‘नकद सब्सिडी योजना’ -एक गरीब विरोधी योजना
यह योजना महज चुनावी कार्यक्रम नहीं बल्कि व्यापारियों का मुनाफा और बढ़ाने की योजना है
योगेश
केन्द्र में रिकॉर्ड-तोड़ घपलों-घोटालों और कई तरह के भ्रष्टाचार से घिरी कांग्रेस-नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार भी 2014 के चुनावों से पहले अपने दाग-धब्बों को नयी-नयी लोकलुभावन योजनाओं से छुपाने के प्रयास में लग गई है। आपको याद होगा कि पिछले साल अगस्त में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी कि हर गरीब आदमी तक कुछ फ्री टॉक-टाइम के साथ एक मोबाइल फोन पहुँचाया जायेगा। इसी क्रम में 15 दिसम्बर, 2012 से दिल्ली में और 1 जनवरी, 2013 से देश के 51 जिलों में ‘नकद सब्सिडी योजना’ को लागू किया गया। केन्द्र सरकार ने घोषणा की कि सार्वजनिक सुविधाओं में मिलने वाली सब्सिडी को अब से आधार कार्ड के माध्यम से बैंकों में नकद हस्तान्तरण किया जायेगा। खाद्य सुरक्षा हेतु प्रत्यक्ष नकदी हस्तान्तरण योजना को केन्द्र सरकार द्वारा क्रान्तिकारी योजना के रूप में प्रचारित करने के पीछे तर्क है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) में बहुत ही घपला होता है; पर इस योजना के तहत अब सीधे सब्सिडी का पैसा प्रत्येक व्यक्ति के खाते में आने से सरकारी सेवाओं में दलाली, भ्रष्टाचार, फर्जी निकासी, बर्बादी और चोरी से मुक्ति मिलेगी। इस परियोजना के अन्तर्गत वृद्धावस्था और विधवा पेंशनों, मातृत्व लाभ और छात्रवृति जैसी 34 योजनाएँ आती हैं; यह खाद्य, स्वास्थ्य सुविधाओं और ईंधन तथा खाद्य सब्सिडयों के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) जैसी तमाम योजनाओं को आधार-आधारित नकद हस्तान्तरण (आ.आ.न.ह.) के माध्यम से लोगों को दिया जायेगा। पिछले साल 15 दिसम्बर को दिल्ली की कांग्रेस सरकार ने अन्नश्री योजना की शुरुआत करते हुए घोषणा की कि खाद्य सुरक्षा हेतु प्रत्यक्ष नकदी अन्तरण योजना के अर्न्तगत दिल्ली के पन्द्रह लाख परिवारों को खाद्य सामग्री खरीदने के लिए प्रति माह 600 रु. दिए जायेंगे। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने बड़ी बेशर्मी के साथ कहा कि पाँच लोगों के परिवार की खाद्य सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करने के 600 रु. मासिक काफी हैं। यानी प्रति व्यक्ति-प्रति दिन के हिसाब से 4 रु.; अब 4 रु. में कोई व्यक्ति क्या खाना खायेगा यह तो खुद शीला दीक्षित ही बता सकती हैं। असलियत यह है कि महज जिन्दा रहने के लिए एक परिवार को खाद्य पदार्थ खरीदने के लिए नकद दी जा रही राशि से पाँच गुने की ज़रूरत है। ग़ौरतलब है कि दिल्ली में इस साल के अन्त से पहले विधानसभा चुनाव हैं और 2014 में लोकसभा के चुनाव हैं। चुनावों से पहले इस योजना की घोषणा करना वोट बैंक बढ़ाने की कोशिश तो है ही; साथ ही इस योजना का ख़तरनाक पहलू यह भी है कि आने वाले समय में इस योजना के माध्यम से सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) के रहे-सहे ढाँचे को भी निर्णायक तरीक़े से ध्वस्त करके खाद्यान्न क्षेत्र को पूरी तरह बाज़ार की शक्तियों के हवाले कर दिया जायेगा; जिससे साफ तौर पर इस क्षेत्र के व्यापारियों के मुनाफ़े में कई गुना की बढ़ोतरी होगी। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुर्दशा के विकल्प में इस योजना की शुरुआत करते हुए कहा गया कि इस योजना के तहत लाभार्थियों को अपनी ज़रूरत के मुताबिक खाद्य पदार्थ और अन्य आवश्यक वस्तुएँ खरीदने का विकल्प मिल गया है। जिस योजना को सरकार ग़रीब लोगों के लिए बढ़िया बता रही है; उस पर लोगों की राय अलग है। एक सर्वेक्षण से पता चला कि 90 फीसदी से ज्यादा ग़रीब लोग नकद हस्तान्तरण के मुकाबले खाद्य पदार्थ सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) से लेना पसन्द करते हैं। इस योजना के तहत बैंकिग स्टॉफ (कॉरेस्पोंडेंट्स) को पूरी तरह ईमानदार माना गया है; जबकि वे ग़रीबों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त और उनके विरोधी हो सकते हैं। इस योजना को देश के जिन जिलों में प्रयोग के तौर पर लागू किया गया वहाँ के अनुभव नकारात्मक ही हैं। झारखण्ड के रामगढ़ जिले में मनरेगा के अर्न्तगत भुगतान आ.आ.न.ह. के अधीन किए गये थे। इसके भयानक परिणाम सामने आये, जिला प्रशासन काम के बोझ को सम्भाल ही नहीं सका। आबादी का वो अनुपात जिससे यूआईडी संख्याएँ और कल्याणकारी योजनाओं के विवरण मेल खाते, दो फीसदी से भी कम था। इलाके के बैंक कर्मचारी के अनुसार मनरेगा के आधे मजदूरों की उंगलियों के निशान मेल नहीं खाते हैं। रामगढ़ के एक ब्लॉक में 8,231 “सक्रिय” कार्ड धारकों में से केवल 162 को ही आधार कार्ड के जरिये भुगतान हो पाया। झारखण्ड में इस योजना के असफल होने का यह अर्थ नहीं कि यहाँ की नौकरशाही अक्षम है; विफलता का एक अन्य उदाहरण राजस्थान के अलवर जिले के एक सम्पन्न गाँव में सामने आया। एक साल पहले सरकार ने कोटकासिम गाँव के 25,843 राशनकार्ड धारकों को 15.25 रु. लीटर की दर से मिट्टी का तेल बेचना बन्द कर दिया और इसकी जगह उनसे 49.10 प्रति लीटर की बाज़ार दर से पैसे वसूल किए। इस अन्तर को प्रत्येक तीने महीने में उनके खाते में जमा किया जाना था। लेकिन उस क्षेत्र में बैंक की शाखा औसतन तीन किलोमीटर दूर है और कुछेक के लिए तो यह दूरी 10 किलोमीटर तक है। इसलिए बैंक कुल परिवारों का केवल 52 फीसदी ही खाता खुलवा पाए; बाकी तो इस योजना से ही बाहर हो गए। कुछ परिवारों को मूल्य में अन्तर की पहली किस्त मिली और उसके बाद कुछ नहीं मिला और ज़्यादातर को तो पूरे साल कुछ नहीं मिला। इस बीच मिट्टी के तेल की बिक्री 84,000 लीटर से घटकर सिर्फ 5000 लीटर रह गई यानी 94 फीसदी कम हो गई। लोगों को सूखी टहनियाँ, कपास और सरसों के डंठलों या खरपतवार को जला कर काम चलाना पड़ा। ब्रिटेन, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, चीन, कनाडा और जर्मनी में भी इस तरह की योजनाओं के परिणाम ख़राब आने के बाद उसे रोक दिया गया। आधार आधारित नकद हस्तान्तरण की योजना न केवल बेहद ख़र्चीली है (अनुमानतः 45,000 -1,50,000 करोड़ रुपये) बल्कि वास्तव में इसके अन्तर्गत पात्र लाभार्थियों को बाहर रखने और अपात्रें को गलत ढंग से शामिल किए जाने की पूरी सम्भावना है। सरकार ने ग़रीब परिवारों की सूची बनाने का काम कुछ एन.जी.ओ. को सौंपा है। दिल्ली में यह काम जी.आर.सी. के माध्यम से अलग-अलग एन.जी.ओ. को दिया गया।
