प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह की लफ्फाज़ी
प्रेमप्रकाश
देश के अर्थशास्त्री प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह 27 दिसम्बर 2009 को भुवनेश्वर में ‘भारतीय आर्थिक संघ’ के 92वें सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए ऐसा दावा कर बैठे जिसे सुनकर देश का हर ग़रीब नागरिक दंग रह गया। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में शिक्षण प्राप्त और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में शिक्षण देने वाले डा. सिंह ने कहा कि 1991 में उनके द्वारा नयी आर्थिक नीतियों के श्री गणेश के बाद से देश में ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में कमी आयी है! उन्होंने कहा कि अगर हम आर्थिक सुधारों की रफ़्तार घटायेंगे तो अर्थव्यवस्था उस रफ़्तार से विकास नहीं कर पायेगी कि पर्याप्त रोज़गार पैदा हो सके!
डा. मनमोहन सिंह का यह बयान कि देश में ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में कमी आयी है, का आधार पहले से मज़ाकिया ग़रीबी रेखा मानक को आँकड़ों की बाज़ीगरी से और मज़ाकिया बना देने और फिर उसके आधार पर ग़रीबों की संख्या का आकलन है। स्थापित ग़रीबी रेखा के अनुसार गाँवों में 2400 कैलोरी और शहरों और में 2100 कैलारी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन का उपभोग स्तर किसी व्यक्ति को ग़रीबी रेखा के ऊपर कर देता है। सरकार द्वारा गरीबों के साथ धोखाधड़ी और लूट में आँकड़ों का खेल कोई नयी बात नहीं है लेकिन अब खबर यह भी है कि कैलोरी उपभोग स्तर के उपरोक्त मानक को घटाकर ग्रामीण क्षेत्रों में 1890 और शहरी क्षेत्रों में 1875 कैलोरी प्रति व्यक्ति करने की योजना है। अर्थात, अब कागजी विकास के इस मॉडल में ग़रीबों की घटती संख्या दिखाने के लिए पूँजी के चाकरों को आँकड़ों की बाज़ीगरी करने की भी ज़रूरत नहीं पडे़गी। यहाँ ग़ौर करने वाली बात यह है कि जब 2200/2400 कैलोरी के ग़रीबी रेखा मानक को तय किया गया था तब विशेषज्ञों ने यह माना था कि शिक्षा, चिकित्सा और सस्ते आवास को उपलब्ध कराने का काम राज्य का है। इसलिए इन कारकों को ग़रीबी रेखा की गणना में शामिल नहीं किया गया था। लेकिन नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के साथ ही यह स्पष्ट हो गया है कि राज्य कारपोरेटों की मन्दी को दूर करने का ख़र्च उठाने को तो तैयार है लेकिन ग़रीबों के लिए सस्ती खाद्य सामग्री, आवास, शिक्षा, चिकित्सा का ख़र्च उठाने का बिल्कुल तैयार नहीं है! यही कारण है कि हालिया बजट में 11 लाख करोड़ रुपये में से 5 लाख करोड़ रुपयों का तोहफ़ा विभिन्न प्रकार की छूटों के रूप में कारपोरेट घरानों और उच्चवर्गीय करदाताओं को दिया गया है। आज अगर इन सभी ख़र्चों को ग़रीबी रेखा की गणना में जोड़ा जाय तो वह लगभग साढ़े नौ हज़ार रुपये मासिक बैठेगी। लेकिन आज यह लगभग साढ़े चार सौ रुपये महीना से भी कम है।
सरकार की नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ और उसकी अतिउदारवादी ग़रीबी रेखा!
