जयराम रमेश और उनका पर्यावरण एक्टिविज़्म
प्रशान्त
पिछले कुछ समय से जयराम रमेश मीडिया में एक सुपरहिट हीरो की तरह छाये हुए हैं। कर्नाटक के एक कॉलेज के दीक्षान्त समारोह में पहने जाने वाले गाउन को औपनिवेशिक गुलामी की मानसिकता का प्रतीक बताकर मंच पर ही उसे उतार फेंकने (गाउन! औपनिवेशिक गुलामी के सबसे महत्त्वपूर्ण स्तम्भों – नौकरशाही, कानून व न्यायव्यवस्था तथा संविधान का क्या? क्या जयराम रमेश इनको भी उतार फेंकेंगे?) की नौटंकी से लेकर हाल ही में पर्यावरण संरक्षण के लिए उठाये गये कई ‘‘कठोर’‘ कदमों तक, जयराम रमेश ने मीडिया में अपनी छवि एक प्रगतिशील नीतिनिर्धारक के तौर पर प्रस्तुत करने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। विशेष तौर पर वह पर्यावरण के एक ‘‘संरक्षक’‘ और ‘‘हरित’‘ विकास (‘‘ग्रीन’‘ डेवलपमेण्ट) के पक्के समर्थक के रूप में उभरे हैं। उनके द्वारा हाल ही में लिये गये दो महत्त्वपूर्ण निर्णयों ने – नियामगिरी में वेदान्ता के खनन लाइसेंस को रद्द करना तथा जगतसिंहपुर में पॉस्को के 51,000 करोड़ रुपये वाले प्रोजेक्ट पर पर्यावरण सम्बन्धी अनियमितताओं के चलते अस्थाई रूप से रोक लगाना – उनकी इस ‘‘प्रगतिशील’‘ छवि को और भी मज़बूती प्रदान की है।
एक तरफ, जयराम रमेश के इन निर्णयों से भारतीय पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा भयाक्रान्त हो गया और जयराम रमेश की नीतियों का जमकर विरोध कर रहा है। यहाँ तक कि इनके हितों की पैरवी करने वाली मीडिया ने तो उनको ‘‘पर्यावरण आंतकवादी’‘ तक घोषित कर दिया है। लेकिन दूसरी ओर अपने आपको प्रगतिशील कहलाना पसन्द करने वाले मीडिया ने जयराम रमेश के इन निर्णयों की ‘‘क्रान्तिकारिता’‘ को अच्छी तरह महत्त्व दिया है। इसने रमेश को भारतीय औद्योगिक विकास की नीति में एक क्रान्तिकारी बदलाव का सूत्रधार बताकर उनकी दिल खोलकर प्रशंसा ही है। साथ ही औद्योगिकीकरण की नीति से बदलाव के संकेतों को और भी पुख्ता करते हुए हाल ही में श्रीमती सोनिया गांधी ने भी पर्यावरण संरक्षण और समेकित विकास को गठबन्धन सरकार की प्रमुख प्राथमिकता बताया है। अतः यह ज़रूरी हो जाता है कि नवउदारवादी नीतियों का सूत्रपात करने वाली व इनको जारी रखने की कट्टर समर्थक कांग्रेस व जयराम रमेश के इस ‘‘ह्रदय परिवर्तन’‘ के कारणों की जाँच-पड़ताल की जाये।
अगर आज के दृश्यविधान पर एक नज़र डाली जाये तो यह स्पष्ट हो जाता कि 1930 की ‘‘महामन्दी’‘ के बाद के सबसे बड़े वित्तीय संकट से जूझते विश्व पूँजीवाद के लिए भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाएँ एक सहारा बनी हुई हैं। ख़ासकर अपनी अकूत प्राकृतिक व खनिज सम्पदा, अत्यन्त सस्ता श्रम और भूमि, बिजली, पानी आदि आधारभूत सुविधाओं को लगभग मुफ्त में उपलब्ध कराने के लिए प्रतिबद्ध सरकार के कारण भारत आज देशी-विदेशी पूँजी के लिए स्वर्ग बना हुआ है। 