क्यों है ऐसा पाकिस्तान?

अभिनव

bhutto assassinatedबेनज़ीर भुट्टो की हत्या, ज़रदारी की सरकार के बनने और मुम्बई आतंकवादी हमलों के बाद से पाकिस्तान भारत ही नहीं पूरी दुनिया के मीडिया में सुर्खियों में है। पाकिस्तान की व्याख्या एक असफ़ल राज्य के रूप में बार-बार की जा रही है और उसे आतंकवाद के वैश्विक केन्द्र के रूप में चित्रित किया जा रहा है। एक ओर जहाँ पाकिस्तान के अन्दरूनी राजनीतिक संकट की बात हो रही है तो वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती राज्यों और विशेषकर स्वात घाटी में तालिबान के पैर जमाने की चर्चा हो रही है। कहा जा रहा है कि पाकिस्तान की नागरिक सरकार देश पर अपना नियंत्रण खोती जा रही है और उसने सेना और तालिबान के गठजोड़ के सामने घुटने टेक दिये हैं। अमेरिका द्वारा पाकिस्तान पर बनाए जा रहे दबाव को हमारे देश का मीडिया हर्षोन्माद के साथ सूचित कर रहा है। यह लेख लिखे जाने के समय ही अमेरिका ने पाकिस्तान को 2 हफ्ते का समय दिया है कि वह पाकिस्तान से तालिबान का सफ़ाया कर दे। साथ ही, पाकिस्तान को लेकर दुनिया भर में और ख़ासकर भारत में एक भय पैदा किया जा रहा है कि आतंकवाद के समक्ष हथियार डाल देने के साथ ही पाकिस्तान विश्व भर में शान्ति के लिए एक ख़तरा बन गया है और यह पूरे विश्व समुदाय के लिए चिन्ता का विषय है। ऐसे माहौल में यह समझना बेहद ज़रूरी हो गया है कि पाकिस्तान का संकट आख़िर है क्या? क्या पाकिस्तान अभी ऐसा हो गया है या फ़िर उसके ऐसा होने के कारण उसके इतिहास में निहित हैं? मीडिया द्वारा भय की राजनीति में सच कितना है और झूठ कितना? यह समझना समाज और जनता से सरोकार रखने वाले हर नौजवान और नागरिक के लिए बेहद ज़रूरी है।

पाकिस्तान के संकट को समझने के लिए ज़रूरी है कि हम इस पड़ोसी मुल्क के इतिहास पर एक संक्षिप्त निगाह डालें। इसके अतिरिक्त, मौजूदा संकट के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करना भी वांछित है। पाकिस्तान की पूरी राजनीति में सेना के हस्तक्षेप का कारण क्या है? यह समझना भी आवश्यक है। पाकिस्तान में राज्य, सेना और वहाँ के शासक पूँजीपति वर्ग के बीच के रिश्ते क्या हैं? वहाँ जनता के आन्दोलनों की क्या स्थिति है? ये कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न हैं जिनके उत्तर के बिना हम पाकिस्तान के संकट की एक सन्तुलित समझदारी नहीं बना सकते हैं। साथ ही, इस पर विचार करना भी मौजूँ होगा कि इस संकट का समाधान क्या है।

