसदी है। देश में 59 फीसदी स्वास्थ्य समस्याओं का कारण दूषित जल का प्रभाव है। जहाँ आज देश को विश्व की महाशक्ति बनने की दौड़ के रूप में प्रचारित किया जा रहा है तो दूसरी तरफ आज भी देश की 18.2 फीसदी आबादी पोखरों, तालाबों और झीलों से जल प्राप्त करती है। देश की 5.6 फीसदी आबादी कुओं के जल पर निर्भर है। ज्ञात हो कि देश का प्राकृतिक जल स्रोत ख़तरे की हद तक दूषित हैं। तथाकथित विकासमान और चमकते भारत का एक चेहरा यह भी है कि शहरी क्षेत्रों में झुग्गी बस्ती और छोटी कालोनियों में रहने वाली आबादी का 61 फीसदी हिस्सा शौच के लिए खुले स्थानों का प्रयोग करता है और 58 फीसदी शहरी लोगों के पास मूलभूत शौच एवं स्वच्छता सुविधाओं का अभाव है।
भारत के विकास और बढ़ती प्रति व्यक्ति आय की तरह पानी के आँकड़ों की तस्वीर भी भ्रामक है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण राजधानी दिल्ली है। 1998 में एक रिपोर्ट के अनुसार औसत प्रति व्यक्ति घरेलू जल की उपलब्धता 200 लीटर है जबकि शहर के 30 फीसदी लोगों को 25 लीटर से भी कम पानी प्राप्त होता है। प्राकृतिक संसाधनों के वितरण में असमानता वर्ग समाज की अभिलाक्षणिकता है। राजधानी की दो-तिहाई जनसंख्या सरकारी जलापूर्ति का केवल 5 फीसदी ही प्राप्त करती है, दूसरी तरफ दिल्ली के लुटियन जोन में 400-500 लीटर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन पानी प्राप्त होता है। जहाँ एक ओर उच्च वर्ग को कारों की धुलाई-सफाई के लिए भी पानी की कभी कमी नहीं होती, वहीं दिल्ली की 1600 अनधिकृत कालोनियों और 1100 बस्तियाँ आज भी टोटी के पानी का इन्तज़ार कर रही हैं। अन्य क्षेत्रों में दी जाने वाली सरकारी छूट की तरह पानी पर छूट का सबसे बड़ा हिस्सा भी देश के धनिकों को ही मिल रहा है। दिल्ली में टैंकर माफिया का जाल इस तरह फैला है कि कालोनियों में पानी सप्लाई छुटभैया नेताओं, निगम पार्षदों और उनके लग्गू-भग्गुओं तक सीमित रह जाता है। बच्चों, महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा आज भी डिब्बा लेकर लाइनों में लगा हुआ देखा जा सकता है। हज़ारों लोगों के बीच टैंकर भर पानी सरकार की संवेदनहीनता को दर्शाता है। देश में बच्चों के लिए शिक्षा को महज़ काग़ज़ी अधिकार बनाने वाली सरकार महाराष्ट्र के 31 फीसदी स्कूलों में पेय जल की सुविधा तक नहीं दे पा रही है।
उपरोक्त आँकड़े यह बताते हैं कि इस देश की व्यवस्था आम जनता के जीवन रक्षक पानी के बुनियादी अधिकार से किस तरह मुँह मोड़े हुए है। एक तरफ जहाँ आज़ादी के समय देश के तमाम जल-स्रोत स्वच्छ थे, आज वे प्रदूषित हो चुके हैं। जल प्रदूषण के लिए भी प्राकृतिक विनाश एवं पर्यावरण के विनाश के तमाम कारणों की तरह शासक वर्ग पूरी जनता को जिम्मेदार ठहराता है। लेकिन सच्चाई इससे इतर है।
