निश्चित रूप से इन आन्दोलनों के जुझारूपन को सलाम किया जाना चाहिए और उन संघर्षरत छात्रों के साथ अपनी एकजुटता का इज़हार करना चाहिए और उनकी स्पिरिट से सीखा जाना चाहिए। लेकिन साथ ही इन आन्दोलन की सीमाओं को भी समझना चाहिए। ये आन्दोलन अभी पश्चिमी पूँजीवाद के वर्चस्व के दायरे को तोड़ने तक नहीं पहुँचे हैं और निकट भविष्य में ये पहुँचने वाले भी नहीं हैं। जल्दी ही इन्हें इस पूँजीवाद के द्वारा सहयोजित कर लिया जाना है। इसका कारण अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर इन उन्नत पूँजीवादी देशों का राजनीतिक प्रभुत्व और आर्थिक शक्तिमत्ता है। आज भी अगर हम उम्मीद के साथ विश्व में कहीं देख सकते हैं तो उन देशों की तरफ देख सकते हैं, जहाँ साम्राज्यवादी और पूँजीवादी लूट और शोषण का दबाव सबसे ज़्यादा है। यानी, तीसरी दुनिया के वे देश जहाँ जनता देशी पूँजीवाद के बर्बरतम और सबसे शोषणकारी शासन तले दबी हुई है और जहाँ इन देशों का पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवादियों के साथ मिलकर अपने-अपने देश की जनता को तबाहो-बरबाद कर रहा है। विश्व पूँजीवाद की कमज़ोर कड़ी अब भी एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के अपेक्षतया पिछड़े पूँजीवादी देश हैं। यहाँ सतह पर दिखती ख़ामोशी के नीचे असन्तोष का भयंकर ज्वालामुखी धधक रहा है। क्रान्तिकारी नेतृत्व की अनुपस्थिति में इस असन्तोष का दिशा-निर्देशन नहीं हो पा रहा है। लेकिन यह स्थिति हमेशा बनी रहने वाली नहीं है।