1991 में लागू हुई जिन आर्थिक नीतियों द्वारा विकास की चकाचैंध की मणि–माला मनमोहन सिंह जी जप रहे हैं उसका मूलमन्त्र था ‘निजीकरण’। अर्थात सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को औने–पौने दामों में पूँजीपतियों के हाथों बेचना जिन्हें जनता के पैसे से खड़ा किया गया था; साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं को निजी हाथों में सौंपकर मुनाफा कमाने के धन्धों में तब्दील करना; और दूसरी तरफ मज़दूरों को प्राप्त थोड़े से श्रम अधिकारों को छीन लेना जो वैसे भी देश में कहीं लागू नहीं होते। इन नीतियों का अर्थ पूँजीपतियों के लिए पूरे आर्थिक और प्रशासनिक ढाँचे को उदार बनाना (उदारीकरण) और मेहनतकशों के रहे–सहे अधिकारों को छीनकर बाज़ार की अन्धी शक्तियों के अधीन कर देना (कठोरीकरण) था! इस उदारीकरण और निजीकरण के लिए तर्क यह दिया गया था कि जब समाज के उच्च वर्ग में समृद्धि और ऐश्वर्य आयेगा तो वह छन–छन कर नीचे तक जाएगा (ट्रिकल डाउन थियरी)। लेकिन नवउदारवादी नीतियों के बीस वर्ष के अनुभवों ने दिखला दिया है कि पूँजीवादी व्यवस्था में अगर ऊपर से ट्रिकल डाउन करके नीचे तक कुछ जाता है तो वह अमीरज़ादों का संकट और मन्दी है, समृद्धि नहीं। समृद्धि तो शिखरों पर ही केन्द्रित होती रहती है, रिस–रिसकर जो नीचे जाता है वह है इस समृद्धि का वज़न, जिसे उठाते–उठाते ग़रीब जनता की कमर टूट जाती है।
सरकार द्वारा बनायी गयी अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट बताती है कि आज देश में 77 फीसदी आबादी यानी करीब 84 करोड़ लोग 20 रुपये या उससे कम की प्रतिदिन की आय पर गुज़र कर रहे हैं। इसमें से 27 करोड़ लोग 11 रुपये प्रतिदिन की आय पर जी रहे हैं। एक स्वास्थ्य संस्था की रिपोर्ट के अनुसार देश में 46 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार है और 55 फीसदी महिलाओं का वजन अस्वस्थ होने की हद तक कम है। देश में 18 करोड़ लोग बेघर है और 18 करोड़ लोग झुग्गियों में रह रहे हैं। इन सब आँकड़ों के बावजूद कोई कहे कि ग़रीबी घट रही है तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि वह हमें मूर्ख बना रहा है। प्रधानमन्त्री महोदय के ग़रीबी कम होने के दावे का आधार ‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण’ के आँकड़े हैं जिसमें ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या महज 28.6 फीसदी दिखायी गयी है। इन आँकड़ों के जरिये शासक वर्गों ने यह यकीन दिलाने की कोशिश की है कि ग़रीबी घट रही है। 1979 में जब योजना आयोग द्वारा ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों की गणना शुरू हुई तब से लगभग 52 फीसदी से घटकर अब यह 28 फीसदी पर आ चुकी है। हर पाँच वर्ष में योजना आयोग के अर्थशास्त्री गरीबों को कम दिखाने के लिए आँकड़ों की पहेली कैसे खेलते हैं, हम इसे क्रमवार स्पष्ट करते हैं।
जब 1973–74 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आँकड़ों को आधार बनाकर ग़रीबी रेखा तय की जा रही थी तो यह माना गया था कि शिक्षा और स्वास्थ्य के खर्चों को ग़रीबी रेखा में नहीं जोड़ा जाएगा क्योंकि इनकी जिम्मेदारी राज्य उठायेगा। लेकिन ऐसा न तो 1974 में था और न आज है। सरकारी अस्पतालों के रूप में उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधा ग़रीबों को स्वास्थ्य लाभ की जगह श्मशान लाभ देने में अधिक सक्षम है। सर्वशिक्षा अभियान और ऐसे तमाम अभियानों द्वारा नि:शुल्क शिक्षा देने की जो बात की जाती है वह न तो आसानी से उपलब्ध है और अगर मिल भी गयी तो उसका मिलना–न–मिलना एक समान है। अर्थात शिक्षा और स्वास्थ्य जिसे ग़रीबी रेखा से अलग रखा गया, न तो उस समय उपलब्ध थी और न आज। ग़रीबी रेखा को इस रूप में परिभाषित किया गया था- शहर में जो परिवार 