2005 में सेज़ एक्ट और 2005-06 के दौरान खनन, ऊर्जा, आधारभूत संरचनागत उद्योगों और लगभग सभी उद्योगों में 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की नीति के क्रियान्वयन के बाद से तो देश में औद्योगिकीकरण अभूतपूर्व तेज़ी से बढ़ा है। ख़ासकर खनन के क्षेत्र में देशी-विदेशी पूँजीपतियों ने बहुत बड़ी मात्रा में पूँजी निवेश किया है। पॉस्को द्वारा 12 मिलियन टन प्रतिवर्ष क्षमता वाला 51,000 करोड़ रुपये का प्रत्यक्ष पूँजी निवेश तो खनन के क्षेत्र में हो रहे विदेशी निवेश की एक कड़ी मात्र है। उदाहरण के लिए दुनिया की सबसे बड़ी स्टील उत्पादक कम्पनी आर्सेलर मित्तल जल्दी ही 50,000 करोड़ रुपये पूँजी निवेश के दो प्रोजेक्ट झारखण्ड व उड़ीसा में तथा 30,000 करोड़ रुपये का प्रोजेक्ट कर्नाटक में शुरू करने जा रही है। खनन के अतिरिक्त देशभर में बड़े-बड़े औद्योगिक पार्कों व शहरों की स्थापना की जा रही है। और सैकड़ों किलोमीटर लम्बे औद्योगिक कॉरीडोर बनाये जा रहे हैं। इसके साथ-साथ इसे बड़े पैमाने के औद्योगिकीकरण के लिए आवश्यक आधारभूत संरचना अर्थात तेज़ यातायात के लिए राजमार्ग, रेलमार्ग, हवाई अड्डे, बन्दरगाह; जल व बिजली आपूर्ति के लिए बड़े बाँध व नहरें, रिहायशी कॉलोनियों और विश्वस्तरीय यूनिवर्सिटीज़ व शोध संस्थानों का भी तेज़ी से विकास जारी है।
और इन सबके साथ जारी है लगातार तेज़ी से बढ़ता हुआ पर्यावरण, प्राकृतिक सम्पदाओं और आम मेहनतकश आबादी का नग्न शोषण। इस तेज़ औद्योगिकीकरण से एक तरफ तो देश में करोड़पतियों, अरबपतियों और खरबपतियों की संख्या में दिन दूनी, रात चोगुनी वृद्धि हो रही है; वहीं पहले से परेशानहाल देश की बहुसंख्यक आबादी के लिए परिस्थितियाँ नरक सामान हो गयी हैं।
खनन व सेज़ निर्माण की प्रक्रिया पर नज़र डालने से यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि देश में लौह अयस्क, बाक्साइट, चूना पत्थर और कोयले के खनन के अब तक 3,90,000 हेक्टेयर तथा खनन के अभिन्न अंग पॉवर प्लाण्ट्स व रिफाइनरी के निर्माण के लिए 2,60,000 हेक्टेयर जंगलों का सफाया किया जा चुका है। गठबन्धन सरकार ने अकेले कोयले के खनन के लिए भविष्य में 3,80,000 हेक्टेयर वन-भूमि और साफ करने का निर्णय लिया है। यह क्षेत्रफल लगभग छह मुम्बई के क्षेत्रफल के बराबर बैठता है। खनन क्षेत्र पर 2008 में जारी अपनी रिपोर्ट ‘रिच लैण्ड्स पूअर पीपुल’ में सेण्टर फ़ॉर साइंस एण्ड इनवायरमेण्ट (सीएसई) ने यह उल्लेख किया है कि खनन द्वारा जीडीपी में किये गये हर एक प्रतिशत योगदान के लिए विस्थापित जनसंख्या अन्य उद्योगों द्वारा किये गये समान योगदान से विस्थापितों की संख्या से 3 से 4 गुना अधिक होती है। 1950-91 के बीच ही, जबकि खनन कार्य 1991 के बाद की तुलना में नगण्य था, 25.5 लाख लोगों को अपनी जगह-ज़मीन से उजाड़ा गया था। हालाँकि 1991 के बाद से विस्थापितों की अधिकारिक संख्या की अब तक कोई घोषणा नहीं की गयी है, लेकिन 1991 के बाद के तेज़ खनन की तुलना 1950-91 के खनन कार्य से तुलना करने पर स्पष्ट हो जाता है कि यह संख्या कितनी अधिक होगी। अगर सेज़ निर्माण की प्रक्रिया पर ध्यान दिया जाये तो औद्योगिक विकास की इन नीतियों का भयंकर पर्यावरण व मानवद्रोही चरित्र और भी खुले रूप में सामने आ जाता है।