आगे बढ़ने से पहले पाकिस्तान की हालिया घटनाक्रम पर एक निगाह डाल ली जाय। जून 2008 में पाकिस्तान के विभिन्न शहरों में हज़ारों की संख्या में लोगों ने बढ़ती महँगाई के विरुद्ध प्रदर्शन किया। ज्ञात हो कि पाकिस्तान की पूरी अर्थव्यवस्था 2006 से ही भयंकर संकट का शिकार है; इस हद तक कि वह दिवालियेपन की कगार पर पहुँच गयी थी। इन प्रदर्शनों के बाद पाकिस्तान के विभिन्न शहरों में विरोध प्रदर्शनों का एक सिलसिला शुरू हो गया। इन प्रदर्शनों में मेहनतकश वर्गों, बुद्धिजीवियों, छात्रों-नौजवानों और महिलाओं ने बड़े पैमाने पर शिरकत की। यहाँ उठाये जाने वाले मुद्दों में महँगाई, जनवादी अधिकार, मुशरर्फ़ द्वारा हटाये गये न्यायाधीशों की बहाली के वायदे को ज़रदारी सरकार द्वारा पूरा किया जाना, अमेरिकी हस्तक्षेप का विरोध, बेरोज़गारी भत्ते देना, छँटनी बन्द करना और न्यूनतम मज़दूरी को बढ़ाये जाने के मुद्दे प्रमुख थे। वकील भी इन प्रदर्शनों के समर्थन में सड़कों पर उतरने लगे थे। बाद में नवाज़ शरीफ़ पर से नज़रबन्दी हटाने और न्यायाधीश चौधरी को वापस लाने की माँग को लेकर पूरे देश में एक ज़बर्दस्त आन्दोलन हुआ। इस आन्दोलन की अगली कतारों में वकील और बुद्धिजीवी थे लेकिन साथ ही अपनी माँगों को लेकर नौजवानों और मज़दूरों ने भी बड़ी संख्या में इसमें हिस्सेदारी की। मज़दूरों का गुस्सा पाकिस्तान में लगातार बढ़ रहा है और जगह-जगह उनके विद्रोह फ़ूट रहे हैं। 12 मार्च 2008 को सिंध में मज़दूरों ने एक चीनी कारखाने पर कब्ज़ा कर लिया था। इस प्रकार की कई घटनाएँ पाकिस्तान के विभिन्न हिस्सों में घट रही थीं और अभी भी घट रही हैं। वकीलों के आन्दोलन को मज़दूरों के समर्थन से काफ़ी ताक़त मिली और अन्ततः पाकिस्तान की सरकार को समझौता करने पर मजबूर होना पड़ा। ज़रदारी की सरकार इस संकट के अलावा एक दूसरे संकट से भी जूझ रही है और एक अनिर्णय की स्थिति में पड़ी हुई है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार यह तय नहीं कर पा रही है कि धार्मिक कट्टरपंथियों के साथ कैसा बर्ताव किया जाय। उसे धार्मिक कट्टरपंथियों के साथ एक अजीब सा सम्बन्ध बरकरार रखना पड़ रहा है। बेरोज़गारी, ग़रीबी और महँगाई जैसी अन्दरूनी समस्याओं पर जनता का ध्यान हटाने के लिए उसे धार्मिक कट्टरपंथियों और भारत-विरोधी अन्धराष्ट्रवादी भावना को पनपाने की ज़रूरत है। इसके लिए वह धार्मिक कट्टरपंथियों के साथ एक अपवित्र गठबन्धन को चला रही है। वह उनके ख़िलाफ़ कोई सख़्त कार्रवाई करने से डरती और बचती है। पाकिस्तानी राज्य को हमेशा से ही धार्मिक कट्टरपंथियों की ज़रूरत इस काम के लिए पड़ी है और आज भी पड़ रही है। जिन्ना एक आधुनिकतावादी सेक्युलर बुर्जुआ राजनीतिज्ञ था और उसने हमेशा राज्य के मामलों को धर्म से अलग रखने की वकालत की थी। लेकिन 1948 में जिन्ना की मृत्यु के बाद, बल्कि उससे पहले ही जिन्ना की इस नसीहत को सुनने वाला पाकिस्तान में कोई नहीं बचा था। पूँजीवादी राजनीति की ठोस ज़रूरतें इस प्रकार के आदर्शवाद की इजाज़त नहीं देती थीं और पाकिस्तान के शासक इस बात को अच्छी तरह से समझते थे। भारत-विरोधी भावना की राजनीति अपने जन्म से ही पाकिस्तानी पूँजीवाद की ज़रूरत थी। भारत को भी पाकिस्तान–विरोधी भावना की राजनीति की ज़रूरत थी लेकिन भारत का पूँजीवाद अन्दर से ज़्यादा मज़बूत था और उसकी इस राजनीति पर निर्भरता उस हद तक नहीं थी जिस हद तक पाकिस्तानी पूँजीवाद की थी। इस ज़रूरत को पूरा करने का सबसे बड़ा उपकरण धार्मिक उन्माद ही था और यही कारण है कि पाकिस्तान के जन्म से लेकर आज तक धार्मिक कट्टरपंथियों का राज्य के साथ एक गहरा सम्बन्ध रहा है। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह एक आपसी समझदारी और फ़ायदों की इज़्ज़त करने के आधार पर बना रिश्ता रहा है। लेकिन एक दूसरा दबाव पाकिस्तान के शासक वर्ग पर 1990 के दशक के मध्य से काम कर रहा है जिसके कारण धार्मिक कट्टरपंथियों के साथ लम्बे समय से चल रहा उनका हनीमून संकटग्रस्त हो गया है। यह दबाव है विश्व साम्राज्यवाद का, जिसका मुखिया द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही संयुक्त राज्य अमेरिका है। सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद से प्रतिस्‍पर्धा के दौर में अमेरिकी साम्राज्यवाद ने इस्लामी धार्मिक कट्टरपंथ को स्वयं पनपाया, उसका पालन–पोषण किया और उसे हथियारों और धन की आपूर्ति की। 1990 में सोवियत संघ के विघटन और सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद के ख़त्म होने और अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व के बिना किसी बड़ी चुनौती के उभरने के साथ इस्लामी कट्टरपंथ की ज़रूरत थोड़ी कम हो गई। दूसरी बात यह थी कि इस्लामी कट्टरपंथ को अमेरिकी संरक्षण ज़रूर मिला था लेकिन उसके बाद उसका विकास अपनी गति और अपने स्वाभाविक तर्क के साथ हुआ। इस विकास की दिशा में अमेरिकी साम्राज्यवाद के हित अब किनारे लगने लगे। सन् 2000 आते-आते अमेरिकी साम्राज्यवाद की ज़रूरतें और मध्य-पूर्व और अफ़गानिस्तान व पाकिस्तान में इस्लामी कट्टरपंथियों की ज़रूरतें अलग-अलग होने लगी थीं। अमेरिकी साम्राज्यवाद ने एक ऐसा राक्षस पैदा किया था जो अब उसके हाथ से निकल चुका था। उसके अपने हित और उसका अपना स्वायत्त अस्तित्व इतना मज़बूत हो चुका था कि अब वह अमेरिकी हितों की परवाह नहीं करता था और इसी ने इन दोनों के बीच एक असाधेय अन्तरविरोध को जन्म दिया। इसके विस्तार में हम आगे जाएँगे। आज की सच्चाई यह है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद और इस्लामी धार्मिक कट्टरपंथियों के हित अलग हो चुके हैं और वे विरोधी शिविरों में खड़े हैं। वैश्विक राजनीति समीकरणों में इस परिवर्तन के कारण पाकिस्तानी शासक वर्ग के सामने एक संकट पैदा हो गया है। राज्य और धार्मिक कट्टरपंथियों के बीच के जिस गठजोड़ को पहले अमेरिकी साम्राज्यवाद का अनुमोदन और समर्थन प्राप्त था अब वह ख़त्म हो गया है। अमेरिकी साम्राज्यवाद पाकिस्तानी शासक वर्गों और राज्य पर लगातार यह दबाव डाल रहा है कि वह तालिबान और अल-कायदा के नेटवर्क का ख़ात्मा करे क्योंकि अफ़गानिस्तान में तालिबान पर विजय पाना काफ़ी कुछ इसी बात पर निर्भर करता है। लेकिन पाकिस्तान में जिस प्रकार के सम्बन्ध राज्य और धार्मिक कट्टरपंथियों में विकसित हो चुके हैं वे अब अमेरिका के ताव और चाहत पर नहीं बदले जा सकते; उसके कारण पूरे देश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था डावाँडोल हो जाएगी। पाकिस्तानी शासक वर्ग को दिवालियेपन की कगार से बचने के लिए अमेरिकी वित्तीय सहायता की ज़रूरत है और इसलिए वह अमेरिका की चाहत की अनदेखी भी नहीं कर सकता और देश के राजनीतिक समीकरणों की जो स्थिति है उसके चलते वह तालिबान के ख़िलाफ़ निर्णायक कदम भी नहीं उठा सकता। यही वह दुविधा है जिसमें ज़रदारी की सरकार फ़ँसी हुई है और एक अनिर्णय की स्थिति में चली गयी है। कभी वह अमेरिका को कहती है कि वह शर्तें नहीं थोप सकता; दूसरी तरफ़, जब अमेरिका बाँह मरोड़ता है तो वह ड्रोन हमलों की इजाज़त भी देती है और स्वयं भी कुछ दिखावे की सैन्य कार्रवाई करती है। पाकिस्तान के इस संकट को और गहराई से समझने के लिए सबसे पहले उसके आर्थिक हालात पर एक निगाह डाल ली जाय।

