महिला आरक्षण बिल : श्रम व पूँजी के संघर्ष में, श्रम की वर्गीय एकजुटता को कुन्द करने की साजिश
प्रेमप्रकाश
मार्च महीने की एक घटना देश के खाते–पीते मध्यवर्ग एवं मीडिया में बहुत चर्चा का विषय रही। वह घटना थी अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के 100 वें वर्ष के अवसर पर भारतीय संसद के उच्चसदन में ‘महिला आरक्षण बिल’ का रखा जाना और एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद 9 मार्च को 1 मत के बरक्स 186 मतों से पास होना। तमाम बुद्धिजीवियों द्वारा व मीडिया जगत में इसे स्त्री मुक्ति के आन्दोलन में एक क्रान्तिकारी कदम माना जा रहा है। इसे एक ऐसी पाथब्रेकिंग व ट्रेण्डसेटर शुरुआत बताया जा रहा है जो महिला मुक्ति की लड़ाई में आगे की दिशा निर्धारित करेगी। मीडिया जगत की तमाम टिप्पणियों एवं मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों तथा स्त्रीवादी संगठनों के हर्षाल्लास की खबरों को निगाह में रखते हुए हम अपनी बात शुरू करेंगे।
क्या है ‘महिला आरक्षण बिल’ ?
‘महिला आरक्षण बिल’ अपने वर्तमान स्वरूप में संसद एवं विधान–सभाओं में एक तिहाई महिला आरक्षण की बात करता है। राज्य सभा में तमाम तीन तिकड़मों से पास हुआ यह बिल चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन एवं जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन कर एक तिहाई क्षेत्रों को केवल महिला प्रतिनिधियों के लिए आरक्षित करेगा। हालाँकि यह बात अलग है कि अभी इसे पूरी तरह पास होने के लिए लोकसभा में पास होने, राष्ट्रपति के हस्ताक्षर व 16 राज्यों से पूरी तरह पास होना आवश्यक है। परन्तु यू.पी.ए. सरकार के रुख और तमाम अन्य पूँजीवादी पार्टियों के इस मत पर रुख देखते हुए ऐसा लगता है कि देर–सवेर यह बिल पास हो जाएगा। सर्वप्रथम 1996 में पेश होने के बाद से लगभग 14 वर्षां बाद यह बिल इस मंज़िल तक पहुँचा है। इसके पास होने के बाद 543 सीटों वाली लोकसभा में 181 महिलाएँ व 28 विधानसभाओं के 4109 सदस्यों में 1370 महिला सदस्य होंगी। प्रथमदृष्टया इन सभी आँकड़ों और इस कानून को देखते हुए ऐसा भ्रम हो सकता है कि महिलाओं की संसद में भागीदारी बढ़ने से महिलाओं की हालात में सुधार ज़रूर आयेगा। उनका सशक्तिकरण ज़रूर होगा। लेकिन ठीक वैसे ही जैसे भारतीय संसद और विधानसभाओं में पुरुष सांसदों और विधायकों के पहुँचने से यहाँ की मेहनतकश पुरुष आबादी की स्थिति में हुआ है। जहाँ एक ओर ग़रीबी से कराहता व्यापक मेहनतकश जनसैलाब तो दूसरी तरफ अमीरजादों और परजीवियों की मुट्ठी भर जमात है। महिला आरक्षण बिल से जो लोग महिला सशक्तीकरण की और महिलाओं को परिधि से निर्णयकारी निकायों की राजनीति के केन्द्र में आने की उम्मीद लगाए बैठे हैं, उन्हें काफ़ी हताशा का सामना करना पड़ सकता है। हम सभी जानते हैं कि संसद में पहुँचने वाली 33 प्रतिशत महिलाएँ कौन होंगी। इस बिल पर ‘कोटा के भीतर कोटा’ की ज़मीन से उठाए जाने वाले सवाल तो हास्यास्पद हैं, जिन्हें शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव आदि जैसे लोग उठा रहे हैं। लेकिन यह भी साफ़ है कि इस देश की 80 फीसदी आम मेहनतकश महिलाओं को कोई नुमाइंदगी नहीं मिलने वाली है। कहीं कुछ अपवादस्वरूप मिल जाने वाली राहत के अतिरिक्त इससे और कुछ भी उम्मीद रखना आकाश कुसुम की अभिलाषा समान है। वास्तव में यह बिल शासक वर्ग के वर्चस्व को और अधिक मज़बूत बनाता है। शासक वर्ग दमित तबकों में से जितनी जल्दी सत्ता में भागीदारों का एक वर्ग पैदा करेगा उसके वर्चस्व के लिए उतना ही अच्छा होगा। यह बिल मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग की महिलाओं के अच्छे–खासे हिस्से में एक भ्रम की स्थिति पैदा कर रहा है। लोगों को लग रहा है कि राज्यसत्ता ने स्त्रियों को सत्ता में इस तरह भागीदारी देकर एक क्रान्तिकारी कदम उठाया है। लेकिन इस भ्रम से जल्दी ही उनका मोहभंग हो जाएगा। जहाँ तक आम मेहनतकश आबादी का प्रश्न है, उसमें ऐसे कोई भ्रम नहीं है।