2005 में सेज़ एक्ट लागू होने के बाद से अब तक भारत में कुल 1083 सेज़ निर्माण प्रक्रिया के अलग-अलग चरणों पर हैं। विश्व के अन्य किसी भी देश की तुलना में यह संख्या कहीं ज़्यादा है। इनके अन्तर्गत अब तक 1.5 लाख हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण किया जा चुका है या होने की प्रक्रिया में है। अधिकांशतः ये सेज़ नदियों की घाटियों में, समुद्री तटों के साथ-साथ या कृषि व कृषि सम्बन्धित कार्यों के लिए इस्तेमाल हुई भूमि पर बनाये गये हैं। निजी कम्पनियों को सस्ता जल उपलब्ध कराने के लिए देश के कई जल क्षेत्रों को इनके हाथों में सौंप दिया गया है जबकि देश के कई हिस्सों में लोग पीने के पीनी तक के लिए तरस रहे हैं। देश की लगभग समस्त समुद्री सीमा को भी देशी-विदेशी कम्पनियों को बेच दिया गया है। इन्हें मुख्यतः पेट्रोलियम, पेट्रो-रसायन और रसायन उद्योगों के निर्माण के लिए बेचा गया है। इन उद्योगों से अत्यन्त ज़हरीले पदार्थ निकलते हैं, जो केवल समुद्री जीवन तथा पारिस्थितिकी सन्तुलन को ही अप्रतिकार्य रूप से नष्ट नहीं करेंगे बल्कि साथ-साथ ही मत्स्य पालन आदि पर निर्भर लाखों की आबादी के जीविका के साधनों को भी समाप्त कर देंगे। इसी प्रकार विभिन्न नदियों के डेल्टा को बन्दरगाहों के निर्माण के लिए बेचा गया है। लेकिन एक बार इनके बन जाने के बाद नदी की प्राकृतिक गति पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव से आसपास के क्षेत्रों के डूब जाने की सम्भावना है, जिससे किसानों और मछुआरों की तंगहाली और बढ़ेगी। सेज़ के निर्माण के अन्तर्गत अधिग्रहित कृषि भूमि कुल कृषि योग्य भूमि का 2.7 फीसदी है जो पूर्व निर्धारित सीमा 0.5 फीसदी से 5 गुना से भी अधिक है। इसका प्रभाव मुख्यत सीमान्त, छोटे व मध्यम किसानों पर पड़ा है। इसके अलावा देशभर में सड़कों, रेलमार्गों, हवाई अड्डों के निर्माण के लिए डण्डे के बल पर भूमि अधिग्रहण का काम पर्यावरण संरक्षण व पारिस्थितिकी सन्तुलन सम्बन्धी मानकों को ताक पर रखने का काम बदस्तूर जारी है।
पर्यावरण और पारिस्थितिकी सन्तुलन पर इतना अधिक प्रतिकूल प्रभाव डालने की सम्भावना होने के बावजूद इन बड़े-बडे़ सेज़ों के निर्माण को पर्यावरण विभाग से मंजूरी किसी छोटे मोटे सामान्य प्रोजेक्ट की तरह दे दी जाती है, यहाँ तक कि इन सारी परियोजनाओं की लागत की गणना में जगंल में जैविक विविधता के ह्रास; जल स्रोत और समुद्री घाटों व सीमा के शोषण तथा जल व वायु प्रदूषण को तो शामिल किया ही नहीं जाता है।