असमाधेयता के भँवर में फ़ँसी पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था

2008 की शुरुआत से ही पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था पर दीवालिया होने का ख़तरा मंडराने लगा था। संकट की शुरुआत तो दरअसल 2007 में ही हो चुकी थी जब सबप्राइम संकट अपने चरम पर था और अमेरिका से लेकर यूरोप तक के विशालकाय बैंक एक-एक करके औंधे मुँह गिर रहे थे। इसी संकट की प्रतिध्वनियाँ पाकिस्तान में भी सुनाई दे रही थीं। 2008 आते-आते पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था का संकट अपने चरम पर पहुँच चुका था। 16 नवम्बर को अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने पाकिस्तान को 7.9 अरब डॉलर का कर्ज़ देने को मंजूरी दी। यह कर्ज़ 5 प्रतिशत ब्याज़ दर पर दिया जा रहा है। ज्ञात हो कि आम तौर पर अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष 3 प्रतिशत ब्याज़ दर पर कर्ज़ देता है। लेकिन पाकिस्तान को यह कर्ज़ कड़ी शर्तों और अधिक ब्याज़ दर पर दिया गया। पाकिस्तान सरकार को इस कर्ज़ को चुकता करने के लिए पाकिस्तानी जनता पर 100 अरब रुपये के नये कर थोपने पड़ रहे हैं। ज़ाहिर है कि इसका सबसे अधिक बोझ अप्रत्यक्ष करों के रूप में देश की मेहनतकश जनता पर डाला गया है। पाकिस्तान का कुल विदेशी कर्ज़ 36 खरब रुपये तक पहुँच चुका है। कर्ज़ की हालत यह है कि पाकिस्तान के राष्ट्रीय बजट का लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा विदेशी कर्ज़ चुकता करने में ही चला जा रहा है। इसके अलावा 25 प्रतिशत हिस्सा रक्षा पर अनुत्पादक खर्च के रूप में चला जाता है। इस तरह 50 प्रतिशत बजट तो कर्ज़ चुकाने और रक्षा पर ख़र्च हो जाता है। तेल और बिजली पर दी जाने वाली सब्सिडी पाकिस्तान में पहले ही बेहद कम थी-बजट का मात्र 7.9 प्रतिशत। इसे अब और घटाया जा रहा है। ये सभी अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा थोपी गयी शर्तों का ही हिस्सा है। इस कटौती के कारण तेल और बिजली की कीमतों में तेज़ी से बढ़ोत्तरी आई है। सबसे पहले तो बिजली और तेल की कीमतों में 70 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। यह वह समय था जब विश्व बाज़ार में तेल की प्रति बैरल कीमतें तेज़ी से बढ़ी थीं। लेकिन आज के समय में, जब तेल की कीमत काफ़ी नीचे आ चुकी है तब भी पुराने स्तर से तेल की कीमत पाकिस्तान में 13 प्रतिशत अधिक ही है। यही हाल बिजली की कीमतों का है। पाकिस्तान की सरकार साम्राज्यवादी वित्तीय एजेंसियों के दबाव में एक-एक करके सभी सार्वजनिक उद्यमों को औने-पौने दामों पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बेच रही है। अभी हाल ही में एक बहुत बड़े प्राकृतिक गैस फ़ील्ड को बेचने का प्रयास किया गया। लेकिन वहाँ मज़दूरों के प्रतिरोध के कारण पाकिस्तान सरकार को कदम पीछे हटाने पड़े। पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था पर कुल कर्ज़ अभी करीब 70 खरब रुपये है। इसमें से 34 खरब रुपये आंतरिक कर्ज़ है और 36 खरब रुपये विदेशी कर्ज़। विदेशी मुद्रा भण्डार अक्टूबर 2008 के 16.5 अरब डॉलर से घटकर 7 अरब डॉलर से भी नीचे आ चुका है। व्यापार और चालू खाता घाटा भी लगातार बढ़ रहा है। बजट घाटा 2008 में सकल घरेलू उत्पाद के 7.4 प्रतिशत तक पहुंच चुका था, यानी 777 अरब डॉलर। इसके कारण विकास कार्यक्रमों में, जिनके कारण रोज़गार पैदा हो सकते थे, 75 अरब रुपये की कटौती करनी पड़ी है। राजस्व प्राप्ति जो 2006 में सकल घरेलू उत्पाद का 14.9 प्रतिशत था, 2008 में घटकर 14.3 प्रतिशत रह गया। इन सारे घाटों को पूरा करने के लिए पाकिस्तान सरकार को पाकिस्तान के इतिहास का विशालतम बैंक कर्ज़ लेना पड़ा-625 अरब रुपये!

