एम.सी.डी.- चुनाव जनता के पास चुनने के लिए क्या है?
‘‘दबंग’’ से बदरंग होते मतदाता
अजय स्वामी
पूँजीवादी लोकतंत्र में चुनाव को पर्व कहा जाता है और हर धार्मिक पर्व की तरह इसमें भी पैसों के खुले तमाशे से लेकर बाज़ारू कम्पनियों की तरह दिये जाने वाले भ्रामक ऑफरों की भरमार रहती है। यही तमाशा दिल्ली नगर निगम चुनाव में देखा जा सकता था जिसमें एक तरफ तो चुनावी पार्टियाँ टिकट बँटवारे से लेकर अन्तिम दिन के प्रचार तक पैसा पानी की तरह बहा रही थीं तो दूसरी तरफ लम्बे-चौड़े घोषणापत्र और कभी न पूरे होने वाले लोक-लुभावन नारों के साथ जनता को भरमा रही है। वहीं राज्य चुनाव आयोग ने एक कुशल रेफरी की भूमिका अदा करते हुए आदर्श आचार संहिता बनाई थी। लेकिन चुनावी खेल के खिलाड़ियों ने सारे नियम-कानूनों की जमकर धज्जियाँ उड़ाईं और आचार संहिता का अचार डाल दिया! लेकिन इस सारे विद्रूप प्रहसन के बावजूद चुनाव आयोग जनता से वोट की अपील करते हुए कह रहा था कि ‘दबंग बनें’, ‘वोट करें-पार्षद चुनें-विकास बुनें’, ‘चुनाव का निशान लगा डाला तो लाइफ़ झींगालाला’, इत्यादि। लेकिन आँकड़े साफ बता रहे हैं जनता का इस ‘लोकतंत्र’ के पर्व से विश्वास उठ रहा है। अगर एम.सी.डी. चुनाव-2007 की बात की जाए तो सिर्फ 42 प्रतिशत ही मतदान हुआ। इस बार मतदान में कुछ बढ़ोत्तरी हुई है। इसका कारण हाल के महीनों में एक टटपुँजिया सुधारवाद की लहर का चलना है, जिसके पैग़म्बर अण्णा हज़ारे, रामदेव और केजरीवाल जैसे लोग बने हुए हैं। इन नौटंकीबाज़ों अपने सुखि़र्यों में आने के बाद से हर चुनाव में तथाकथित ‘ईमानदार’ उम्मीदवारों को वोट देने की अपील की! जनता को कोई ईमानदार तो मिला नहीं, इसलिए ग़रीब जनता के मतदान प्रतिशत में ज़्यादा बढ़ोत्तरी नहीं हुई। लेकिन जैसा कि हमेशा होता है पढ़ा-लिखा लेकिन राजनीतिक रूप से अनपढ़, भुच्चड़ और मूर्ख मध्यम वर्ग इन पाखण्डियों के अपीलों के प्रभाव में आया। इसके मौज-मस्ती में डूबे युवाओं को अचानक राष्ट्र के प्रति उत्तरदायित्व को बोधिज्ञान प्राप्त हो गया और वह चुनाव आयोग के वोट डालकर ‘दबंग’ बनने के नारे पर अमल करने के लिए वोटिंग बूथ तक पहुँच गया! मतदान प्रतिशत में हुई बढ़ोत्तरी का एक प्रमुख कारण यह नयी मतदाता आबादी भी थी जो मुख्य तौर पर राजनीतिक रूप से अचेत मध्यम वर्ग से आयी। लेकिन अगर चुनाव आयोग की भाषा में एक बार आम जनता दिल्ली का ‘दबंग बनने’ (यानी वोट डालने) की कोशिश भी करें तो उसके सामने विकल्प क्या है?
मौजूदा निगम चुनाव में उम्मीदवारों को देखकर साफ़ पता चलता है कि वह किसी व्यवसाय में पैसा लगा रहे हैं। वैसे तो असलियत पहले भी यही थी पर इस पर पड़े बचे-खुचे भ्रम के परदे भी हर चुनाव के साथ उतर रहे हैं। इस निगम चुनाव में टिकट बँटवारे के समय जो घमासान मचा उसमें पैसे का बोल-बाला साफ तौर पर नज़र आया। यूँ तो चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च की सीमा 4 लाख रुपये तय की थी लेकिन उम्मीदवारों ने चुनाव प्रचार से पहले ही 40 से 80 लाख रुपये तो टिकट पाने में ही ख़र्च कर दिये! बताने की ज़रूरत नहीं है कि ये तमाम धनपति ‘जन-सेवा’ के लिए यह भारी-भरकम निवेश नहीं कर रहे हैं, बल्कि ‘धन-मेवा’ पाने के लालच में पसीना बहा रहे हैं! जाहिरा तौर पर ये लोग जीतते ही अपनी रकम को दोगुना, तिगुना करने में लगेंगे न कि अपने इलाके के विकास पर ध्यान देंगे जिसका ताज़ा उदाहरण पिछले पाँच साल रहे निगम पार्षदों की सम्पत्ति को देखकर समझा जा सकता है! इसमें भाजपा के 26 पार्षद ऐसे हैं जो लखपति से करोड़पति हो गये! वहीं टिकट बँटवारे में भी करोड़पति उम्मीदवारों को विशेष ‘आरक्षण’ दिया गया। इस चुनाव में भाजपा, कांग्रेस और बसपा के आधे से ज़्यादा उम्मीदवार ऐसे हैं जो करोड़पति होने की योग्यता को पूरा करते हैं। ये पार्टियाँ दावा करती हैं कि ये दिल्ली को अपराध-मुक्त बना देंगी (शायद सभी अपराधियों को सफेदपाश करके!)। लेकिन चुनाव में हिस्सेदारी कर रहे 2200 प्रत्याशी में से 139 के खिलाफ घोषित तौर पर आपराधिक मामले दर्ज़ हैं और ज़्यादातर ये दागी उम्मीदवार बड़ी पार्टियों के ही हैं!