इसी प्रकार कहने के लिए तो भूमि अधिग्रहण के दौरान मुआवज़ा देने का भी प्रावधान है और आदिवासियों के हकों की सुरक्षा के लिए फॉरेस्ट राइट एक्ट (2006) भी लागू किया गया है। लेकिन पूँजीपतियों की सेवा में पलक-पाँवड़े बिछाये बैठी राज्य व केन्द्र सरकार तथा भ्रष्ट नौकरशाही व कानून व्यवस्था इन अतिसीमित कानूनों को भी लागू नहीं होने देती। अधिकांशतः ज़मीन का अधिग्रहण ज़ोर-ज़बर्दस्ती से ही किया जाता है। विस्थापितों के लिए न तो पुनर्वास की ही कोई व्यवस्था की जाती है और न ही उनके लिए रोज़गार व रोज़ी-रोटी का कोई प्रबन्ध किया जाता है। एक बार अपनी जगह-ज़मीन से उजड़ने के बाद यह आबादी देश के अनौपचारिक क्षेत्र के लिए रिज़र्व आर्मी का काम करती है, जिनके लिए न तो कोई रोज़गार गारण्टी होती है, न कोई सामाजिक सुरक्षा और न ही किन्हीं श्रम कानूनों का ही पालन किया जाता है। जंगलों से विस्थापित हुए आदिवासियों की हालत तो और भी बुरी होती है, क्योंकि इनकी चेतना का स्तर इतना नीचे होता है कि एक अकुशल मज़दूर का काम भी उसको नहीं मिल पाता और वह सड़कों पर भीख माँगने या ऐसे ही अन्य कामों को करते हुए मरने के लिए छोड़ दिये जाते हैं।
स्पष्ट है कि नव-उदारवाद की इन ‘‘उदारवादी’‘ नीतियों के लागू होने के बाद से प्रकृति व मेहनतकश आबादी का होने वाला यह क्रूर व नग्न शोषण भारतीय इतिहास में अभूतपूर्व है।
तो क्या जयराम रमेश का दिल पर्यावरण व आम आबादी के इस घोर शोषण को देखकर पिघल गया है और वह इसी कारण पर्यावरण संरक्षण व समेकित विकास को ध्यान में रखते हुए औद्योगिकीकरण की नीति में बदलाव के समर्थक बन गये हैं? बिल्कुल नहीं। जयराम रमेश पूँजीवाद के दूरगामी हितों के संरक्षकों में से एक हैं। उनके द्वारा पर्यावरण संरक्षण और समेकित विकास को बढ़ावा दिये जाने के पीछे दो मुख्य कारण हैं। पहला कारण है – देश के अलग-अलग हिस्सों में इस पूँजीवादी शोषण दमन के विरुद्ध हो रहे लोक-संघर्षों का दबाव।
2008 में सिंगूर व नन्दीग्राम में हुए किसानों के ऐतिहासिक सशस्त्र संघर्ष से लेकर इस वर्ष पश्चिमी उत्तरप्रदेश में हुए किसानों के संघर्ष; नियामगिरी व जगतसिंहपुर में हुए शान्तिपूर्ण संघर्षों से लेकर छत्तीसगढ़, झारखण्ड व अन्य राज्यों के नक्सल प्रभावित इलाकों में माओवादियों के नेतृत्व में चल रहे आदिवासियों के सशस्त्र संघर्ष तथा देश के नये औद्योगिक केन्द्रों जैसे गुड़गाँव, लुधियाना आदि में मज़दूरों के जुझारु संघर्ष – नव-उदारवाद की भयावह नीतियों तथा भारतीय राज्य द्वारा इन्हें लागू करने के लिए की गयी दमनात्मक कार्यवाहियों की ही परिणति हैं। हालाँकि पूरे देश के स्तर की एक क्रान्तिकारी पार्टी के अभाव में इन बिखरे हुए संघर्षों को एक सूत्र में जोड़कर इस मानवद्रोही व्यवस्था के विरुद्ध एक प्रचण्ड क्रान्तिकारी आन्दोलन खड़ा नहीं किया जा सका है, लेकिन समृद्धि व धन-दौलत की चकाचौंध में मदमस्त पूँजीपति वर्ग को नींद से उठाने के लिए इन बिखरे हुए संघर्षों का भय ही काफी था। वर्तमान में इन संघर्षों तथा भविष्य में इससे भी बड़े पैमाने के संघर्षों की सम्भावना से पूँजीपति वर्ग किस कदर भयाक्रान्त है, यह हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुई विश्व आर्थिक मंच की भारत शिखर वार्ता में भारतीय स्टेट बैंक के चेयरमैन ओम प्रकाश भट्ट द्वारा कहे गये निम्न शब्दों से बिल्कुल साफ हो जाता है – ‘‘अगर हम समेकित विकास नहीं करते हैं तो इसका मतलब यह है कि हम अपने घरों या अपनी कारों में सुरक्षित नहीं रह सकेंगे।’‘