एक कृषि प्रधान देश होने के बावजूद पाकिस्तान को आज अपने सभी बुनियादी खाद्यान्न का आयात करना पड़ रहा है। कारण यह है कि 2005 में कृषि विकास दर 6.5 प्रतिशत थी जो 2008 में घटकर 1.5 प्रतिशत रह गयी। दूसरी ओर, मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर में भी अब तक की सबसे कम विकास दर को दर्ज़ किया गया है। हालाँकि विश्वव्यापी आर्थिक संकट के प्रभाव से निपटने के लिए स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान ने एक बेल आउट प्लान निकाला है जो 270 अरब रुपये का है। लेकिन इस योजना का हश्र भी वही हो रहा है जैसा अमेरिका और ब्रिटेन में ऐसी योजनाओं का हो चुका है। उद्योगों की हालत खस्ता है। कराची के कपड़ा उद्योग का 45 प्रतिशत हिस्सा बन्द हो चुका है। जनसंख्या का आधा हिस्सा ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहा है। मुद्रास्फ़ीति में करीब 33 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है। एक अमेरिकी प्रतिष्ठान इण्टरनेशनल रिपब्लिकन इंस्टीट्यूट द्वारा किये गये सर्वेक्षण में करीब 80 फ़ीसदी पाकिस्तानियों ने महँगाई और ग़रीबी को सबसे भयंकर संकट माना है। बिजली के तेज़ी से निजीकरण के कारण एक बड़ी आबादी की पहुंच से यह दूर हो चुकी है। दूसरी ओर पाकिस्तान अपनी ज़रूरत से करीब 6000 मेगावॉट कम बिजली पैदा कर पा रहा है। इस कारण से छोटे उद्योग तेज़ी से तबाह हुए हैं और मज़दूर बड़े पैमाने पर बेरोज़गार हुए हैं। वित्तीय संकट कराची स्टॉक एक्सचेंज के शेयरों के दामों में साफ़ नज़र आ रहा है। कराची स्टॉक एक्सचेंज के शेयरों की कीमतें पिछले वर्ष से 50 प्रतिशत नीचे आ चुकी हैं।

pak rallyयह है पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के हालात। हर सम्भव आर्थिक समस्या का पाकिस्तान इस समय शिकार है। चाहे उद्योग-धन्धों की बात हो या कृषि की; बेरोज़गारी और ग़रीबी की बात हो या फ़िर महँगाई की; ऊर्जा संकट की बात हो या वित्तीय संकट की; हर मोर्चे पर पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता नज़र आ रही है। ऐसे में अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा मिला ऋण किसी काम नहीं आया और अब पाकिस्तान को फ़िर से संकट से उबरने के लिए 4 अरब डॉलर के पैकेज की सख़्त ज़रूरत है, जो अमेरिका अपनी शर्तों पर दे सकता है। अर्थव्यवस्था की यह हालत पाकिस्तान के हर कदम को काफ़ी हद तक तय कर रही है। चाहे वह तालिबान के तुष्टीकरण का सवाल हो, या फ़िर अमेरिका के समक्ष घुटने टेकने का सवाल, और या फ़िर भारत-विरोधी युद्धोन्माद के इस्तेमाल का सवाल हो। पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति कभी भी उसे राजनीतिक अस्थिरता के ऐसे दलदल में धकेल सकती है जिससे लम्बे समय तक निकल पाना मुश्किल होगा। उसे अमेरिकी मदद की ज़रूरत अपनी आर्थिक समस्याओं से बचने के लिए है, भले ही फ़िलहाली तौर पर। तालिबान और धार्मिक कट्टरपंथियों की ज़रूरत उसे भारत-विरोधी अन्धराष्ट्रवादी उन्माद भड़काकर जनता को इस लहर में बहाने के लिए है। इन दोनों के बीच में ही सन्तुलन करते हुए चलना आज पाकिस्तानी शासक वर्ग के लिए सबसे मुश्किल का काम बना हुआ है।

अर्थव्यवस्था के बाद दूसरा सवाल पाकिस्तानी राजनीति में सेना की भूमिका और हस्तक्षेप का है। आख़िर क्यों पाकिस्तान को बार-बार सैनिक तानाशाहों का मुँह देखना पड़ता है? आख़िर क्यों सैनिक सरकार न होने पर भी राजनीतिक से लेकर प्रशासनिक मामलों तक में सेना का इतना हस्तक्षेप होता है? क्यों बार-बार नागरिक सरकारें सेना के सामने घुटने टेक देती हैं? क्या इसके कारण पाकिस्तान के ऐतिहासिक विकास की विशिष्टताओं में निहित हैं? यह समझने के लिए हमें पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास पर एक निगाह डालनी होगी और अलग-अलग दौरों में सेना की भूमिका को भी समझना होगा।

पाकिस्तान की राजनीति में सेना की भूमिका

एक पूँजीवादी व्यवस्था में सेना राज्य का सबसे संगठित और बल-प्रयोग का सबसे मज़बूत उपकरण होता है। पाकिस्तान में भी यह बात लागू होती है। सेना का काम होता है देश के शासक वर्ग और सम्पत्तिधारी वर्ग के विशेषाधिकारों, हितों और सम्पत्ति की रक्षा करना। जब तक यह काम राजनीतिक तौर–तरीकों से होता है तब तक उसे वैसे ही किया जाता है और जब कभी-कभी स्थिति राजनयिक प्रयासों के दायरे से बाहर निकल जाती है तो सेना और पुलिस बलों के नग्न बल का सहारा लिया जाता है। जिन देशों में पूँजीवादी जनतंत्र का इतिहास और जड़ें गहरी होती हैं, वहाँ सेना इस काम को अप्रत्यक्ष और कम अभिव्यक्त तरीकों से अंजाम देती है। पाकिस्तान में सेना ने अपना काम ज़्यादा खुले तरीके से किया है। इस बात को समझने के लिए हम आगे पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास पर एक निगाह भी डालेंगे।

