चोरों, डकैतों, भ्रष्टाचारियों और अपराधियों के बीच हमारे ‘राहुल बाबा’!
शिवार्थ
अगर आपसे पूछा जाये कि इस वक़्त हमारी राष्ट्रीय राजनीति में कौन सबसे ‘युवा’, ‘स्टाइलिश’, ‘संघर्षशील’, ‘उदार’, ‘इनरजेटिक’ और ‘प्रगतिशील’ नेता है, तो मध्यवर्ग से आने वाले दस में से सात पढ़े-लिखे लोगों का जवाब होगा – राहुल गाँधी। आगे पूछा जाये, क्यों? तो अगर आप अख़बारों और टीवी के ‘टच’ में रहने वाले हैं तो तपाक से जवाब देंगे – पिछले आठ सालों से बिना कोई मन्त्री-पद ग्रहण किये वह सत्तारूढ़ पार्टी के सांसद होने की जिम्मेदारियों का निर्वहन कर रहे हैं; अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, बी.एच.यू. के संघर्षरत छात्रों के साथ मिलकर छात्र संघ बहाली की उनकी अपील को मानव संसाधन मन्त्री तक पहुँचाते हैं; देश के कोने-कोने में घूमकर युवाओं और छात्रों की रैली में शामिल होते हैं; बिना अपनी सुरक्षा की परवाह किये आम लोगों की जीवन-स्थितियों का पता लगाने के लिए साधारण ट्रेन के स्लीपर कोच में यात्रा करते हैं, भ्रष्टाचार जैसे विषयों पर बेबाक विचार रखते हैं, बिल गेट्स जैसे मानिन्द लोगों को बिहार के गाँवों की सैर कराते हैं आदि-आदि। कुछ भले लोग यह भी कह सकते हैं कि वह आज के उपभोक्तावादी संस्कृति के दौर में भी साधारण कुर्ता-पायजामा पहनते हैं और यहाँ तक कि कुँवारा रहकर देश-सेवा कर रहे हैं। इन्हीं कारणों से ‘प्रेरित’ होकर मैं भी राहुल बाबा के फैन-क्लब में शामिल होने वाला था, तभी सोचा कि ऊपर चिह्नित किये दावों की थोड़ी शिनाख़्त कर ली जाये। सर्वप्रथम कि क्या यह स्वतः ही है कि पिछले दिनों देश की राजनीति में राहुल गाँधी धूमकेतु की तरह उभर गये हैं! अगर आप थोड़ा बारीकी से नज़र डालेंगे तो जितनी स्वतःस्फूर्तता के साथ राहुल जी उभरे हैं, उतनी ही स्वतःस्फूर्तता के साथ आप यह समझ जायेंगे कि राहुल गाँधी अपने-आप लोकप्रिय नहीं बन गये, बल्कि बहुत ही प्रायोजित ढंग से इस देश के प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा उन्हें लोकप्रिय बनाया जा रहा है। आप फिर तपाक से पूछेंगे कि अब इसकी क्या ज़रूरत पड़ गयी? क्या इस देश में लोकप्रिय नेताओं की कमी है और उससे भी बड़ा सवाल कि जब आज मीडिया के पास राखी साँवत से लेकर सचिन तेन्दुलकर तक हज़ारों ‘सेलेबल प्रोडेक्ट्स’ हैं तो फिर राहुल गाँधी को यह मौका क्यों दिया जा रहा है? दोनों ही सवाल जायज़ हैं! जहाँ तक पहले सवाल का जवाब है तो अगर पिछले एक दशक के दौरान इस देश की संसदीय राजनीति पर एक सरसरी निगाह दौड़ायी जाये तो आपके मुँह से इस देश के गणमान्य नेताओं के लिए विशेषणों की बौछार हो जायेगी जैसे – चोर, डकैत, बलात्कारी, अपराधी, भ्रष्टाचारी, दुराचारी, व्याभिचारी…। हर गुज़रने वाले साल के साथ यह फेहरिस्त लम्बी होती जा रही है। पिछले एक साल के दौरान तो इन नेताओं ने तो जैसे घोटालों की लाइन ही लगा दी। अगर कुछ प्रतीकात्मक उदाहरणों की बात की जाये तो संसद में पैसा लेकर वोट करने सम्बन्धी घोटाला, झारखण्ड में मधु कोडा द्वारा 5,000 करोड़ रुपये का घोटाला, कर्नाटक में रेड्डी बन्धुओं द्वारा खनन उद्योग में अरबों रुपयों का घोटाला, उत्तरांचल में 56 बिजली घरों के ठेका आवण्टन सम्बन्धी घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, आदर्श सोसायटी हाउसिंग स्कीम, और हालिया 2-जी स्पेक्ट्रम आवण्टन घोटाला। प्रत्यक्ष लूट के इन घोटालों के अलावा स्विस बैंक में इन नेताओं द्वारा जमा खरबों रुपये इनके अप्रत्यक्ष लूट की बानगी पेश करते हैं। कुल मिलाकर देखा जाये तो पिछले दशक में आम जनता के समक्ष