देश में 12 बड़ी, 46 मध्यम और 55 छोटी नदियों के बेसिन है। आज़ादी तक इन नदियों के हालात ठीक थे लेकिन आज ये गन्दे हो चुके हैं। ‘केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड’ ने देश के 16 राज्यों के 22 स्थलों का सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया कि औद्योगिक बहाव के कारण भू-जल प्रदूषित हो गया है। शीशा, केडमियम, जिंक, मरकरी की अत्यधिक मात्रा गुजरात, आन्ध्रप्रदेश, केरल, दिल्ली, हरियाणा तथा अन्य राज्यों में पायी गयी। शहरों से इकट्ठा सीवर का लगभग 50 फीसदी हिस्सा बिना उपचार के नदियों में छोड़ दिया जाता है। ज्ञात हो कि सीवर उपचार की जिम्मेदारी और जल स्रोतों को ठीक रखना राज्य का कर्त्तव्य है। लेकिन स्वयं राज्य इसकी अनदेखी करता है। लोगों के जल जागरूकता के अभाव को जल प्रदूषण के एक कारण के रूप में पूँजीवादी मीडिया और सरकार प्रचारित करती रहती है। लेकिन उद्योगों द्वारा 307,292 लाख घन मीटर औद्योगिक बहाव को सीधे जल स्रोतो में छोड़ दिया जाता है। उत्तरी अमरकोट जिला (तमिलनाडु) का चमड़ा उद्योग, पानीपत व सोनीपत (हरियाणा), पाली और जोधपुर (राजस्थान), राजकोट व जैतपुर (गुजरात) का रँगाई उद्योग वहाँ के भू-जल को दूषित करता है। पर्यावरण में औद्योगिक अपशिष्ट व कचरे को छोड़ने से पहले प्रत्येक औद्योगिक इकाई की यह जिम्मेदारी होती है कि वह कचरे व अपशिष्ट का उपचार कर उसके प्रदूषण को तय मानक में लाकर ही उसे छोड़े। लेकिन उद्योगपति ऐसा नहीं करते। आज उद्योगपतियों और पूँजीपतियों के मुनाफे की इस हवस की कीमत प्रदूषित पानी के रूप में देश की जनता को चुकानी पड़ रही है। वृक्षों और जंगलों की बेरहमी से कटाई, मुनाफे के लिए अन्धा औद्योगीकरण, पहाड़ों की खुदाई से इस देश के पर्यावरण को कौन बर्बाद कर रहा है? इस देश का आम मेहनतकश या पूँजी की चकाचौंध में अन्धा मानवद्रोही पूँजीपति वर्ग? यह सहज ही समझा जा सकता है।
जल संकट का एक कारण जल के वितरण की असमानता और कुछ क्षेत्रों में वर्षा जल की कमी बताया जाता है। लेकिन देश के सर्वाधिक वर्षा वाले पूर्वोत्तर हिस्सों की आबादी भी पेयजल संकट से जूझ रही है, जिसका एक उदाहरण असम है। देश के तमाम हिस्सों में भू-जल का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है। इसका प्रमुख कारण उद्योगपतियों के हितों को ध्यान में रखकर उन्हें मुफ्त या लगभग मुफ्त जल दोहन की आज़ादी देना है। उत्तरप्रदेश के जौनपुर में सतहरिया में पेप्सी का बाटलिंग प्लाट इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। जल के अन्धाधुँध दोहन से क्षेत्र में सिंचाई एवं पेय जल का संकट उपस्थित हो गया है तथा पास की सई नदी सूख गयी है। महानगरों में होने वाले निर्माण कार्य एवं परियोजनाओं में ज़मीन के नीचे कार्य करते समय पानी को पम्प किया जाता है और उसको नाले में डाल दिया जाता है। दिल्ली मेट्रो को जहाँ एक ओर दिल्ली की शान के रूप में पेश किया जाता है लेकिन एक पहलू यह भी है कि ठेका कम्पनियों ने सालों-साल लगातार भू-जल पम्प कर सीवर एवं वर्षा जल पाइपों में बहाकर दिल्ली के भू-जल स्तर को काफी कम कर दिया। भारतीय कृषि में पूँजी के विस्तार ने कृषि क्षेत्र को मुनाफे से जोड़ दिया है। बडे़ फार्मरों द्वारा जहाँ एक ओर कृषि श्रमिकों का अन्धाधुँध शोषण किया जाता है, वहीं दूसरी तरफ सबि्ज़यों से लेकर अनाज तक में तमाम ख़तरनाक रसायनों का प्रयोग किया जाता है जो पूरे समाज के पोषण आहार को दूषित कर रहा है। यह रसायन प्रयोग भी न्यूनाधिक मात्रा में ही सही, मुनाफा आधारित व्यवस्था में जल प्रदूषण का कारण है। लेकिन प्रमुख