पाकिस्तान की राजनीति में सेना के हस्तक्षेप पर वहाँ के रैडिकल और वाम दायरों में यह बात होती रहती है कि इस दिक्कत का इलाज यह है कि सेना सुधार और पुलिस सुधार किये जाएँ। ऐसा वे इसलिए सोचते हैं क्योंकि उनके दिमाग़ में यह बात पैठी हुई है कि पाकिस्तान में अभी जनवाद नहीं है और जनवादी अधिकारों के लिए पहले पाकिस्तान का पूँजीपति वर्ग जनवादी क्रान्ति के कार्यभार को पूरा करेगा। इस काम के लिए उसे एक अनुशासित और नागरिक सरकार के आदेश पर चलने वाली सेना की आवश्यकता होगी। इसलिए सेना के भीतर सुधार किया जाना चाहिए। लेकिन यह सोच पाकिस्तान के भीतर एक उदार, प्रगतिशील और जनवादी बुर्जुआ वर्ग के मौजूद होने पर आधारित है, जो वास्तव में पाकिस्तान में है ही नहीं। पाकिस्तान को एक अर्द्ध-सामन्ती अर्द्ध-औपनिवेशिक देश मानने के चलते वामपन्थी हलकों में भी सेना की भूमिका को लेकर जो असुविधा और परेशानी है, उसका कोई समाधान उनके पास नहीं है। इसका एक कारण यह भी है कि पाकिस्तानी बुर्जुआ वर्ग और सेना के रिश्तों और इनके चरित्र की कोई स्पष्ट समझदारी मौजूद नहीं है।

पाकिस्तानी पूँजीवाद विश्व इतिहास के पटल पर बहुत देर से प्रकट हुआ। जब पाकिस्तान की रचना हुई तो उस समय वहाँ का पूँजीपति वर्ग बेहद कमज़ोर था। उसके पास इतनी ताक़त भी नहीं थी कि वह शुरुआत करने के लिए आरम्भिक पूँजी जुटा पाता, यानी आदिम पूँजी संचय कर पाता। उसके पास संसाधन पैदा करने की ताक़त नहीं थी। उसके पास बस एक चीज़ थी-राज्यसत्ता। इसी के बल पर उसे शुरुआत करनी थी और मौजूद संसाधनों की लूट के बूते पर पाकिस्तानी पूँजीवाद का विकास करना था। वह प्रगतिशील और जनवादी तौर–तरीकों से पूँजीवाद का विकास नहीं कर सकता था। जब-जब उसने ऐसा करने की कोशिश की तब-तब उसे संकट का सामना करना पड़ा और उस संकट से पार पाने के लिए सेना को हस्तक्षेप करना पड़ा। पाकिस्तानी पूँजीपति वर्ग शुरू से ही परजीवी था। वह पूँजीवादी विकास के लिए किसी भी किस्म की अवसंरचना का विकास कर पाने में समर्थ नहीं था। यही वह संकट था जिसके कारण अपने जन्म से लेकर आज तक पाकिस्तान कभी स्थिर नहीं हो पाया। पूँजीवादी विकास ने पाकिस्तान में एक बेहद अलग किस्म का रास्ता अख़्ति‍यार किया जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे। लेकिन पाकिस्तानी पूँजीवाद की अस्थिरता का अन्दाज़ा इस बात लगाया जा सकता है कि मुशरर्फ़ के अन्तर्गत मौजूद पाकिस्तानी संसद पहली संसद थी जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया! जब-जब यह राजनीतिक अस्थिरता राजनयिक प्रयासों से दूर नहीं हुई तब-तब पाकिस्तानी पूँजीपति वर्ग ने नंगी सैनिक तानाशाही का सहारा लिया और पूँजी के राज कायम रखा। लेकिन हर ऐसे प्रयास के बाद की स्थिति और बुरी हो चुकी होती थी। सेना ने पूँजीवादी शासन की रक्षा और उसे कायम रखने के अपने कर्तव्य को पाकिस्तान में बखूबी निभाया। जब-जब यह काम सामान्य पूँजीवादी कानूनी तरीकों से नहीं हो पाता तो उसे असामान्य तरीकों से किया जाता है। सैनिक शासन ऐसा ही एक असामान्य तरीका है। पाकिस्तान जैसे संकटग्रस्त देश में यह कल्पना करना कि सेना हमेशा अपनी संवैधानिक भूमिका को नागरिक सरकार के आदेशाधीन रहकर पूरा करती रहेगी, एक ख़ामख़याली से अधिक कुछ भी नहीं होगा।

पाकिस्तान में बार-बार सैनिक तानाशाहों का आना और सैन्य तख्तापलट होने के कौन–से सामाजिक-आर्थिक कारण मौजूद रहे हैं? यह समझे बग़ैर हम आगे नहीं बढ़ सकते। इसके लिए हमें थोड़ा इतिहास में जाना होगा।

