यह आम जनता के प्रतिनिधियों का चुनाव है या कॉरपोरेट जगत की मैनेजिंग कमेटी का!?
योगेश
यह शीर्षक कुछ अटपटा सा लग सकता है और शायद कुछ बड़ा भी लेकिन इस टिप्पणी का मकसद ही यह जानने की कोशिश करना है कि आखिर चुनाव किस बात के लिए होते हैं। 1952 से लेकर अब तक इस देश के लोगों ने ग्राम पंचायत और निगम पार्षद से लेकर विधानसभा और लोकसभा चुनावों के रूप में अनगिनत चुनाव देखें हैं। इस लोकतांत्रिक माहौल में देश की हालत यह है कि करीब 77 फ़ीसदी लोग 20 रुपये या उससे कम की दैनिक आय पर गुजारा कर रहें हैं, और 10 फ़ीसदी आबादी की सालाना आमदनियाँ लाखों-करोड़ों में है। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि चुनाव हमारे-आपके लिए जनसेवा की भावना से लहालोट हो रहे जनप्रतिनिधियों के चुनाव करने के लिए नहीं होते। आज देश में जिस किस्म का विकास तो शासक वर्ग प्रत्यक्षतः बंदूक की नोक पर भी कर सकते थे, फ़िर चुनाव रूपी नौटंकी और जन-प्रतिनिधियों की क्या जरूरत?
दरअसल इन सवालों का सम्बन्ध जुड़ा है इस पूँजीवादी व्यवस्था के विकासक्रम से। अपनी सभी पूर्व व्यवस्थाओं के मुकाबले इस व्यवस्था ने उत्पादन के साधनों को अभूतपूर्व रूप से विकसित किया, और इसी के अनुपात में उत्पादन-सम्बन्धों को भी। उत्पादन सम्बन्धों के विकास के साथ ही आम जनता की चेतना में अभूतपूर्व रूप से विकास होता है। ऐसे में प्रत्यक्ष रूप से बलपूर्वक जनता पर राज करना असम्भव बन जाता है। दूसरे, उत्पादन के साधन इतने विकसित हो जाते हैं कि बिना नियम कानूनों (जो कि पक्षपातपूर्ण होते हैं) के इनका मैनेजमेंट करना भी असम्भव बन जाता है। शासक वर्गों की यह मजबूरी बन जाती है कि वह जनता में यह भ्रम पैदा करें कि यह पूरी व्यवस्था उसी की स्वीकृति लेकर, उसके द्वारा चुने गये जन-प्रतिनिधियों के द्वारा चलाई जा रही हैं। इसी के मद्देनज़र जनता की सेवा के नाम पर पुलिस, फ़ौज, न्यायपालिका जैसी संस्थाओं को पैदा और विकसित किया जाता है। वास्तव में यह संस्थाएँ हमेशा ही शासक वर्गों की सेवा करती हैं। इन्हीं के बीच चुनाव रूपी एक अत्यंत जीवंत नाटक भी रचा जाता है जिसमें लोग सीधे अपने जन-प्रतिनिधियों को चुनने का अवसर प्राप्त करते हैं, और उनका यह विश्वास और पुष्ट हो जाता है कि सत्ता के भाग्यविधाता का निर्धारण वे खुद कर रहें हैं। यह सिर्फ़ एक मिथ्याभास होता है और कुछ भी नहीं।
अभी हाल ही में प्राप्त, विभिन्न औद्योगिक घरानों और रियल एस्टेट कम्पनियों द्वारा देश की दो सबसे बड़ी चुनावबाज पार्टिंयों भाजपा और कांग्रेस को 2003–2007 के बीच दिए गए चन्दों का ब्यौरा भी गौर करने योग्य है। केवल प्रतीकात्मक आँकड़ें हैं, चन्दों की असली रकम इससे कम से कम दस गुना ज्यादा है। इसका अंदाजा महज इसी बात से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस और भाजपा इन लोकसभा चुनावों में 250 करोड़ सिर्फ़ प्रचार के लिए खर्च कर रहें हैं।
सिर्फ़ हिन्दुस्तान में ही नहीं बल्कि लगभग सभी पूँजीवादी देशों में चुनावबाज पार्टियों की पूरी फ़ण्डिंग कॉरपोरेट घरानों के दम पर ही होती है। यानी, जन-प्रतिनिधियों के चुनाव के लिए सारा खर्च ये घराने उठाते हैं। ये इसे अपनी जिम्मेदारी क्यों समझते हैं, यह सहज ही समझा जा सकता है। दूसरी बात जो और भी महत्त्वपूर्ण है कि सभी घरानों ने मिलकर देश की बड़ी पार्टिंयों कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही 50–50 करोड़ रुपए दिए हैं, यानी, इन घरानों की पार्टिंयों को लेकर कोई विशेष पसंद नहीं है। इन्हें दोनों ही सामान्य रूप से स्वीकार्य है। ऐसा होना लाज़िमी भी है क्योंकि इन दोनों पार्टियों में आर्थिक नीतियों को लेकर कोई मतभेद नहीं है। दोनों ही जनता को लूटने वाली भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों पर एक हैं।
शायद यह समझने के लिए किसी को जीनियस होने की जरूरत नहीं है यह चुनाव जनप्रतिनिधियों के लिए नहीं, बल्कि पूँजीपतियों के मैनेजिंग कमेटी के लिए होता है।
किसको किसने दिया चन्दा
कम्पनी कांग्रेस कम्पनी भाजपा
आदित्य बिड़ला 21.71 स्टरलाइट 10.00
वीडियोकॉन 04.5 अदाणी 04.00
टाटा 4.32 वीडियोकॉन 03.50
आईटीसी 1.45 अदित्य बिड़ला 02.96
एंबियेंस 1.05 टाटा 02.67
एल एंड टी 1.00 एल एंड टी 01.60
स्टरलाइट 1.00 आईटीसी 01.38
नवीन जिंदल 1.00 अकीक 01.50
बजाज 1.00 जीएमआर 01.00
एलएम थापर 0.70 विजय माल्या 01.00
रेनबैक्सी 0.65 पुंज लॉयड 01.00
टुडे हाउस 0.05 बजाज 01.00
(करोड़ रुपये में)
किस को मिला कितना चन्दा
भाजपा 52.93
कांग्रेस 52.42
शिवसेना 04.17
तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) 02.25
सपा 02.45
पीएमके 02.86
(करेाड़ रुपये में)
रियल इस्टेट कम्पनियों द्वारा दिया गया चन्दा
एंबियेंस 1.05
सोमदत्त बिल्डर्स 0.75
पुंज लायड 1.00
टुडे हाउस एंड इन्फ्रास्ट्रक्सचर्स 0.55
जुबिलेंट समूह 0.50
रियल इस्टेट एसोसियशन क्रेडॉ. .47
संस्कृति डेवलपर्स 0.50
(करोड़ रुपये में)
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अप्रैल-जून 2009
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