दुनिया के सबसे बड़े और महँगे पूँजीवादी जनतन्त्र की तस्वीर!
अजय
पिछले दिनों देश की सर्वोच्च न्यायपालिका ने सुप्रीम कोर्ट की खण्डपीठ ने लालबत्ती की गाड़ियों के दुरुपयोग को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए केन्द्र और राज्य सरकारों व केन्द्र शासित प्रदेशों से “अतिविशिष्ट” पृष्ठभूमि वाले लोगों सहित विभिन्न श्रेणी के लोगों को मुहैया कराई जा रही सुरक्षा पर ख़र्च का विवरण माँगा है। लेकिन जहाँ एक ओर सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला पूँजीवादी लोकतंत्र में कुछ सीमित जवाबदेही की बात करता है वहीं दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट अपने वर्गीय चरित्र के अनुरूप राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और अन्य संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों को अतिविशिष्ट सूची में डाल कर, उनके ऊपर सुरक्षा के ख़र्चे को किसी भी जवाबदेही से परे रख देता हैं। वैसे फैसले की सुनवाई के समय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर आम लोगों के लिए सड़कें असुरिक्षत हैं तो राज्य के सचिव के लिए भी असुरक्षित होनी चाहिए। साफ है कि सुप्रीम कोर्ट के ये फैसले जनता की सुरक्षा को लेकर कम और पूँजीवादी लोकतंत्र की सुरक्षा को लेकर ज़्यादा हैं क्योंकि आज जब धनिकों के इस “लोकतंत्र” की कलई जनता के सामने खुल रही है, रोज़-ब-रोज़ घपलों-घोटालों से लेकर महँगाई, बेरोज़गारी के बुलडोज़र जनता की छाती पर चल रह हैं, तो ऐसे संकट के समय में न्यायपालिका हमेशा लुटेरी व्यवस्था के एक कुशल रेफरी की भूमिका में कुछ उपदेश देती है, खेल के नियमों को कुछ सख़्त करने की कवायद करती है, कुछ बेईमान खिलाड़ियों को खेल से बाहर करती है जिसका कुल मकसद होता है कि देश की जनता को हुक्मरानों की इस लूट-खसोट और मुनाफा निचोड़ने की व्यवस्था के भ्रम से बाहर न निकलने दिया जाए। खै़र, इस चर्चा को यहीं विराम लगाते हैं और देखते हैं आखिर जनता के “जनप्रतिनिधियों” की भारी-भरकम सुरक्षा का बोझ कौन उठाता है? और देश के “जनसेवक” अपने ही जन से इतने क्यों भयभीत हैं?
“दुनिया के सबसे बड़ा जनतन्त्र” की सुरक्षा का भारी बोझ जनता पर पड़ता है। इसका छोटा-सा उदाहरण मन्त्रियों की सुरक्षा के बेहिसाब ख़र्च की राशि से देखा जा सकता हैं जो अनुमानतः 130 करोड़ सालाना बैठती है जिसमें जे़ड प्लस श्रेणी की सुरक्षा में 36, जे़ड श्रेणी की सुरक्षा में 22, वाई श्रेणी की सुरक्षा में 11 और एक्स श्रेणी की सुरक्षा में दो सुरक्षाकर्मी लगाये जाते हैं; सुरक्षा के इस भारी तामझाम के चलते भी गाड़ियों और पेट्रोल का ख़र्च काफ़ी बढ़ जाता हैं। केन्द्र और राज्यों के मन्त्री प्रायः 50-50 कारों तक के काफिले के साथ सफ़र करते हुए देखे जा सकते हैं। वहीं जयललिता सरीखे नेता तो सौ कारों के काफिले के साथ चलते हैं। आज सड़कों पर दौड़ने वाली कारों में 33 प्रतिशत सरकारी सम्पति हैं जो आम लोगों की गाढ़ी कमाई से धुँआ उड़ाती हैं। वैसे भी पिछले साल सभी राजनीतिक दलों के दो सौ से ज्यादा सांसदों ने बाकायदा हस्ताक्षर अभियान चला कर लालबत्ती वाली गाड़ी की माँग की। साफ है कि कारों का ये काफिला व सुरक्षा-कवच जनता में भय पैदा करने के साथ-साथ उनको राजाओं-महाराजाओं के जीवन का अहसास भी देता है।
वैसे एक गै़र-सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक “अतिविशिष्ट” तीस फीसदी लोग ऐसे हैं जिन्हें इस स्तर की सुरक्षा की कोई ज़रूरत नहीं। वहीं लगभग पचास फीसदी “अतिविशिष्ट” लोग ऐसे हैं जिन्हें हल्की सुरक्षा पर्याप्त होगी। अभी हाल में जिस चर्चित हेलिकॉप्टर घोटाले की बात हो रही है वे हेलिकॉप्टर भी अतिविशिष्ट लोगों के लिए मँगाये जा रहे थे जिसकी कीमत 3600 करोड़ थी। अगर जनता और “जनसेवकों” की सुरक्षा की बात करें तो जहाँ 761 आम नागरिकों पर एक पुलिसकर्मी तैनात हैं वहीं 14,842 “खास” आदमियों की हिफाज़त के लिए 47,557 पुलिसकर्मी तैनात हैं यानी एक “खास” आदमी के लिए तीन पुलिस वाले। और मजेदार बात यह है कि ये सारी सरकारी ऐयाशी सिर्फ नेताओं-नौकरशाहों तक सीमित नहीं बल्कि उनकी बीवियों से लेकर बच्चों तक को महँगे स्कूलों में लाने-ले जाने से लेकर शॅपिंग कराने तक है।