अगर हम एक करीबी निगाह डालें तो हम पाते हैं कि खुली सैनिक तानाशाही पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास के छोटे-छोटे दौर में आई हैं और कुछ ही समय में नागरिक सरकार को संस्थापित करके चली गई हैं। इसका कारण यह है कि समाज में खुले सैनिक दमन के औज़ार को शासक वर्ग बहुत लम्बे समय तक इस्तेमाल नहीं कर पाता। यह एक ऐसा हथियार है जो इस्तेमाल के कुछ समय बाद ही भोथरा हो जाता है, अगर आपको पूँजीवादी जनवाद के तिलिस्म को बरकरार रखना है। या फ़िर दूसरा रास्ता खुले तौर पर स्थायी तानाशाही का है जो शासक वर्ग को फ़ौरी तौर पर सिरदर्द से मुक्त करता है लेकिन उसके लिए लम्बी दूरी में ख़तरनाक साबित होता है। यही कारण है कि पाकिस्तान में किसी भी सैनिक तानाशाह ने अपने आपको एक अस्थायी संस्था के तौर पर ही पेश किया, स्थायी इंतज़ाम के रूप में नहीं। हर सैनिक तानाशाह जल्दी से जल्दी किसी नागरिक सरकार को कार्यभार सौंप देने का प्रयास करता रहा और उसने ऐसा किया भी। कारण यह था कि नागरिक सरकार आने के बाद भी पाकिस्तान की पूँजीवादी राजनीति में सेना का दख़ल कोई कम नहीं होने वाला था। उसका दबदबा दूसरे रूपों में बरकरार रहता था। आज भी ऐसा ही हो रहा है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि सैनिक तानाशाहों ने ही न्यायपालिका की मदद से अपने आपको नागरिक शासकों में तब्दील कर लिया है। सामान्यतया, न्यायपालिका की स्थिति भी पाकिस्तान में सेना के अधीनस्थ ही बनी रही है। नतीजतन, बार-बार सैनिक तानाशाहों ने अपनी आर्थिक और सामरिक ताक़त के बल पर न्यायपालिका, बुद्धिजीवी वर्ग और वकीलों समेत संवैधानिक विशेषज्ञों की मदद से अपने आपको नागरिक शासकों में बदला है। मुशरर्फ़ इसका नवीनतम उदाहरण थे। चाहे किसी नागरिक शासक को स्थापित करने के रास्ते हो या फ़िर सैनिक तानाशाहों के ही नागरिक शासक में तब्दील हो जाने के रास्ते हो, सैनिक तानाशाहियाँ पाकिस्तान में लम्बे समय के लिए नहीं चली हैं और नागरिक शासन वापस आया है। अयूब खान सैनिक शासन को महज़ दो वर्षों तक चला पाए। 1960 में उन्होंने नया संविधान बनाया और नागरिक शासक बन गये; 1958 में तख्तापलट के बाद भी उन्होंने कैबिनेट को रद्द नहीं किया और नागरिक मंत्रीमण्डल के साथ ही शासन जारी रखा। याह्या खान ने भी नागरिक मन्त्रीमण्डल के साथ ही शासन किया। यहाँ तक कि सबसे कुख्यात सैनिक तानाशाह ज़िया उल हक़ ने भी नागरिक मन्त्रीमण्डल के साथ ही शासन किया। ग़ौरतलब है कि ज़िया के फ़ासीवादी शासन के दौरान मन्त्रीमण्डल में दक्षिणपंथी पार्टियों के मन्त्रियों का बोलबाला रहा। इसमें जमाते इस्लामी जैसे धार्मिक कट्टरपंथी फ़ासीवादी दलों के मन्त्री प्रमुख थे। ज़िया ने अपने शासन में जो भी अत्याचार और दमन की कार्रवाइयाँ कीं, ख़ास तौर पर प्रगतिशील तत्वों और जमातों के ख़िलाफ़, वह दक्षिणपंथियों का भी एजेण्डा था और इसलिए इन कार्रवाइयों को इन दक्षिणपंथियों का पूरा समर्थन प्राप्त था। इन कार्रवाइयों को सही ठहराने के लिए ज़िया ने प्रतिष्ठित वकीलों जैसे ए. के. ब्रोही और शरीफ़ुद्दीन पीरज़ादा का जमकर इस्तेमाल किया जिन्होंने ज़िया की पूरी मदद की। सोचने की बात है कि एक प्रगतिशील कार्यक्रम पर चुने गये जुल्फ़ीकार अली भुट्टो को फ़ाँसी की सज़ा किसी सैनिक ट्रिब्यूनल ने नहीं बल्कि एक नागरिक अदालत ने दी थी। इसी से पता चलता है कि पाकिस्तान में गैर-जनतान्त्रिक प्रवृत्तियों का आधार कितना मज़बूत और जनवादी परम्पराएँ और मूल्य कितने कमज़ोर रहे हैं।

मुशरर्फ़ सभी सैनिक तानाशाहों में सबसे कुशल और समझदार थे। सन् 2000 में उन्होंने बहुदलीय व्यवस्था को रद्द करके म्यूनिसिपल डेमोक्रेसी की स्थापना की। ऐसा अयूब खान और ज़िया ने भी किया था लेकिन मुशरर्फ़ अपने इस काम में विभिन्न दलों तक का समर्थन लेने में कामयाब रहे। 2002 में उन्होंने आम चुनाव कराए और बहुदलीय व्यवस्था को बहाल किया। लेकिन तब तक मुशरर्फ़ पाकिस्तानी राजनीति में अपनी जगह को सुरक्षित कर चुके थे। मुशरर्फ़ शासन पाकिस्तान की बिखरती राजनीति और अर्थनीति की एक ज़रूरत था। पाकिस्तानी पूँजीपति वर्ग भी इस बात को अच्छी तरह समझता था। जनता के रोष और गुस्से का बिना किसी दुविधा के दमन करने का काम कोई नागरिक शासन उतनी सक्षमता के साथ नहीं कर सकता था जितना कि एक सैनिक तानाशाह। बेरोज़गारी, छँटनी और भुखमरी के ख़िलाफ़ मज़दूर और छात्र जगह-जगह सड़कों पर उतर रहे थे। इस स्थिति को सम्भालने का काम मुशरर्फ़ जैसा सैनिक तानाशाह ही कर सकता था। धार्मिक कट्टरपंथियों को काबू करना भी एक ज़रूरी काम था जो वोटों की राजनीति के आधार पर चलने वाला कोई चुनावी पूँजीवादी दल पाकिस्तान जैसे देश में नहीं कर सकता था। यह काम भी मुशरर्फ़ ही कर सकता था। मुशरर्फ़ ने बहुत कुशलता से पाकिस्तानी पूँजीवाद को संकट के भँवर से अस्थायी तौर पर निकाला और इस काम में पाकिस्तानी पूँजीपाति वर्ग ने उनकी पूरी मदद की। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी समेत सभी पार्टियाँ इस काम में मुशरर्फ़ के साथ रहीं क्योंकि यही पाकिस्तानी पूँजीवाद की ज़रूरत थी।