कारण औद्योगिक प्रदूषण ही है। पेयजल की समस्या का सम्बन्ध प्रदूषित जल स्रोतों और जल के अति दोहन से जुड़ा है। पर्यावरण नियन्त्रण के तमाम निर्देशों और कारख़ाना अधिनियमों के अन्तर्गत पर्यावरण मानक को बनाये रखने की जिम्मेदारी कारख़ाना मालिक की है। प्रश्न चाहे वायु प्रदूषण का हो या जल निपटारण का, ध्वनि प्रदूषण अथवा कार्य स्थितियों एवं वातावरण के मानव सुलभ होने की यह जिम्मेदारी उद्योग मालिक की है। लेकिन पूँजी के चाकरों को इन सबसे कोई मतलब नहीं क्योंकि प्रदूषण को नियन्त्रित करना तथा उनको तय मानक के अन्दर रखना उनके उत्पादन लागत को बढ़ाता है और मुनाफे की दर को कम करता है। ऐसा नहीं है कि पूँजीवादी व्यवस्था की प्रतिनिधि संस्था संसद को इसका पता नहीं होता, बल्कि शोषण पर आधारित इस ढाँचे में विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका ख़ुद भी इससे गहरे नाभिनालबद्ध है। आइये एक नज़र भारतीय शासक वर्ग के लोगों को पेयजल उपलब्ध करवाने से मुकरने के इतिहास पर डालें।
1949 में पर्यावरण स्वास्थ्य समिति (Environment hygien committee) ने यह सुझाव दिया कि देश के 90 फीसदी लोगों को 40 वर्षों के अन्दर सुरक्षित पेय जल उपलब्ध करवा दिया जाये। 1950 में भारतीय संविधान प्रत्येक जल संसाधन को राज्य की सम्पत्ति बताते हुए नागरिकों को पेय जल के अधिकार की बात करता है जो इसके तमाम अनुच्छेदों में अन्तर्निहित है। लेकिन हम जानते हैं कि इस देश की जनता से किये गये ये छलपूर्ण वायदे कभी पूरे नहीं किये गये। 1969 में राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल आपूर्ति और 1986 में राष्ट्रीय पेयजल मिशन से होते हुए पेयजल की तमाम संस्थाओं का गठन किया गया। लेकिन तमाम हीला-हवाली से सरकार पेयजल के लोगों के अधिकार को टालती रही और झूठे सपने दिखाती रही। 1991 में भूमण्डलीकरण और निजीकरण के दौर के शुरू होते ही जनता के प्रत्येक अधिकार को ताक पर रख दिया गया। प्राकृतिक सम्पदा और मूलभूत अधिकार के प्रत्येक क्षेत्र को पूँजी की अन्धी लूट के लिए खोल दिया गया। 1999 में जल की पहुँच लोगों तक सुनिश्चित करने और जल के क्षेत्र में सुधार के नाम पर ‘सरकार द्वारा पेय जल आपूर्ति’ के विचार को त्यागकर ‘जनकेन्द्रीय माँग उत्तरदायी’ (people-oriented demand responsive approach) जल आपूर्ति के द्वारा निजीकरण पर बल दिया गया। अर्थात जो जल की माँग कर सकता है उसे जल उपलब्ध है। अर्थशास्त्र का सामान्य विद्यार्थी भी यह जानता है कि आपकी वही आवश्यकता माँग बन सकती है जिसे ख़रीदने के लिए आपकी जेब में पैसा हो। जल के निजीकरण और व्यावसायीकरण के लिए केन्द्र सरकार ने पूँजीपतियों के पक्ष में अनेक नीतियाँ बनायीं। 1991 में जिस तरह से ऊर्जा के क्षेत्र को निजी हाथों में सौंपा गया वैसे ही वर्ष 2002 की नयी जलनीति व 2004 की शहरी जल और स्वच्छता सुधार नीति और सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) आदि द्वारा जल के निजी हाथों में सौंपने का मार्ग खुल गया। भारत सरकार की जलनीति 2002 में जल के निजीकरण को अनुमति दी गयी है। इस नीति के अनुच्छेद 13 में कहा गया है कि ‘’निजी क्षेत्र की भागीदारी को जल की योजना, विकास एवं प्रबन्धन में प्रोत्साहित किया जाये।”