अतः इन संघर्षों के कारण पूँजीपति वर्ग और उनकी दूरदर्शी मैनेजिंग कमेटी की तरह काम करने वाली यूपीए सरकार के सामने निजीकरण-उदारीकरण की शोषक नीतियों को, लोगों के गुस्से को धीरे-धीरे रिलीज़ करते हुए, एक क्रमबद्ध व सापेक्षतः धीमी गति से लागू करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। इस प्रकार जयराम रमेश और कांग्रेस सरकार पर्यावरण ‘‘संरक्षण’‘ और ‘‘समेकित’‘ विकास को बढ़ावा देने के बहाने इन ख़ूनी नीतियों को अधिक दक्षतापूर्वक लागू करने की तैयारी कर रहे हैं। और आखि़र कांग्रेस को अपने वोट बैंक को भी तो सुरक्षित रखना है।
दूसरा कारण: विश्व स्तर पर ‘‘मुक्त बाज़ार पर्यावरणवाद’‘ या ‘‘ग्रीन’‘ नव-उदारवाद का बड़े पैमाने पर एक अत्यधिक लाभप्रद परिघटना के रूप में उभरकर सामने आना। वैसे तो पूँजीवाद ने अपने जन्म के समय से प्राक्पूँजीवादी संचय के लिए प्रकृति का बेहिसाब शोषण किया है, लेकिन पिछली सदी की शुरुआत से यह प्रक्रिया इस कदर तेज़ हो गयी कि मानव जाति व पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व के लिए ही संकट खड़ा हो गया है। इस पर्यावरणीय क्षति की मार भी मुख्यतः तीसरी दुनिया की ग़रीब आबादी को ही झेलनी पड़ रही है और इससे उनकी दरिद्रता निरपेक्ष रूप से बनी है। इसी कारण विश्व के अलग-अलग हिस्सों में पर्यावरण के संरक्षण के लिए संघर्ष भी तेज़ हो गये हैं। इन संघर्षों के दवाब के कारण व पूँजीवाद के दूरगामी हितों को ध्यान में रखकर ही इसके ‘‘दूरदर्शी’‘ नीति निर्धारकों ने पूँजीवादी शोषण व लूट की नीति में बदलाव करने तथा इस लूट से प्राप्त मुनाफे को पहले की तुलना में समाज के सापेक्षित बड़े हिस्से के साथ साझा करने के लिए विवश होना पड़ा है। इसी वजह से विश्वभर में, और वित्तीय मन्त्री के प्रभाव की वजह से विशेषकर ‘‘समेकित’‘ विकास व पर्यावरण ‘‘संरक्षण’‘ पर ज़ोर बढ़ गया है।
इन दूरदर्शी चिन्तकों ने ‘‘समेकित’‘ विकास के अन्तर्गत पर्यावरण संरक्षण का एक नया फार्मूला विकसित किया है – पर्यावरण संरक्षण को व्यापार तथा पूँजी निवेश के एक व्यापक क्षेत्र में विकसित कर इसे मुनाफे के स्रोत में बदलना। इस प्रकार पारम्परिक विकास के उल्टा ये फार्मूला औद्योगिकीकरण और पर्यावरण संरक्षण के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास करता दिखता है। इस नयी विचारधारा को ‘‘हरित’‘ नव-उदारवाद या ‘‘मुक्त’‘ बाज़ार पर्यावरणवाद का नाम दिया गया है। पर्यावरण संरक्षण का यह बाज़ार हल मूल्य के मानक और पूँजीवादी सम्पत्ति अधिकारों पर आधारित है। पिछले एक दशक में इसके तहत ‘‘ग्रीन’‘ तकनीकों तथा प्रमाणित उत्सर्जन कटौतियों (सर्टीफाइड