लेकिन मुशरर्फ़ के शासन ने एक अन्य प्रक्रिया को और मज़बूती प्रदान की, जो दरअसल पाकिस्तान के बनने के समय से ही जारी रही थी। यह प्रक्रिया थी पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में और राजनीतिक प्रक्रिया में सेना की बढ़ती दख़लंदाज़ी और भूमिका। अर्थव्यवस्था और शासन की तमाम संस्थाओं में सेना के अफ़सरों की बढ़ती भूमिका ने सेना को पाकिस्तान का सबसे बड़ा पूँजीपति बना दिया था। इस पूरी प्रक्रिया को समझने के लिए हमें इतिहास में थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा।

ब्रिटिश काल में सेना के अधिकारियों को ज़मीन के विशालकाय खण्ड दिये जाते थे। इनका आकार उनके पद पर आधारित होता था। ये अधिकारी अक्सर किसानों के बीच से ही उठे होते थे लेकिन सेना का अंग बनते ही वे उनसे कहीं ऊपर उठ जाते थे। भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी सीमांतों के इलाके में (जो कि आज का पाकिस्तान है) यह परिघटना ख़ास तौर पर प्रभावी थी। सेना के अधिकारियों के अन्त तक ब्रिटिश शासन के वफ़ादार बने रहने का एक कारण यह भी था कि ब्रिटिश शासन ने उन्हें सैन्य ताक़त के अतिरिक्त गाँवों के शासक वर्ग में तब्दील कर दिया था। अधिकांश सेना अधिकारी उस समय ग्रामीण कुलीन वर्ग से आते थे। उनका सामन्ती प्राधिकार ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा नष्ट नहीं किया गया बल्कि उसे सहयोजित करके ब्रिटिश शासन के हितों के अनुरूप बना दिया गया। भारत के उत्तर–पूर्वी हिस्सों में जहाँ पर स्थायी बन्दोबस्त की व्यवस्था लागू की गयी, वहाँ पर भी यह परिघटना दूसरे रूप में घटित हुई; इस पर इतिहासकारों ने काम भी किया है। लेकिन यहाँ पर ज़मीन्दार वर्ग का सैन्य चरित्र कम था। वर्तमान पाकिस्तान वाले हिस्से में रैयतवाड़ी या महालवाड़ी भूमि व्यवस्था लागू हुई जिसमें ज़मीन का मालिक किसानों को या फ़िर ग्राम समुदाय को बनाया गया। लेकिन वहाँ भी सैनिक अधिकारियों को विशाल भूखण्ड सौंपे गये और उन्हें ग्रामीण शासक वर्ग का रूप प्रदान किया गया। साथ ही उन्हें सैन्य शक्ति भी सौंपी गयी। यही वह सैन्य वर्ग है जिसका इतिहास आज पाकिस्तान में यहाँ तक पहुँचा है। सामन्ती व्यवस्था में भी वे मौजूद थे और उनका एक विशिष्ट रूप था और पूँजीवाद के प्रादुर्भाव के बाद पूँजीवाद ने भी उन्हें अपनाया और अपने हितों के अनुरूप एक नया रूप दिया। इस सैन्य भूस्वामी वर्ग को धार्मिक रंग में भी रंगा गया और उनका उपयोग किसानों के दमन और उनके विद्रोहों को कुचलने में जमकर किया गया।

पाकिस्तान के निर्माण के बाद भी सैनिक बलों का ढाँचा उसी रूप में बना रहा जिस रूप में ब्रिटिश काल में रहा था। 1958 तक पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों को भूखण्ड दान देने की प्रथा जारी रही। अयूब खान द्वारा 1958 में सैन्य तख्तापलट के बाद और पाकिस्तान पूँजीवाद के तुलनात्मक रूप से उन्नत मंज़िल में प्रवेश कर जाने के बाद इस प्रथा के साथ एक नयी प्रथा भी जुड़ गयी। अयूब खान ने सेना के अधिकारियों को उद्योग, अर्थव्यवस्था और वित्तीय व्यवस्था की महत्वपूर्ण संस्थाओं में पद सौंपने शुरू किये। सेना के अधिकारियों ने अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में अपने पाँव जमा लिये। तमाम सरकारी औद्योगिक प्रतिष्ठानों के प्रमुख सेना के अधिकारी बन गये। उन्होंने शेयर और स्टॉक खरीदना शुरू किया और अपनी वित्तीय ताक़त को पाकिस्तान के किसी भी पूँजीपति वर्ग से कहीं ज़्यादा बढ़ा लिया। सेना से सेवा निवृत्त होकर ये अधिकारी तमाम आर्थिक प्रतिष्ठानों के कर्ता-धर्ता बनने लगे। नतीजतन, पाकिस्तान के सैन्य अधिकारियों के वर्ग का एक पूँजीपति वर्ग के रूप में प्रादुर्भाव हुआ। उनके हाथों में ज़बर्दस्त आर्थिक शक्ति इकट्ठा हो गयी। लेकिन अयूब ख़ान के काल में यह प्रक्रिया फ़िर भी सीमित ही रही। अभी सेना में अनुशासन और अन्धराष्ट्रवादी लहर के कारण मौजूद नियम-कानूनों का पालन तमाम स्तरों पर कायम रहा। ब्रिटिश काल में सेना के भीतर मौजूद आदेश की श्रृंखला (चेन ऑफ़ कमाण्ड) बरकरार थी। सेना के भीतर का उच्चानीचक्रम बना हुआ था। लेकिन बुर्जुआ जनवाद के तहत मौजूद बुर्जुआ सेना की ये परम्पराएँ पाकिस्तान पर अमेरिका के प्रभाव के बढ़ने और अमेरिका की शह पर पाकिस्तान के इस्लामीकरण के बाद कमज़ोर पड़ने लगीं। पहले सेना छावनी के क्षेत्र को सेना के अर्थव्यवस्था में दख़ल से दूर ही रखा जाता था। छावनी के क्षेत्र शहर के सबसे अच्छे हिस्सों में बने थे जहाँ तक हर प्रकार के परिवहन की पहुँच, जल व्यवस्था, पर्यावरणीय व्यवस्था और आम व्यवस्था सबसे बढ़िया थी। जब सेना के अधिकारियों का आर्थिक गतिविधियों में हस्तक्षेप बढ़ा तो उन्होंने छावनी के क्षेत्रों को भी इसका एक केन्द्र बना दिया। छावनी के क्षेत्रों में रियल स्टेट व्यवसाय पनपने लगा और इसके बूते पर सैन्य अधिकारियों ने अरबों-खरबों में कमाई की। इसके कारण एक पूँजीवादी सेना में भी जितना अनुशासन और व्यवस्था होती है वह भी ढहने लगी। इसके कारण पाकिस्तानी सेना की लड़ने की क्षमता में भी भारी कमी आई। 1965 और 1971 में भारत के साथ युद्ध में आसान पराजय का एक कारण यह भी था। इन पराजयों के बाद सेना के निचले हिस्सों में कई विद्रोह हुए। सेना के अधिकारियों के प्रति सेना में गुस्सा व्याप्त था। यही कारण था कि भुट्टो ने अपने चुने जाने के बाद आराम से सेना के 13 प्रमुख जनरलों को बख़ार्स्त कर दिया। लेकिन इससे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। नये जनरलों ने उन्हीं प्रथाओं को जारी रखा जिन प्रथाओं को उनके पूर्वजों ने शुरू किया था। और भुट्टो की सरकार इसको रोक सकने में दो कारणों से अक्षम थी। एक तो यह कि सेना की दख़लंदाज़ी अब अर्थव्यवस्था में गहरे तक पाँव जमा चुकी थी और यह सम्भव नहीं था कि आनन–फ़ानन में उसे ख़त्म कर दिया जाय। दूसरा कारण यह था कि कोई भी सरकार इतनी ताक़त नहीं रखती थी कि सेना के इन अधिकारों को ख़त्म करके उससे बैर मोल ले। पाकिस्तान का इतिहास ही सेना की शक्ति के बारे में सभी नागरिक तानाशाहों के कान में हमेशा आतंक मंत्र फ़ूँकता रहता है।

