Category Archives: महान व्‍यक्तित्‍व

अमर शहीद करतार सिंह सराभा के 100वें शहादत दिवस (16 नवम्बर) के अवसर पर

16 नवम्बर 1915 को मात्र उन्नीस वर्ष की आयु में शहादत पाने वाले करतार सिंह सराभा का जन्म लुधियाना जिले के सराभा गाँव में सन् 1896 में हुआ था। माता–पिता का साया बचपन में ही इनके सिर से उठ जाने पर दादा जी ने इनका पालन–पोषण किया। लुधियाना से मैट्रिक पास करने के बाद ये इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए सान फ्रांसिस्को, अमेरिका चले गये। 1907 के बाद से काफी भारतीय विशेषकर पंजाबी लोग अमेरिका और कनाडा में मज़दूरी के लिए जा कर बस चुके थे। इन सभी को वहाँ आये दिन ज़ि‍ल्लत और अपमान का सामना करना पड़ता था। अमेरिकी गोरे इन्हें काले और गन्दे लोग कहकर सम्बोधित करते थे। इनसे अपमानजनक सवाल–जवाब किए जाते और खिल्ली उड़ाई जाती थी कि 33 करोड़ भारतीय लोगों को 4-5 लाख गोरों ने गुलाम बना रखा है! जब इन भारतीयों से पूछा जाता कि तुम्हारा झण्डा कौन–सा है तो वे यूनियन जैक की तरफ इशारा करते, इस पर अमेरिकी गोरे ठहाका मारते हुए कहते कि ये तो अंग्रेज़ों का झण्डा है तुम्हारा कैसे हो गया। प्रवासी भारतीयों को अब खोयी हुई आज़ादी की क़ीमत समझ में आयी। देश को आज़ाद कराने की कसमसाहट पैदा हुई और मीटिंगों के दौर चले।

मिगेल एरनानदेस – एक अपूर्ण क्रान्ति का पूर्ण कवि

मिगेल के जीवन के अन्तिम दिन ज़्यादातर जेल की सलाखों के पीछे बीते। लेकिन सलाखों के बाहर भी ज़िन्दगी क़ैद थी। इन अँधेरे दिनों के गीत मिगेल ने अपनी कविताओं में गाए हैं। ये कविताएँ उन अँधेरे, निराशा, हताशा, विशाद और मायूसी भरे दिनों की कविताएँ हैं जो अँधेरे समय का गीत गाती हैं। ऐसी ही एक कविता है नाना दे सेबोया (प्याज़ की लोरी)। मिगेल की पत्नी ने उसे जेल में चिट्ठी भेजी और उसे बताया कि घर में खाने को कुछ भी नहीं है सिवाय प्याज़ और ब्रेड के। मिगेल का एक छोटा बेटा था, मिगेल ने जेल से अपने बेटे के लिए यह लोरी लिखी थी

भगतसिंह के लिए एक गद्यात्मक सम्बोध-गीति

भारत की एक स्त्री, एक स्त्री कवि, सचमुच तुम्हे याद करना चाहती है भगतसिंह,
एक मशक्कती ज़िन्दगी की तमाम जद्दोजहद और
उम्मीदों और नाउम्मीदियों के बीच,
अपने अन्दर की गीली मिट्टी से आँसुओं, ख़ून और
पसीने के रसायनों को अलगाती हुई,
जन्मशताब्दी समारोहों के घृणित पाखण्डी अनुष्ठानों के बीच,
सम्बोध-गीति के अतिशय गद्यात्मक हो जाने का जोखिम उठाते हुए