यहीं दिल्ली के कच्ची खजूरी इलाके में अन्नश्री योजना के तहत कई ऐसे लोग शामिल किए गये हैं जिनका दिल्ली में अपना घर है और वे किसी अच्छी नौकरी में लगे हुए हैं। जबकि इस इलाके के सैकड़ों मज़दूरों के परिवारों का इस योजना की सूची में नाम लिखा ही नहीं गया। इस योजना के लागू होने के बाद लोगों को सबसे बड़ा डर है कि महँगाई में क्या होगा ? सरकार कह रही है कि पैसों की राशि महँगाई से जोड़ी जायेगी। लेकिन असलियत यह होगी कि सरकार तभी पैसा बढ़ायेगी जब चुनाव नज़दीक होंगे-इसके अलावा नहीं बढ़ायेगी; जबकि बाज़ार में हर रोज खाद्य सामग्री की कीमतें बढ़ती ही जायेंगी। नकद हस्तान्तरण से परिचलन में भारी मात्रा में पैसा आएगा जिससे मुद्रास्फीति बढ़ेगी और लोगों की क्रय शक्ति कम हो जायेगी। इस योजना का विपक्ष में बैठी भाजपा व अन्य कई चुनावी पार्टियों ने दिखावटी विरोध किया है। स्वयं पूँजीपतियों की सेवा करने वाली ये पार्टियाँ सिर्फ इतना कह रही हैं कि इस योजना को चुनावों के कारण बिना तैयारी के घोषित किया गया। यानी इनके मुताबिक अच्छी तैयारी के साथ इस ग़रीब-विरोधी योजना को लागू किया जाये तो ज़्यादा अच्छा रहेगा। अब इस सच्चाई को ग़रीब लोग भी समझने लगे हैं कि सरकार किसी भी चुनावी पार्टी की बने सबको अपने-अपने तरीके से पूँजीपतियों की सेवा के लिए योजनाएँ बनानी है।
यह बात सही है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) में कई कमियाँ हैं। सबसे बड़ी कमी है ग़रीबी रेखा का निर्धारण ही सही तरीके से नहीं किया गया है। मौजूदा ग़रीबी रेखा हास्यास्पद है। उसे भुखमरी रेखा कहना अधिक उचित होगा। पौष्टिक भोजन के अधिकार को जीने के मूलभूत संवैधानिक अधिकार का दर्जा दिया जाना चाहिए तथा इसके लिए प्रभावी क़ानून बनाये जाने चाहिए। इसके लिए ज़रूरी है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली का ही पुनर्गठन किया जाए और अमल की निगरानी के लिए जिला स्तर तक प्रशासनिक अधिकारी के साथ-साथ लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गयी नागरिक समितियाँ हों। पर किसी पूँजीवादी व्यवस्था से ऐसी उम्मीद कम ही है; भारत समेत पूरी दुनिया जिस आर्थिक मंदी से गुज़र रही है ऐसे समय में ऐसी नीतियों का बनना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस देश के आम लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा को सही मायने में लागू करवाने के लिए छात्र-नौजवानों और नागरिकों का दायित्व है कि ऐसी योजनाओं की असलियत को उजागर करते हुए देश की जनता को शासक वर्ग की इस धूर्ततापूर्ण चाल के बारे में आगाह करें जिससे कि एक कारगर प्रतिरोध खड़ा किया जा सके।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-जून 2013
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