उम्मीदवारों की दबंगई देखने के बाद एक नज़र हम पार्टियों के एजेण्डे और घोषणापत्रों पर भी डालते हैं। एम.सी.डी. में पाँच साल शासन करने वाली भाजपा कांग्रेस के भ्रष्टाचार और महँगाई को मुद्दा बना रही है और साथ में अपने घोषणापत्र में चौथी व पाँचवीं कक्षा के बच्चों के लिए टेबलेट पीसी देने से लेकर साफ-सुथरी दिल्ली बनाने का शिगूफा छोड़ी रही है। अब यह दीगर बात है कि अगर निगम के स्कूलों में पढ़ाने के लिए शिक्षक और ब्लैकबोर्ड तक न हों तो ये बच्चे टैबलेट पीसी का इस्तेमाल पूँजीवादी संस्कृति के घटिया, अश्लील और वाहियात उत्पादों का उपभोग करने में ही करेंगे! वहीं कांग्रेस के घोषणापत्र पर नज़र डालें तो उसका दावा है कि वह अवैध कालोनियों को नियमित करने से लेकर स्कूलों व डिस्पेंसरियों का कायापलट कर देगी। निगम चुनाव में ‘तू नंगा-तू नंगा’ का खेल कोई नया नहीं हैं। अन्य पार्टियों के एजेण्डे के नाम पर विरोध के जुबानी जमाख़र्च से ज़्यादा कुछ नहीं है। वैसे भी निगम चुनावों में पार्टियाँ एजेण्डे से ज़्यादा धर्म, जाति, भाषा व क्षेत्र को तरजीह देती हैं। यही वोट बैंक की पतित राजनीति इनका आधार है।
लम्बे-चौड़े दावे और घोषणा के बाद आइये दिल्ली नगर निगम की ज़मीनी हक़ीकत से रूबरू होते हैं। यूँ तो एम.सी.डी. को बने 55 साल बीते चुके हैं लेकिन इतने सालों बाद भी एम.सी.डी. द्वारा किये गये ज़्यादातर वायदे अधूरे ही हैं। एम.सी.डी. की मुख्य जिम्मेदारी है-सड़कों का रखरखाव, पार्क का निर्माण व रखरखाव, हर वार्ड में एक सामुदायिक भवन बनवाना, स्ट्रीट लाईट का पर्याप्त इन्तज़ाम करना, साफ-सफाई, एम.सी.डी. स्कूलों और डिस्पेंसरी में उचित व्यवस्था। सामान्यतः यही देखने में आता है कि दिल्ली के जिन इलाकों में अमीरज़ादे रहते है वहाँ तो ये बुनियादी सुविधााएँ बेहतर हैं। लेकिन जिन कॉलोनियों में आम मेहनतकश आबादी रहती है वहाँ ऊबड़-खाबड़ सड़कें हैं या सड़कें हैं ही नहीं। बजबजाती नालियाँ और नुक्कड़ों पर कूड़ों का ढेर जमा रहता हैं, जिसके चलते बच्चे आये दिन मलेरिया, डेंगू और हैज़ा जैसी बीमारियों के शिकार बनते हैं। वहीं भाजपा जिन निगम स्कूलों पर अपनी पीठ थपथपाती हैं उनकी दशा ये हैं कि 1740 स्कूल में से सिर्फ 1150 स्कूल ही पक्के हैं, बाकी या तो टिन के शेड में या फिर टेण्ट में चलते हैं। लगभग 1 लाख बच्चों को स्कूल में पानी नहीं मिलता। 58 स्कूलों में अब तक पानी का कनेक्शन भी नहीं है। करीब 70 हज़ार बच्चे ज़मीन पर बैठकर पढ़ते हैं, क्योंकि स्कूलों में बैंच ही नहीं हैं। साफ-सफाई का ये आलम है कि 37 प्रतिशत स्कूलों में टॉयलेट गन्दे रहते हैं। 61 प्रतिशत स्कूलों के टॉयलेट महीने में दो-तीन बार ही साफ़ होते हैं। 58 स्कूल ऐसे हैं जिन्हें एम.सी.डी. ने बच्चों की कमी की वजह से बन्द कर दिया। बन्द एम.सी.डी. स्कूल में जिम और स्विमिंग पूल खोलने की तैयारी की जा रही है। साफ तौर पर हालात बता रहे हैं कि स्कूलों के बच्चों को टैबलेट पीसी से कहीं ज़्यादा बेहतर स्कूली व्यवस्था की ज़रूरत है।