महिला आरक्षण बिल के आने के घटनाक्रम की शुरुआत से ही विभिन्न राजनीतिक पार्टियों द्वारा इसके पक्ष और विपक्ष में जिस तरह के बयान आने शुरू हुए उनमें वर्षों पुरानी उनकी वोट आधारित राजनीति की ही प्रमुखता दिखी। कांग्रेस इसको अपने महिला सशक्तीकरण अभियान के एक हिस्से से जोड़कर देख रही है और मध्यवर्ग के वोट बैंक को अपना निशाना बना रही है। स्पष्ट है कि अपनी दलगत अवस्थिति के कारण इस विधेयक के पास होने के बाद भारतीय राज्य व्यवस्था में कांग्रेस की भूमिका में और अधिक इजाफा होगा। इसलिए सोनिया और मनमोहन सिंह इसको पास करवाने के लिए इतने दृढ प्रतिज्ञ दिख रहे थे। अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने अपना भाषण समाप्त करते हुए शायराना अंदाज़ में कहा ‘‘आगाज़ अच्छा न सही, अंजाम अच्छा होगा।’’ भाजपा के लिए अजीब दुविधा की स्थिति थी। इस बिल का विरोध करके वह महिलाओं के बीच अपने वोट बैंक को गँवाना नहीं चाहती थी। पार्टी के भीतर भारी विरोध के बावजूद भाजपा को इस बिल का समर्थन करना पड़ा, वह भी मुँह पर एक चौड़ी मुस्कान के साथ। स्पष्ट है कि विरोध–विरोध का रट लगाने वाली भाजपा के समझ में शायद आ गया है कि अब वोट बैंक के लिए उनका यह हथकण्डा असफल हो गया है, अब उनको इस बिल को पास करवाने का श्रेय लेकर वोट राजनीति के लिए एक नया एजेण्डा प्राप्त होगा। मुलायम सिंह, लालू प्रसाद आदि के विरोध के पीछे उनकी अपनी चिन्ताएँ हैं जिसका आधार अपने–अपने खिसकते हुए वोट बैंक को बचाना है। यही कारण है जाति, पिछड़ों आदि को आधार बताते हुए वे कह रहे हैं कि वे मौजूदा रूप में इस बिल का समर्थन नहीं करेंगे। संसदीय वामपंथियों ने हमेशा ही ऐसे बिलों का समर्थन किया है जिन्होंने पूँजीवादी व्यवस्था के वर्चस्व और उम्र को बढ़ाने का काम किया है। इस बार भी वे चूके नहीं और इस बिल के राज्य सभा में पास होने को उन्होंने अपने स्त्री संगठनों के संघर्ष और दबाव का नतीजा बताया। कुल मिलाकर, पर्याप्त प्रपंच के बाद यह बिल अन्तत: राज्यसभा में पास हुआ।
पूँजीवादी मीडिया से लेकर कुलीन एन.जी.ओ. ब्राण्ड स्त्रीवादी संगठनों तक ने इसे भारत के इतिहास की ऐतिहासिक घटना करार दिया। तथाकथित वामपंथी संगठनों के स्त्री मोर्चों ने भी इस बिल का स्वागत किया। लेकिन समाज के विकास की गति को समझने वाला कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि समाज में इस प्रकार के परिवर्तन कानूनों, अधिनियमों और विधेयकों के जरिये नहीं होते हैं। ऐसे कानूनी उपायों से अधिक से अधिक एक नाममात्र की राहत मिलती है। वास्तव में इनका असली काम मेहनतकश जनता और आम ग़रीब जनता के बीच विभ्रम की स्थिति तैयार कर मौजूदा व्यवस्था के वर्चस्व को मज़बूत करना होता है। अगर आज औरतों की आम सामाजिक–आर्थिक स्थिति पर निगाह डालें तो साफ़ हो जाता है कि ऐसे ऊपर से रख दिये गये कानूनों से उनकी स्थिति में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आने वाला है। 55℅ महिलाओं का वजन अस्वस्थ होने की हद तक कम है। देश में हर 73 मिनट में एक औरत को दहेज के लिए जला दिया जाता है। कन्या भ्रूण हत्याओं का मामला बढ़ता जा रहा है। संविधान सम्पत्ति की रक्षा का अधिकार तो देता है मगर जीवन जीने के लिए बुनियादी अधिकार (शिक्षा, चिकित्सा, आवास, पेयजल, रोज़गार) बाज़ार की शक्तियों के अधीन हैं। जब इस देश का सबसे बड़ा कानून ‘भारतीय संविधान’ आधी शताब्दी बाद भी इस देश की 80℅ जनता को (जिसमें स्त्रियों की आबादी का आधा हिस्सा है) बदहाली और तंगहाली के सिवा कुछ नहीं दे सका तो उसको आरक्षण का कानून क्या खाक दे सकेगा।
जिस तरह रोज़गार एवं अवसरों को उपलब्ध कराने में असफल रही पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा दलित व पिछड़े वर्ग के लिए लागू किये गए आरक्षण से व्यापक दलित व पिछड़े वर्ग को कोई लाभ नहीं हुआ, बल्कि इन वर्गों से कुछ पूँजी के चाकर पैदा हुए और व्यापक मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में अस्मितावादी राजनीति ज़ोर मारने लगी, उसी तरह इस कानून से भी आम औरतों को कोई लाभ नहीं होने वाला है। इसके द्वारा स्त्रीवादी आन्दोलन को व्यापक मेहतनकश जनता के आन्दोलन से न जुड़ने देने की साज़िश सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा रची गयी है। न तो स्त्रियों के प्रति पितृसत्तात्मक मानसिकता से जकड़े तमाम सत्ताधारी पुरुषों के दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है और न ही औरतों को चूल्हा–चौका, बच्चा पैदा करने और पति की सेवा करने तक सीमित कर देने के हिमायती और फासीवाद के प्रबल समर्थक संघ परिवार के राजनीतिक मुखौटे भाजपा की विश्वदृष्टि में कोई बदलाव आया है। ऐसे में समझा जा सकता है कि महिला आरक्षण बिल का वास्तविक लक्ष्य क्या है और इसे लेकर सभी चुनावी दल इतनी नौटंकी क्यों कर रहे हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2010
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