देख फ़कीरे, लोकतन्त्र का फ़ूहड़ नंगा नाच!
कुणाल, दिल्ली
बीते वर्ष ‘महान’ भारतीय जनतन्त्र ने न सिर्फ भ्रष्टाचार की नयी ऊँचाइयों को प्राप्त किया, बल्कि एक नया और आश्चर्यजनक कीर्तिमान भी अपने नाम जोड़ लिया – भारतीय गणतन्त्र के 61 वर्ष के इतिहास में पहली बार संसद की कार्यवाई लगभग एक पूरे सत्र के लिए ठप रही।
यूँ तो मुनाफ़े पर आधारित व्यवस्था में नीतियाँ-कानून पूँजीपतियों, विश्व बैंक, आई.एम.एफ. आदि के इशारों पर बनती हैं और सांसदों का काम महज़ इन नीतियों पर दिखावटी बहस कर जनता के आगे जनतन्त्र और जनतान्त्रिक प्रक्रिया की धुन्ध बिछाना ही होता है, लेकिन सार्वजनिक ख़ज़ाने के धन की यह बेकारी और चुनावी पार्टियों की आरोपों-प्रत्यारोपों की नौटंकी ने भारतीय जनतन्त्र के वर्ग चरित्र और खोखलेपन को उजागर कर दिया है
23 दिन के शीतकालीन सत्र में संसद के दोनो सदनों की कुल कार्यवाही 10 घण्टे और 21 मिनट की रही। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जाँच हेतु ‘संयुक्त संसदीय कमेटी’ (JPC) की माँग के कारण उत्पन्न हुए इस संसदीय गतिरोध ने जनता को 146 करोड़ की चपत लगा दी। (संसद की प्रत्येक दिन की बैठक का ख़र्चा 6.35 करोड़ और प्रति-वर्ष संसद की 93 दिन की कार्यवाही हेतु मन्त्रियों के आने-जाने, खाने-ठहरने, चाय-बिस्कुट, बिजली आदि का ख़र्चा 927.45 करोड़ रुपये बैठता है) यह पैसा जनता द्वारा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों से उगाहे गये सार्वजनिक फण्ड से ही लिया जाता है। चुनावी नेताओं के इस ऐशो-आराम का बोझ उठाने के बदले हमें पिछले 61 वर्षों से भुखमरी, कुपोषण, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और दमन के अलावा और मिला ही क्या है? पिछले दो वर्षों से न थमने वाली महँगाई और घोटालों के पर्दाफ़ाश के बीच हमारे सांसदों ने मनमर्ज़ी से अपना वेतन भी तीन गुना बढ़ा लिया।
ग़ौरतलब है कि ‘संसदीय गतिरोध’ की परम्परा भी भारतीय गणतन्त्र में पुरानी है। 1987 में बोफ़ोर्स घोटाले के पश्चात् 45 दिनों के लिए संसद बिना किसी अर्थपूर्ण कार्यवाई के चली। 2001 में राजग सरकार के कार्यकाल के दौरान हुए ‘तहलका’ घोटाले के बाद भी 17 दिन के लिए ठप रही। ठीक ऐसा ही नज़ारा 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले के बाद भी उपस्थित हुआ है। चुनावी पार्टियों के नेताओं का शेड्यूल काफ़ी टाइट चल रहा है। कांग्रेस राजनीतिक नुकसान की भरपाई में व्यस्त है। जाँच-कमेटियाँ बनवाकर और चन्द नौकरशाहों-मन्त्रियों को कठघरे में खड़ा कर मध्यवर्ग के डगमगाते भरोसे को पुर्नस्थापित करने की कोशिश में जुटी है। दूसरी तरफ, पूँजीपतियों द्वारा श्रम व प्राकृतिक संसाधनों की लूट की दर को जारी रखने के लिए नयी नीतियों-अनुबन्धों को आकार देना है। भाजपा भी अपना इतिहास भूल पूरी बेशर्मी के साथ अपना खोया हुआ राजनीतिक आधार वापस पाने के सुनहरे मौक़े का पूरा फ़ायदा उठा रही है। संसदीय वामपन्थी भ्रष्टाचार कम करने या ख़त्म करके एक सन्त पूँजीवाद बनाने के नुस्खे सुना रहे हैं। संसद के मौजूद कम्पोजीशन पर एक नज़र डालने से चित्र और साफ हो जाता है। लोकसभा के 543 सदस्यों में से 315 स्वयं करोड़पति हैं। औसतन एक सांसद की सम्पत्ति 5.84 करोड़ है। 128 सदस्य उद्योगपति, व्यापारी, बिल्डर की श्रेणी में आते हैं। विभिन्न मन्त्रालयों को फण्ड बाँटने के लिए गठित स्थाई व अस्थाई संसदीय कमेटियों में भी पूँजीपति काबिज़ है। वित्तीय मामलों के लिए गठित कमेटी के 26 सदस्यों में से 9 कारपोरेट घरानों से सम्बद्ध हैं। उत्तर प्रदेश के पूँजीपति अखिलेश दास इसके अध्यक्ष हैं।
आज पूरी पूँजीवादी राजनीति सर से पाँव तक नंगी हो चुकी है। ऐसे में यदि संसद में कोई कार्रवाई हो भी जाती तो इससे जनता का क्या भला हो जाता? जब कार्रवाई चलती है तो भी तो उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ बनती हैं, जनता के ख़िलाफ साज़िशें होती हैं, काले कानून पास होते हैं, और लूट-खसोट को चाक-चौबन्द करने के नियम-कानून बनते हैं। जब संसद में ही लुटेरे बैठेंगे तो आप और क्या उम्मीद कर सकते हैं? इसलिए, संसद में कोई कार्रवाई हो या न हो, इससे जनता को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। पूँजीवादी संसद की परजीवी संस्था अपने आप में इस देश की जनता पर बोझ है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011
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