अगर निगम की डिस्पेंसरी की बात की जाए तो उसके हालात और भी बदतर हैं। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता हैं कि एम.सी.डी. के 272 वार्ड में केवल 107 डिस्पेंसरी और पांच पंचकर्म अस्पताल हैं जिनमें ज़्यादातर दवाइयाँ बाहरी दुकानों से ही ख़रीदनी पड़ती हैं। एक सर्वे के अनुसार पिछले तीन सालों में 10 लाख लोगों ने इन डिस्पेंसरियों से सेवा लेना बन्द कर दिया है। दूसरी तरफ भाजपा कांग्रेस के भ्रष्टाचार की तो खूब चर्चा कर रही है लेकिन निगम में अवैध निर्माण के भ्रष्टाचार में पकड़े 6 पार्षदों की कोई चर्चा नहीं करती जबकि ललिता पार्क की घटना साफतौर पर एमसीडी में व्याप्त भ्रष्टाचार का प्रातिनिधिक उदाहरण हैं। वैसे ये तस्वीर तो निगम बजट से ही साफ हो जाती है कि दिल्ली की आम जनता को क्या मिलेगा और अमीरज़ादों को क्या मिलेगा! दिल्ली की 1650 अवैध कालोनियों के लिए सिर्फ 100 करोड़ रुपये दिये जाते हैं वही एन.डी.एम.सी. के लिए 2289-64 करोड़ का बजट बनाया जाता है। लोगों को अपने ‘जन सेवकों’ से पूछना चाहिए कि विकास कार्य में दिखाया गया करोड़ों रुपया किसके विकास में लगा दिया जाता है? क्योंकि ये पैसे जो विकास के नाम पर आते हैं, वो हमारे ही पैसे हैं जो देश के आम लोग रोज़मर्रा की ज़रूरतों का सामान खरीदते हुए टैक्स के रूप में देते हैं, और सरकारी ख़जाने का 97 प्रतिशत इसी आम जनता की मेहनत की गाढ़ी कमाई से निकाले जाते हैं ताकि सरकार हमें शिक्षा, स्वास्थ्य, रिहायश और रोज़गार की सुविधाएँ दे। साफ है, केन्द्र सरकार और राज्य सरकार से लेकर नगर निगम तक जनता का यह पैसा पूँजीपति, ठेकेदार, मालिक, नेता और नौकरशाह गड़प जाते हैं और डकार तक नहीं लेते।
विकल्पहीनता के इस चुनाव में मतदाता के माथे पर ‘दबंग’ का लेबल लगाकर बाकी पाँच साल उसे बदरंग ही किया जायेगा! वैसे पूर्व चुनाव आयुक्त गोपालस्वामी ने ‘धनबल और बाहुबल को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए बड़ी बाधा’ बताया था और कहा था कि ये बाधा दुनिया के सबसे बड़े ‘लोकतंत्र’ के लिए अच्छा संकेत नही है। जाहिरा तौर पर पूर्व चुनाव आयुक्त लुटेरी व्यवस्था के सजग पहरेदार की नज़र से देख रहे थे। लेकिन उनकी बात में ये सच्चाई भी है कि विश्व के सबसे बड़े ‘लोकतंत्र’ की सेहत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है। आज लोकसभा और विधानसभा चुनावों से लेकर पंचायत और निगम चुनावों तक सबकुछ पूँजी का खेल है और इन चुनावों में जीते कोई भी, हारती जनता ही है। साफ है कि सरकार पूँजीपतियों की ‘मैनेजिंग कमेटी’ का काम करती है। यानी उनके झण्डे, नारे और पार्टियों कोई भी हो लेकिन सबकी नीति एक है जनता को लूटो और पूँजीपतियों पर लुटाओ!
ये पूरी तस्वीर बता रही हैं जब तक कोई क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा नहीं किया जाता तब तक चुनाव में चुनने के लिए हमारे सामने नागनाथ, साँपनाथ या बिच्छुनाथ के अलावा कुछ भी नहीं होगा। हमें बस चुनना यह होगा कि हम किसके हाथों मरना पसन्द करेंगे। इसलिए बेहतर यह होगा कि हम इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के विकल्प के बारे में सोचें और एक विकल्प का खाका तैयार करें।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2012
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