आज जब पूँजीवाद को मुनाफा कमाने के लिए पानी सबसे उत्तम संसाधन साबित हो रहा है तो पूँजीपतियों की रक्षक राजसत्ता पानी का सौदा करने से भला क्यों रोके? पूँजीपति समुदाय अनायास ही पेयजल को नीला सोना (blue gold) नहीं कहता। आज पूँजी के भूमण्डलीकरण के दौर में विश्व पूँजीवाद राष्ट्रीय पूँजीवाद से गहरे जुड़ा है। विश्व बैंक पूँजीवाद की मानवद्रोही नीतियाँ लागू करवाता है। तंजानिया, अर्मेनिया, जाम्बिया और भारत में पेय जल के क्षेत्र में देशी-विदेशी पूँजी की लूट जारी है। वर्ष 2008 में विश्व बैंक के उपाध्यक्ष केथी सीरा ने कहा कि जल के क्षेत्र में ‘सार्वजनिक-निजी क्षेत्र की भागीदारी को निवेश के लिए खुला परिदृश्य है।’ विश्व बैंक के ‘निजी क्षेत्र प्रखण्ड’ व वैश्विक वित्तीय निगम के प्रमुख लार्स थनेल ने 2008 में हुए ‘विश्व जल सप्ताह’ में कहा कि ”हमें विश्वास है कि शुद्ध जल एवं सुविधा प्रदान करना एक वास्तविक व्यापारिक अवसर है।” वास्तव में विश्व बैंक ग़रीब देशों में अधिरचनागत विकास के लिए दिये जाने वाले वित्त के माध्यम से जल के निजीकरण के लिए निजी निवेशकों को उचित परिस्थितियाँ मुहैया करवाता है। विश्व बैंक जन सुविधाओं के क्षेत्र को तुरत-फुरत लाभ निचोड़ने का सबसे बड़ा साधन देखता है। तभी तो वर्ष 1993-2002 के बीच उसने अपने ऋण के अधिरचनागत व्यय को घटाकर 50 प्रतिशत कर दिया। बैंक ने निजी क्षेत्र के निवेश को ऋण बढ़ा दिया है। बिजली के सार्वजनिक क्षेत्र का ऋण 1990 के 2.9 बिलियन डॉलर से घटकर 2001 में 824 मिलियन डॉलर रह गया। जबकि इसी क्षेत्र में निजी निवेश का ऋण 45 मिलियन डॉलर से बढ़कर 687 मिलियन डॉलर हो गया।
दिल्ली जल बोर्ड के निजीकरण का प्रस्ताव विश्व बैंक द्वारा पोषित (140 मिलियन डॉलर) योजना ‘दिल्ली जल आपूर्ति’ एवं सीवेज योजना के तहत हुआ था। दिल्ली जल बोर्ड के सुधार और पुनर्निर्माण से सम्बन्धित अध्ययन के लिए वर्ष 2002 में बैंक ने 2.5 मिलियन डॉलर का लोन दिया। बैंक के सहयोग से प्राइस वाटर हाउस कूपर को सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया। प्राइस वॉटर हाउस कूपर ने अपनी रिपोर्ट में दिल्ली जल बोर्ड के सभी जोनों के जल वितरण एवं प्रबन्धन को निजी कम्पनियों के हाथों में देने की बात कही।
दूसरा उदाहरण 2006 में के/ईस्ट वार्ड मुम्बई के जल वितरण के निजीकरण का है। फ्रांसीसी कम्पनी कस्तालिया को निजीकरण का ठेका दिया गया। ‘जलधारा’ (ग्रामीण क्षेत्रों में जल आपूर्ति योजना जो विश्व बैंक द्वारा वित्त पोषित है) के रिपोर्ट और अध्ययन बताते हैं कि यह जल के लिए लोगों से पूरा मूल्य वसूलने के सिद्धान्त पर आधारित है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार पैसों के लिए पानी पर किया गया निवेश बड़ा आर्थिक फायदा देता है। 1 डॉलर निवेश उसे 45 डॉलर का लाभ पहुँचाता है। देश में पानी की ख़राब आपूर्ति के कारण बोतल बन्द पानी का बाज़ार तेज़ी से फैल रहा है। भारत में बोतल बन्द पानी का उद्योग लगभग 1000 करोड़ रुपये का है जो 40 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। बिसलरी, किनले और एक्वाफिना जैसी कम्पनियाँ पानी से ख़ूब मुनाफा कमा रही हैं। 