इस देश की संसदीय राजनीति इस कदर नंगी हुई है कि अब उसके अन्तःवस्त्रें का भी ठौर-ठिकाना नहीं रहा। यह अपने आप में कोई बहुत आश्चर्यजनक स्थिति नहीं है। दुनिया भर के तमाम पिछड़े हुए पूँजीवादी देश जैसे पाकिस्तान, बाँग्लादेश, दक्षिण अफ्रीका, अर्जेण्टीना, ब्राज़ील, वियतनाम इत्यादि के लिए यह अन्धेरगर्दी एक सामान्य सी बात है; लेकिन ऐसे हर ‘क्राइसिस’ के दौर में एक सचेत शोषक वर्ग शक्तिमत्ता के साथ आम जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए और किसी आमूल-चूल बदलाव की प्रक्रिया को विलम्बित करने के लिए किसी लोकप्रिय चरित्र को पैदा करता है। नेहरू-गाँधी परिवार के कुलदीपक से बेहतर यह काम और कौन कर सकता था। आज़ाद भारत में नेहरू-गाँधी परिवार ने हमेशा ही इस देश के पूँजीपति वर्ग के लिए सबसे योग्य मैनेजिंग कमेटी का दायित्व-निर्वहन किया है। 1947 से लेकर 2010 के बीच अगर 5-10 साल छोड़ दिये जायें तो शायद ही कोई ऐसा दौर रहा हो, जब इस परिवार का कोई कुलदीपक राष्ट्रीय राजनीति पर पूरी तरह हावी न रहा हो। ऐसे में राहुल गाँधी के अलावा कोई और यह जिम्मेदारी उठाये, यह न इस देश के पूँजीपति वर्ग को गँवारा है और न नेहरू-गाँधी परिवार को। जहाँ तक दूसरे सवाल की बात है, अगर लोकप्रिय बनाना ही था, तो एक राजनीतिज्ञ को ही क्यों; जब लोकप्रियता की ज़रूरत पूरा करने के लिए कलाकारों से लेकर क्रिकेटरों तक इतने सारे लोग हैं। जहाँ तक रही क्रिकेटरों या कलाकारों की बात तो वे अपने क्षेत्र-विशेष में तो लोकप्रियता की ज़रूरतों को पूरा करते हैं, लेकिन उनका क्षेत्र राजनीति का विकल्प नहीं हो सकता, भारत जैसे देश में जहाँ 50 फीसदी से अधिक आबादी युवाओं की है और करोड़ों की संख्या में पढ़े-लिखे बेरोज़़गारों की जमात है; स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़़गार, आवास हर जगह आम जनता के लिए मुफलिसी ही कायम है, ज़्यादातर बच्चों और महिलाओं के लिए भविष्य अन्धकारमय है वहाँ पर जनता को भ्रमित रखने के लिए एक राजनीतिक विकल्प की ज़रूरत है। इसके साथ ही किसी भी देश के पूरे सामाजिक-आर्थिक ढाँचे की निर्णायक निकाय राजनीति ही होती है, और बिना किसी ‘योग्य’ राजनीतिक नेतृत्व के शोषक वर्गों का राज कायम नहीं रह सकता। चलिये, अगर कुछ देर के लिए यह बात मान भी लें कि यह सब कुछ प्रायोजित है और इसके पीछे ठोस कारण है, तो क्यों ऐसा नहीं हो सकता कि ‘राहुल बाबा’ वाकई हमारे देश की राजनीति का उद्धार कर दे? उद्धार न भी करे तो कम से कम पुराने दिन वापस ही ले आये। पहली बात तो यह है कि लाख चाहकर भी राहुल गाँधी या कोई और इस व्यवस्था के चौहद्दियों के भीतर देश की राजनीति का उद्धार नहीं कर सकता। एक पूँजीवादी संसदीय प्रणाली की तार्किक परिणति ही होती है – आम जनता का दिवाला और लूट, अन्याय और भ्रष्टाचार का बोलबाला। बाकी आप किन पुराने दिनों की बात कर रहे हैं – क्या ‘नेहरू के समाजवाद’ की या फिर इन्दिरा गाँधी के ‘ग़रीबी हटाओ’ और आपातकाल के दौर की या फिर राजीव गाँधी के ‘नयी आर्थिक नीतियों’ के दौर की। हर जगह सिर्फ अँधेरा ही अँधेरा है। चलते-चलते बस एक आखि़री सवाल कि अगर ख़ुदा ना ख़ास्ता ऊपर की बातें सही हैं तो फिर प्यारे होगा क्या? इस बात का जवाब मैं आह्वान के ही ‘अन्तर्दृष्टि’ स्तम्भ से उधार लिये शब्दों में दूँगा कि – होगा क्या? यह तय करती हैं जिन्दगी की ज़रूरतें। मसलन, ज़रूरत यदि इन्कलाब की है तो हार जाने से भी होगा क्या?
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्बर-दिसम्बर 2010
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