वैसे सोचने वाली बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने जहाँ इन “अतिविशिष्ट” लोगों की सुरक्षा के ख़र्च का हिसाब मुहैया करने की बात कही है वहीं उसने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और संवैधानिक पदाधिकारियों को क्यों छोड़ दिया? साफ़ है कि सुप्रीम कोर्ट की मंशा “टिप ऑफ दि आइस बर्ग” को दिखाने तक है यानी हिमखण्ड की चोटी दिखाकर हिमखंड को छुपाना। क्योंकि यदि हम राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और संसद के बेहिसाब ख़र्च के आँकड़े देखते हैं तब हमें इस धनतंत्र का बोझ जनता की छाती पर पहाड़ के सामान दिखता है। सबसे पहले हम 340 भव्य कक्षों वाले और कई एकड़ के बागों-पार्कों वाले राष्ट्रपति भवन की चर्चा करते हैं जिसके रखरखाव पर सालाना करोड़ों रुपये ख़र्च होते हैं। 2007 में प्राप्त जानकारी के अनुसार राष्ट्रपति भवन का पाँच साल के बिजली का बिल साढ़े 16 करोड़ था। भारत के ख़र्चीले एवं विलासी जनतंत्र और औपनिवेशिक विरासत के प्रति लगाव का एक जीवन्त प्रतीक चिह्न है राष्ट्रपति भवन, जो कभी वायसराय का आवास स्थल हुआ करता था। इसके बाद प्रधानमंत्री कार्यालय पर नज़र डालें तो यहाँ का सालाना ख़र्च 21 करोड़ बैठता है और उनके स्पेशल प्रोटेक्टशन ग्रुप के कमाण्डो द्वारा सुरक्षा व्यय करीब 270 करोड़ रुपये सालाना है। वहीं 2008-09 के दौरान केन्द्रीय मंत्रालय का कुल खर्च करीब 69 खरब रुपये आँका गया है। इसका एक कारण यह भी है कि मनमोहन सिंह 50 कैबिनेट मंत्रालय सहित कुल 104 मंत्रलयों का भारी भरकम काफिला चलाते हैं जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका कुल 15 मन्त्रालयों से अपना वैश्विक साम्राज्य सम्भालता है। ज़ाहिर है, हम अमेरिकी मन्त्रालय को आदर्श नहीं बता रहे हैं, बस भारतीय पूँजीवाद के अत्यधिक परजीवी चरित्र की ओर इशारा कर रहे हैं।
इसके बाद लोकतान्त्रिक राजनीति का मन्दिर कही जाने वाली संसद (जहाँ असल में बहसबाज़ी, उछलकूद, नारेबाज़ी और सोने-ऊँघने से अधिक कुछ नहीं होता) की फिजूलख़र्ची पर आते हैं जिसकी एक घण्टे की कार्यवाही पर 20 लाख रुपये ख़र्च होते हैं। संसद की कैण्टीन इतनी सब्सिडाइज़्ड होती हैं कि लगभग 10 प्रतिशत मूल्य का ही भुगतान करना पड़ता है। वहीं अगर हम संसद सदस्यों के वेतन-भत्तों की पाँच साल के व्यय देखें तो ये 10 अरब के करीब बैठता है।
साफ तौर पर ये चन्द आँकड़े दुनिया के सबसे बड़े और महँगे “जनतंत्र” की असलियत को बताते हैं ऐसे में हम प्रसंगवश गांधी जी का जिक्र करना चाहेंगें जिसमें गांधी जी ने 2 मार्च 1930 को तत्कालीन अंग्रेज वायसराय को लिखे गये अपने लम्बे पत्र में ब्रिटिश शासन को सबसे मँहगी व्यवस्था बताते हुए उसे जनविरोधी और अन्यायी करार दिया था। उन्होंने लिखा था:”जिस अन्याय का उल्लेख किया गया है, वह उस विदेशी शासन को चलाने के लिए किया जाता है, जो स्पष्टतः संसार का सबसे महँगा शासन है। अपने वेतन को ही लीजिए। यह प्रतिमाह 21,000 रुपये से अधिक पड़ता है, भत्ते आदि अलग से। आपको 700 रुपये प्रतिदिन से अधिक मिलता है, जबकि भारत में प्रतिव्यक्ति दैनिक औसत आमदनी दो आने है। इस प्रकार आप भारत की औसत आमदनी से 5 हज़ार गुने से भी अधिक ले रहे हैं। वायसराय के बारे में जो सच है, वह सारे आम शासन के बारे में है”।
गाँधी द्वारा उठाये गये इस सवाल की कसौटी पर जब हम आज के भारत की संसदीय शासन प्रणाली को कसते हैं तो पाते हैं कि ये औपनिवेशिक शासन से भी कई गुनी अधिक महँगी है। यह बात दीगर है कि जिस शासन-व्यवस्था के गाँधी पैरोकार थे, आज की सड़ी-गली व्यवस्था उसी की तार्किक परिणति है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जनहित याचिका के फैसले के बाद भी हमें समझने की ज़रूरत है कि पूँजीवादी संसदीय जनवाद अपनी इस ख़र्चीली धोखाधड़ी और लूटतन्त्र की प्रणाली में बदलाव नहीं लाने वाला है। असल में भारतीय राज्य व्यापक मेहनतकश जनता का राज्य नहीं बल्कि मुट्ठी भर पूँजीपतियों की तानाशाही वाला राज्य है। इसे स्पष्ट करने के लिए आँकड़ों का अम्बार लगाने की ज़रूरत नहीं है कि मौजूदा पूँजीवादी जनतन्त्र में जन तो कहीं नहीं है, बस एक बेहद ख़र्चीला तन्त्र और ढेर सारे तन्त्र-मन्त्र हैं! आम जनता के हिस्से में इसका ख़र्च उठाने के अलावा ग़रीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी, अशिक्षा और कुपोषण ही आते हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-जून 2013
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