10 रुपये के बोतल बन्द पानी के कच्चे माल की लागत महज़ 0.02-0.03 पैसे होती है। बोतल बन्द पानी से जल का संकट तो बढ़ रहा है, पर्यावरण भी प्रभावित हो रहा है। भारत में 100 से भी ज़्यादा कम्पनियाँ पानी का धन्धा कर रही हैं। 12 हज़ार संयन्त्र काम कर रहे हैं। ये कम्पनियाँ जल के अनियन्त्रित दोहन में आगे हैं। पानी का ठेका निजी कम्पनियों को दिया जाना लोगों की ग़रीबी को और बढ़ाना है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण 1999 में बोलीविया में बेकतेल कम्पनी के आने के बाद पानी की दरें 35 फीसदी बढ़ गयीं। भारत में निजी पूँजी की रक्षा का कीर्तिमान स्थापित करते हुए छत्तीसगढ़ राज्य में शासकों ने शिवनाथ नदी को एक निजी कम्पनी के हाथों बेच दिया। जल आज पूँजीपतियों को मुनाफा देने वाला प्रमुख क्षेत्र है और मुनाफे की व्यवस्था के रहते जल के क्षेत्र के निजीकरण को नहीं रोका जा सकता है।
जनता को लोकतन्त्र की आस्था और जनवाद का पाठ पढ़ाने वाली राजसत्ता ख़ुद कितनी जनवादी है और संविधान तथा न्यायपालिका के प्रति आस्थावान है – इसको भी देखें।
संविधान का अनुच्छेद 47 कहता है कि ‘यह राज्य की जिम्मेदारी है कि लोगों के पोषण और जीवन स्तर को ऊपर उठाये, जन स्वास्थ्य का सुधार करे।’ इसमें ‘जीवन स्तर’ और ‘जन स्वास्थ्य’ के अन्तर्गत पेयजल प्रत्येक नागरिक को उपलब्ध करवाना राज्य की जिम्मेदारी है और यह मूलभूत मानव आवश्यकता है। संविधान का अनुच्छेद 21 ‘जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा’ का अधिकार देता है। जल जीवन रक्षक तत्व है। पानी और हवा के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। यदि आज पेय जल की उपलब्धता जेब में रुपये से तय होगी तो इस ‘’शुचितापूर्ण संविधान” का क्या किया जाये? सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में पारिस्थितिकी व सार्वजनिक साख सिद्धान्त (Ecology and Public Trust Doctrine) को रेखांकित करते हुए कहा कि ‘हवा, समुद्र, पानी और जंगल जैसे संसाधन लोगों के लिए अत्यधिक महत्त्व रखते हैं। इसको निजी स्वामित्व की वस्तु बना देना पूरी तरह से न्याय के विरुद्ध होगा।’ (M.C.Mehta vs Kamal Nath (1997) 1 sec 388)। सुभास बनाम बिहार राज्य के निर्णय में न्यायालय ने कहा कि ‘स्वच्छ वायु का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत आता है।’ न्यायालय ने एक और निर्णय में कहा कि ‘मूलभूत पर्यावरण के तत्वों मुख्यतया हवा, पानी और मृदा जो जीवन के लिए ज़रूरी है; को नुकसान पहुँचाना जीवन के लिए ख़तरनाक है और यह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।’ (M.C.Mehta vs Kamal Nath (1997) 1 sec 388)। ऐसे में यह प्रश्न कौंधता है कि पर्यावरण, जल, जंगल, हवा और ज़मीन को कौन लोग नुकसान पहुँचा रहे हैं? क्या वे 77 फीसदी लोग जो अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार मात्र 20 रुपये पर गुज़र कर रहे है या वे लोग जो देश की अकूत सम्पदा, खनिज, पानी तथा जंगलों का अपने मुनाफे के लिए दोहन कर रहे हैं? आखि़र चिमनियों से निकलने वाली प्रदूषित हवा, फैक्टरियों से निकलने वाला ज़हरीला पानी सीधे पर्यावरण में कौन मिला रहा है?