गाब्रियल गार्सिया मार्खेस : यथार्थ का मायावी चितेरा

गाब्रियाल गार्सिया मार्खेस, यथार्थ के कवि, जो इतिहास से जादू करते हुए उपन्यास में जीवन का तानाबाना बुनते हैं, जिसमें लोग संघर्ष करते हैं, प्यार करते हैं, हारते हैं, दबाये जाते हैं और विद्रोह करते हैं। ब्रेष्ट ने कहा था साहित्य को यथार्थ का “हू-ब-हू” चित्रण नहीं बल्कि पक्षधर लेखन करना चाहिए। मार्खेस के उपन्यासों में, विशेष कर “एकान्त के सौ वर्ष”, “ऑटम ऑफ दी पेट्रियार्क” और “लव एण्ड दी अदर डीमन” में उनकी जन पक्षधरता स्पष्ट दिखती है। मार्खेस के जाने के साथ निश्चित तौर पर लातिन अमेरिकी साहित्य का एक गौरवशाली युग समाप्त हो गया। उनकी विरासत का मूल्यांकन अभी लम्बे समय तक चलता रहेगा क्योंकि उनकी रचनाओं में जो वैविध्य और दायरा मौजूद है, उसका आलोचनात्मक विवेचन एक लेख के ज़रिये नहीं किया जा सकता है। लेकिन इस लेख में मार्खेस के जाने के बाद उन्हें याद करते हुए हम उनकी रचना संसार पर एक संक्षिप्त नज़र डालेंगे। आगे हम ‘आह्वान’ में और भी विस्तार से मार्खेस की विरासत का एक आलोचनात्मक विश्लेषण रखेंगे।

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट – दुख के कारणों की तलाश का कलाकार

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की कला की मुख्य प्रवृत्ति पूँजीवादी नज़रिये पर तीखा प्रहार करना है। अपने नाटकों और कविताओं में इन्होंने शिक्षात्मक पहलू के साथ ही कलात्मकता के बेहतरीन मानदण्डों को बरकरार रखा। अपने नाटकों में ब्रेष्ट ने दुखों का केवल बख़ान करके ही नहीं छोड़ दिया, बल्कि उनके कारणों की गहराई तक शिनाख़्त भी की। ब्रेष्ट ने अपने नाटकों में रूप और अन्तर्वस्तु दोनों ही दृष्टियों से एक अलग सौन्दर्यशास्त्र का अनुपालन किया, जिसे इन्होंने ‘एपिक थिएटर’ का नाम दिया।

पीट सीगर (1919-2014) – जनता की आवाज़ का एक बेमिसाल नुमाइन्दा

सीगर 1990 के दशक में भी अपनी काँपती आवाज़ में जनसभाओं और आन्दोलनों में गाते रहे। उनकी आवाज़ में एक ऐसी ईमानदारी, जीवन के प्रति भरोसा और प्यार, इंसानियत के प्रति विश्वास और साथीपन झलकता था कि लगभग हमेशा ही समूची भीड़ उनके साथ गाने लगती थी। 2000 के दशक में भी वयोवृद्ध होने के बाद भी उन्होंने अपनी सांगीतिक सक्रियता को छोड़ा नहीं। यहाँ तक कि उन्होंने ‘ऑक्युपाई’ आन्दोलन में भी गाया।

चिनुआ अचेबे को श्रृद्धांजलि

बकौल चिनुआ अचेबे उन्होंने अपने लेखन के ज़रिये अफ्रीका की सांस्कृतिक विभिन्नताओं को इसलिए चित्रित किया, क्योंकि उसकी मौजूदगी को विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियों के बरक्स दिखाया जा सके। अपने एक निबन्ध ‘द रोल ऑफ़ ए राइटर इन न्यू नेशन’ में उन्होंने ज़ोर दिया कि दुनिया को इस बात का एहसास दिलाना ज़रूरी है कि अफ्रीकियों के पास भी अपनी सभ्यता-संस्कृति है। हालाँकि उनके लेखन में और विचारों में कई जगह विरोधाभास मिलते हैं, लेकिन सत्तावाद और निरंकुशता का विरोध और जनपक्षधरता उनकी विशेषता रही। आह्वान की ओर से उन्हें श्रद्धांजलि!