2100 कैलोरी और गावों में 2400 कैलोरी प्रतिव्यक्ति उपभोग करेगा उसे ग़रीब नहीं माना जाएगा। यह पैमाना हास्यास्पद है क्योंकि इसमें खाना पकाने के लिए ईंधन, रहने के लिए आवास और पहनने के लिए कपड़े के व्यय को नहीं जोड़ा गया है। शिक्षा और स्वास्थ्य को पहले से ही अलग रखा गया है। अर्थात अगर कोई व्यक्ति केवल उपरोक्त कैलोरी मानक के बराबर कच्चा खाद्यान पेट में ठूँस लेता है तो वह गरीब नहीं है! एक हालिया सर्वेक्षण के अनुसार आज ग़रीबों की कुल आय का 75 से 80 फीसदी हिस्सा ईंधन, जूते, रिहायश और कपडे़ पर खर्च होता है खाने के लिए महज 20–25 फीसदी आय ही होती है। इसी से पता चलता है कि यह ग़रीबी रेखा अतार्किक और वास्तविक ग़रीबी को छिपाने के लिए बनायी गयी है। अगर कोई व्यक्ति जी–मर कर केवल पूँजीपतियों के लिए काम करने लायक हो जाय तो वह गरीब नहीं माना जाएगा। यह ग़रीबी रेखा नहीं बल्कि ‘भुखमरी रेखा’ है।
आँकड़ों की इज़्ज़त कैसे लूटें ?
दि मनमोहन–मोण्टेक वे!
ग़रीबी रेखा के नये आँकड़े आज अर्थशास्त्री कैसे तैयार करते है इस पर एक नज़र डालते हैं। इसके लिए अर्थशास्त्री 1973–74 को आधार वर्ष मानते हैं। उस समय के उपभोग की न्यूनतम मात्रा की तुलना उपभोक्ता कीमत सूचकांकों से कर दी जाती हैं, जिसके कारण ग़रीबी रेखा बेहद नीचे आ जाती है। अर्थात 1973–74 में निर्दिष्ट उपभोग स्तर के लिए जिस व्यय की गणना की गयी थी उस व्यय को आज सीधे वस्तुओं के खुदरा मूल्य के अनुसार न निकालकर उसे कीमत सूचकांकों के आधार पर समायोजित कर लिया जाता है। ग़रीबी रेखा का आधार कैलोरी उपभोग माना गया है अत: ग़रीबी रेखा की नये सिरे से गणना करके यह तय करना चाहिए कि गाँवों में 2400 और शहरों में 2100 कैलोरी का उपभोग करने के लिए कितनी औसत पारिवारिक आय होनी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं किया जाता। किया यह जाता है कि 1973–74 के उपभोग मानक और उसके ख़र्च की वर्तमान के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से तुलना करके नयी ग़रीबी रेखा निकाल ली जाती है। ऐसे में साफ़ है कि ग़रीबी रेखा काफ़ी नीचे आएगी। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक ने आज के दौर में 2100/2400 कैलोरी उपभोग के लिए आवश्यक आय निकाली है और साथ ही यह गणना भी की है कि अगर किसी व्यक्ति की मासिक आय 356 रुपये 30 पैसे हो तो वह कितनी कैलोरी का उपभोग कर सकता है। अगर किसी ग्रामीण परिवार की प्रति व्यक्ति आय 356 रुपये 30 पैसे है तो उसका हर सदस्य प्रतिदिन महज 1890 कैलोरी का उपभोग कर पायेगा जो निर्दिष्ट मानक से 500 कैलोरी से भी ज़्यादा कम है। वहीं अगर किसी शहरी परिवार की प्रति व्यक्ति आय 538 रुपये 80 पैसे है तो वह प्रति सदस्य 1875 कैलोरी ही उपभोग कर पायेगा जो पैमाने से 225 कैलोरी कम है। अर्थात, देश में ग़रीबी नहीं कम हो रही बल्कि ग़रीबी रेखा मानक को नीचे सरका–सरका कर सरकार ग़रीबी को कम दिखलाती है। ग़रीबी रेखा के कैलोरी उपभोग के मानक को अगर नजरअंदाज़ कर दिया जाएगा तो ग़रीबी ठहरी हुई या कम होती ज़रूर दिखेगी। अगर कैलोरी उपभोग के स्तर को पोषण के परिमाण के रूप में देखें तो ग़रीबी रेखा अर्थहीन हो जाएगी। देश में अगर कुपोषण और भुखमरी बढ़ रही है तो ज़ाहिर है कि यह पैमाना अर्थहीन है। संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक में भारत का स्थान 182 देशों में 134वाँ है। ज्ञात हो कि 2005 में यह स्थान 128वाँ था। बढ़ती भुखमरी और कुपोषण के कारण भारत मानव विकास के मामले में सबसहारा के देशों से भी पीछे छूटता जा रहा है। अफगानिस्तान, चाड, अंगोला, बुरूण्डी आदि भी प्रतिव्यक्ति पोषण के मुकाबले भारत से कहीं आगे हैं। ज़ाहिर है मनमोहन सिंह के मनमौजी दावों का क्या अर्थ निकाला जाय, इसका फैसला पाठक स्वयं कर सकते हैं!