आइये एक नज़र जल संसाधन की कमी और अभाव के पूँजीवादी प्रचार पर भी डालें। भारत में नदियों के वृहद संजाल और लम्बे समुद्री तट के बावजूद यह कहना कि यहाँ प्राकृतिक रूप से जल की कमी है, व्यवस्था द्वारा पूँजी की लूट और जनता के साथ किये जा रहे अत्याचार पर पर्दा डालता है। वर्षा जल और हिमपात भारत में जल के प्रमुख स्रोत हैं। लगभग 4200 अरब घन मीटर जल प्रतिवर्ष वर्षा से प्राप्त होता है। औसत वार्षिक वर्षा 1170 मिलीमीटर है। कुप्रबन्धन के कारण वर्षा जल का अधिकतम भाग बहकर समुद्र में मिल जाता है। भारत में उपयोग योग्य जल की मात्र 1122 अरब घन मीटर है जिसका मात्र 1.9 फीसदी भाग ही वर्तमान में उपयोग हो पाता है। केन्द्रीय जल आयोग के आँकड़ों के अनुसार प्राकृतिक जल संसाधन के रूप में नदियों का सलाना अपवाह लगभग 186-9 घन किमी- है। देश में उपलब्ध भूजल की कुल मात्र 931.88 अरब घन मीटर है जिसमें से 360.80 अरब घन मीटर सिंचाई एवं 70.93 अरब घन मीटर औद्योगिक कार्यों के लिए उपयोग किया जाता है। इण्डियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एण्ड कल्चरल हेरिटेज के अनुसार, 980 बिलियन लीटर जल वर्षा जल संचय में प्राप्त किया जा सकता है। आज अगर पूरे देश की आबादी को पेय जल उपलब्ध करवाना हो तो प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 150-200 लीटर जल की आवश्यकता होगी। यह मात्र बड़े शहरों के लिए है जबकि छोटे शहरों एवं ग्रामीण क्षेत्रों में यह मानक कम है। अब अगर 200 लीटर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन के अनुसार देश की पूरी 121 करोड़ आबादी के लिए एक वर्ष तक जल की आवश्यकता निकाली जाये तो वह 88.33 अरब घन मीटर होगा। ज्ञात हो कि उपलब्ध उपयोग योग्य वर्षा जल की मात्र 1122 अरब घन भी एवं भू-जल की मात्र 931.88 अरब घन मीटर है। अर्थात अभी भी देश में पेय जल समेत समस्त उपयोग के लिए जल के अभाव का संकट नहीं है। ज़रूरत है जल के उचित प्रबन्धन करने एवं अतिदोहन को रोकने की। संरक्षण एवं जागरूकता के प्रयास से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन सवाल यह है कि इसको बर्बाद कौन कर रहा है?
आज जब पूँजीवाद ने देश के सामने पानी के उपभोग का संकट खड़ा कर दिया है तो सरकार जनता को जल उपलब्ध करवाने के अपने कर्तव्य से बेहयायी से मुकरकर पूँजीपतियों से कह रही है कि लोग प्यास से मरेंगे, जाओ अब तुम लोगों को पानी बेचकर अपनी तिजोरियाँ भरो! निजीकरण पूँजीवाद की आम प्रवृति है और ऐसा प्रत्येक क्षेत्र जहाँ मुनाफे का स्वर्णिम अवसर है निजीकरण मानव जीवन तथा सम्पूर्ण मानवता की कीमत पर भी किया जायेगा। पानी, पर्यावरण तथा जीवन के लिए ज़रूरी किसी भी क्षेत्र की रक्षा एवं सर्वजन सुलभता, मुनाफा केन्द्रित समाज में नहीं बल्कि मानव केन्द्रित समाज में सम्भव होगी जो पूँजीवाद के रहते सम्भव नहीं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2011
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