एमिसन्स रिडक्सन्स – सीईआर्स) का एक व्यापक लाभदायी विश्व बाज़ार विकसित हुआ है। वास्तव में कई मामलों में तो यह ‘‘ग्रीन’‘ व्यापार इतना अधिक फायदेमन्द साबित हुआ है कि कई इकाइयों ने मुख्य धारा के व्यापार की अपेक्षा कार्बन व्यापार से कई गुना मुनाफा कमाने की बात स्वीकारी है। अतः इस तेज़ी से उभरते बाज़ार पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए विभिन्न देशों व विभिन्न निजी पूँजीपतियों के बीच होड़ ओर तेज़ हो गयी है। जिसे ग्रीन रेस का नाम दिया जा रहा है। स्पष्टतः एक तेज़ी से उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में भारत भी इस ग्रीन व्यापार में पीछे नहीं रहना चाहता है। उदाहरण के तौर पर, मार्च 2009 तक व्यापारिक प्रमाणित उत्सर्जन कटौतियों के क्षेत्र भारत से जुड़े हुए प्रोजेक्ट का बाज़ार मूल्य 1,51,397 करोड़ रुपये है और 2012 तक ही इसकी बिक्री से 26,811 करोड़ रुपये का मुनाफा होने की आशा की जा रही है।
इस प्रकार जयराम रमेश और सोनिया गाँधी द्वारा ‘‘समेकित’‘ विकास और पर्यावरण को प्राथमिकता दिये जाने की घोषणा की जड़ें इस ‘‘ग्रीन’‘ व्यापार के विश्व-व्यापी बाज़ार से मज़बूती से जुड़ी हैं।
‘‘समेकित’‘ विकास द्वारा पारिस्थितिकी एवं सामाजिक समस्याओं के पूर्ण या लगभग पूर्ण समाधान हो जाने की वास्तविकता को पूरी तरह समझने के लिए तो एक अलग लेख की ज़रूरत पड़ेगी। इसलिए यहाँ हम कुछ उदाहरणों द्वारा इसकी असलियत को जानने की कोशिश करेंगे। अभी हाल ही में विश्व बैंक ने अपने बायो-कार्बन फण्ड के ज़रिये उड़ीसा और आन्ध्रप्रदेश में 3,500 हेक्टेयर भूमि पर वनीकरण के लिए निवेश करने का निर्णय लिया है। इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि उड़ीसा व आन्ध्रप्रदेश में बड़े पैमाने पर चल रहे खनन कार्य के कारण होने वाले कार्बन उत्सर्जन के प्रभाव को कम करने में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहेगी। लेकिन इस भूमि के 50 प्रतिशत हिस्से में यूकेलिप्टस के पेड़ लगाये जायेंगे, जिनका पर्यावरण पर पड़ने वाला प्रतिकूल प्रभाव सर्वज्ञात है। यूकेलिप्टस के इतने बड़े पैमाने पर रोपन से इन क्षेत्रों में भूमिगत जल के स्तर, जैविक विविधता तथा स्थानीय पेड़-पौधों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा। पारिस्थितिकी की सन्तुलन के लिए हानिकारक होने के बावजूद भी ये पेड़ लगाये जायेंगे। अब इसका कारण जान लीजिये! इस प्रोजेक्ट को अधिग्रहित करने का ठेका जे.के. पेपर मील्स लिमिटेड (जे.के.पी.एल.) कम्पनी के पास है और यूकेलिप्टस के पेड़ जे.के.पी.एल. के पेपर उद्योग के लिए कच्चे माल के एक बड़े स्रोत का काम करेंगे। वातावरण पर इतना प्रतिकूल प्रभाव डालने के बावजूद इस प्रोजेक्ट के विवरणों में किसी भी पर्यावरणीय क्षति से साफ मना किया गया है। इसके साथ ही इसमें यह तो बताया गया है कि यह जंगल 2017 तक 0.27 मैट्रीक टन कार्बन डाईआक्साइड (CO2) को अवशोषित करेंगे, लेकिन इन पेड़ों को काटकर पेपर बनाने की प्रक्रिया में होने वाले कार्बन उत्सर्जन का कोई जिक्र नहीं किया गया। इसी प्रकार, भारत के 21 प्रतिशत सी.ई.आर्स. जल विद्युत परियोजनाओं में निवेशित है, जबकि इन बड़े बाँधों का पर्यावरण व पारिस्थितिकी सन्तुलन पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव भी भली-भाँति ज्ञात हैं। ऐसे अन्य अनेक उदाहरण गिनाये जा सकते हैं।