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आँकड़े बताते हैं कि नयी आर्थिक नीतियों के बाद प्रतिव्यक्ति अनाज उपभोग घटा है। यह 1993–94 में शहरों 10.6 कि.ग्रा. प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह था जो 2006–2007 में 9.6 कि.ग्रा. प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह हो गया। गाँवों में यह 13.4 कि.ग्रा. से घटकर 11.7 कि.ग्रा. प्रतिमाह रह गया। इसका कारण नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद तेजी से महँगा होता जीवन और खाद्यानों में सट्टाबाज़ारी, इज़ारेदार पूँजी के निवेश, जमाखोरी और वायदा व्यापार के कारण हुई महँगाई वृद्धि है। ग़रीबी रेखा तय करते समय मुद्रास्फीति और मज़दूरी में कमी जैसे महत्वपूर्ण कारकों को नहीं शामिल किया गया है। आज के उपभोक्ता कीमत सूचकांक पिछले कुछ दिनों में महँगाई में कमी दिखा रहे हैं। जबकि दुकानों पर चीज़ें और महँगी बिक रही हैं। इसका कारण थोक मूल्यों के आधार पर उपभोक्ता सूचकांकों की गणना है जो अपने आप में अधूरी और गलत है। मुद्रास्फीति के कारण को नज़रअन्दाज़ कर दें तो 1973–74 के मानकों से मज़दूरी बढ़ी नज़र आती है। लेकिन अगर मुद्रास्फीति के कारक को समायोजित करें तो हम पाते हैं कि इस देश के मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता की वास्तविक आय में कमी आयी है और यह उसके जीवन–स्तर में साफ़ तौर पर प्रतिबिम्बित हो रहा है। जाहिर है कि आँकड़ों के साथ यह अन्यायपूर्ण ज़ोर–ज़बर्दस्ती इस काम में माहिर हो चुका देश का व्यभिचारी शासक वर्ग ही कर सकता है। लेकिन जो आधी से अधिक आबादी वास्तव में ग़रीबी रेखा के नीचे गुज़र कर रही है वह प्रधानमन्त्री की बयानबाज़ी से यह फैसला नहीं करेगी कि वह ग़रीब है या नहीं बल्कि वह अपने जीवन की स्थितियों से यह फैसला करेगी। और उसके जीवन की स्थितियाँ दारुण हैं और उसके अन्दर बग़ावत पैदा कर रही हैं। ऐसे में प्रधानमन्त्री महोदय के ऐसे बयान उच्च मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग के पढ़े–लिखे अनपढ़ों को तो मूर्ख बना सकते हैं, लेकिन इस देश के 80 फीसदी आम मेहनतकश अवाम को नहीं। अब आँकड़ों को इस कदर तोड़ना–मरोड़ना न पड़े, इसके लिए सरकार ग़रीबी रेखा को ही 1800 कैलोरी घोषित करने पर विचार कर रही है। इससे खुद ही साफ़ हो जाता है कि मनमोहन के मनमानीपूर्ण दावों की असलियत क्या थी!
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2010
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