अमीरी बराका को श्रृद्धांजली

अफ्रीकी-अमेरिकी जनता और दुनियाभर के मेहनतकशों एवं शोषितों-उत्पीड़ितों के मुक्ति संघर्षों को अपनी कलम से आवाज़ देनेवाले लेखक, कलाकार, नाटककार, गीतकार, कवि और प्रखर मार्क्सवादी बुद्धिजीवी तथा कार्यकर्ता अमीरी बराका का पिछले दिनों 9 जनवरी 2014 को निधन हो गया। उनके लिए कला समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन का हथियार थी। वह कुर्सीतोड़ बुद्धिजीवी नहीं थे, बल्कि जनता के संघर्षों के भागीदार थे। अमीरी बराका (ली रॉइ जोन्स) का जन्म 7 अक्टूबर 1934 को अमेरिका के न्यू जर्सी स्थित न्यूयार्क शहर में हुआ। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1960 के दशक में काली जनता के सिविल राइट मूवमेण्ट में शिरकत से की। इस पूरे दौर में वह काले राष्ट्रवाद के हिमायती थे। 1970 के दशक के मध्य में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से उनका मोहभंग हो गया और मार्क्सवाद-लेनिनवाद उनके चिन्तन का आधार बन गया।

चन्द्रशेखर आज़ाद – ग़रीब मेहनतकश जनता की क्रान्ति-चेतना के प्रतीक

आज़ाद का जन्म बेहद गरीबी, अशिक्षा और धार्मिक कट्टरता में हुआ था। भगतसिंह आदि से उम्र में वे केवल एक-दो साल ही बड़े थे। वे पुस्तकों को पढ़कर नहीं, राजनीतिक संघर्ष और जीवन संघर्ष में अपने सक्रिय अनुभवों से सीखते हुए ही उस क्रान्तिकारी दल के नेता बने जिसका लक्ष्य था भारत में धर्मनिरपेक्ष वर्गविहीन समाजवादी प्रजातंत्र की स्थापना करना। आज़ाद भगतसिंह की तरह नास्तिक तो नहीं थे, लेकिन वे शचीन्द्र नाथ सान्याल जैसे वेदान्ती या आध्यात्मिक भी नहीं थे। धर्म को निजी विश्वास की चीज़ मानते थे और सच्चे धर्मनिरपेक्षवादी की तरह उनका यहा पक्का विश्वास था कि राज्य को पूरी तरह धर्म से अलग किया जाना चाहिए।

एरिक हॉब्सबॉमः एक हिस्टोरियोग्राफिकल श्रद्धांजलि

हॉब्सबॉम एक जटिल व्यक्तित्व थे। बौद्धिक ईमानदारी और विपर्यय के दौर में जीने के चलते पैदा होने वाले निराशावाद के द्वन्द्व के कारण यह जटिलता और भी बढ़ जाती है। लेकिन निश्चित तौर पर वह उन भूतपूर्व मार्क्सवादियों से लाख गुना बेहतर बुद्धिजीवी और इंसान थे, जो पूरी तरह से पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की गोद में बैठ गये थे और द्वन्द्वमुक्त हो गये थे; न ही हॉब्सबॉम ने कभी मार्क्सवाद में सोचे-समझे तौर पर कोई विकृति पैदा करने की कोशिश की, हालाँकि उनकी समझ पर बहस हो सकती है; हॉब्सबॉम ने कभी मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ के प्रति कभी कोई असम्मान या गाली-गलौच जैसी निकृष्ट हरकत नहीं की, जैसा कि आजकल के कई राजनीतिक नौदौलतिये कर रहे हैं, जो कि अपने आपको मार्क्सवादी भी कहते हैं; हॉब्सबॉम जीवनपर्यन्त बोल्शेविक क्रान्ति के एजेण्डे से आत्मिक तौर पर जुड़े रहे और लगातार आशाओं के उद्गमों की तलाश करते रहे। लेकिन अनिरन्तर और असंगतिपूर्ण मार्क्सवादी अप्रोच और पद्धति के कारण वह अक्सर अपनी इस तलाश में नाकाम रहे।