साफ है कि निजी मुनाफे की गलाकाटू प्रतिस्पर्धा पर आधारित यह व्यवस्था पर्यावरण की समस्याओं का ऐसा ही समाधान दे सकती है। पूँजीवाद का स्वाभाविक तर्क ही ऐसा है कि पर्यावरण सन्तुलन और मानवता के विकास की हज़ारों-हज़ार बड़ी-बड़ी नीतियाँ मात्र खोखले शब्द ही साबित होती हैं। निजी पूँजी के सहयोग व सहभागिता की सारी योजनाएँ बाज़ार के सिद्धान्त के सामने धरी की धरी रह जाती हैं और हर बड़ी वैश्विक मन्दी के बाद पूँजीवाद इन ‘‘प्रगतिशील’‘ नीतियों के आवरण में, प्रकृति या जनसंख्या के और भी बड़े हिस्सों को विश्व बाज़ार का अंग बनाकर पूँजी के जुए के नीचे पिसती जाती है।
साथ ही थोड़े-थोड़े समय के अन्तराल पर जन्म लेने वाली ये ‘‘प्रगतिशील’‘ विचारधाराएँ पूँजीवाद के वर्चस्व को समाज में ज़्यादा गहराई और मज़बूती से स्थापित करने का काम भी करती हैं। और सुधारवाद की प्रवृत्तियों को मज़बूत करके मेहनतकश जनता के संघर्षों को इस व्यवस्था की चौहद्दी के अन्दर ही रखती हैं। संक्षेप में, ये नीतियाँ इस मरणासन्न व्यवस्था को कुछ और समय तक जीवित रखने के लिए अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
भारत में, जयराम रमेश पूँजीवाद के इसी वर्चस्ववादी प्रभाव को बनाये रखने में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। यही उनके पर्यावरण एक्टीविज़्म की सच्चाई है। इस लेख का समापन करते हुए हम लेनिन के शब्दों में कहेंगे कि ‘‘लोग राजनीति में सदा छल और आत्म-प्रवंचन के नादान शिकार हुए हैं और तब तक होते रहेंगे, जब तक कि वे तमाम नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक कथनों, घोषणाओं और वायदे के पीछे किसी न किसी वर्ग के हितों का पता लगाना भी नहीं सीखेंगे। सुधारों और बेहतरी के समर्थक जब तक यह नहीं समझ लेंगे कि हर पुरानी संस्था, वह कितनी ही बर्बरतापूर्ण और सड़ी हुई क्यों न प्रतीत होती हो, किन्हीं शासक वर्गों के बल-बूते पर ही कायम रहती है, तब तक पुरानी व्यवस्था के संरक्षक उन्हें बेवकूफ बनाते रहेंगे। और इन वर्ग के प्रतिरोध को चकनाचूर करने का केवल एक तरीका है और वह यह कि जिस समाज में हम रह रहे हैं, उसी में उन शक्तियों का पता लगाये और उन्हे संघर्ष के लिए जागृत तथा संगठित करें, जो पुरातन को विनष्ट कर नूतन का सृजन करने में समर्थ हो सकती हैं और जिन्हें अपनी सामाजिक स्थिति के कारण समर्थ होना चाहिए।’‘
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्बर-दिसम्बर 2010
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