यद्यपि अयूब खान के शासन में सेना के चरित्र और उसकी भूमिका में उतने बदलाव नहीं आ पाए थे। अभी सेना के चरित्र को और परिवर्तित होना था। और यह काम होना था ज़िया उल हक़ की सैनिक तानाशाही के अन्तर्गत। ज़िया का शासनकाल वह समय था जब अमेरिकी साम्राज्यवाद ने इस्लामी कट्टरपंथ का पूरे एशिया में जमकर समर्थन किया। इसका कारण था एशिया में समाजवाद के बढ़ते ख़तरे पर काबू पाना और अतिशक्तिशाली सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद पर लगाम लगाना। अमेरिका ने पाकिस्तान की सेना में दो परिवर्तन लाए। एक परिवर्तन था उसका ज़बर्दस्त इस्लामीकरण और दूसरा परिवर्तन था पाकिस्तानी सेना का अमेरिकी तर्ज़ पर आधुनिकीकरण। इस इस्लामीकरण के अपने अजीबो-ग़रीब विरोधभास थे। मिसाल के तौर पर, यह इस्लामीकरण ज़ियनवादी इज़रायली मोसाद एजेंसी की मदद से भी किया गया। इस पूरे घटनाक्रम ने पाकिस्तानी फ़ौज के विचारधारात्मक आधार में कई आधारभूत परिवर्तन किये।

इस पूरी मदद के बदले में अमेरिका ने अपनी मध्य-पूर्व नीति के कार्यान्वयन का मुख्य वाहक पाकिस्तानी सेना और पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी आई.एस.आई. को बनाया। ख़ास तौर पर अफ़गानिस्तान में सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद से प्रतिस्‍पर्धा और युद्ध में अमेरिकी साम्राज्यवाद ने पाकिस्तानी सेना और इस्लामी कट्टरपंथी ताक़तों का जमकर इस्तेमाल किया। अफ़गानिस्तान में जब वामपंथी सरकार थी उसी समय से पाकिस्तानी सेना को अमेरिका ने उसके ख़िलाफ़ एक गुप्त ऑपरेशन में शामिल किया। इसे जिहाद का नाम दिया गया। इसमें अफ़गानिस्तानी सरकार और वामपंथियों के ख़िलाफ़ बर्बरतम अपराधों को अंजाम दिया गया। करोड़ों डॉलर सहायता में पाकिस्तान को दिये गये। इसके अतिरिक्त, सऊदी अरब के प्रतिक्रियावादी शाह, अमेरिकी जियनवादी लॉबी और खुद अमेरिकी ट्रेज़री से अरबों डॉलरों की पाकिस्तानी सेना और पूँजीपति वर्ग पर बरसात कर दी गयी। सबकुछ पहले अफ़गानिस्तान में वामपंथी उभार को कुचलने और फ़िर सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद से निपटने के लिए। लेकिन इस ख़र्चे से अमेरिकी कोष पर काफ़ी दबाव पड़ने लगा। नतीजतन, सी.आई.ए. ने एक नया तरीका ईजाद किया। यह तरीका था अफ़ीम की खेती। अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान की 1500 किमी लम्बी सीमा पर पहाड़ी क्षेत्र में अफ़ीम की खेती का काम शुरू हुआ। इस क्षेत्र में किसी भी सरकार का नाममात्र का ही नियंत्रण था और वहाँ कबायली नियंत्रण का बोलबाला था। सी.आई.ए. ने इस अफ़ीम से हेरोइन बनाने के लिए उन्नततम प्रयोगशालाएँ स्थापित कीं। इस पूरे धन्धे में पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों को भी शामिल कर लिया गया। समय बीतने के साथ इस पूरे घृणित कार्यक्रम को अंजाम देने के लिए सारा ज़मीनी काम पाकिस्तानी सेना ही करने लगी। ड्रग्स के व्यापार के सी.आई.ए. के इस कार्यक्रम से पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों ने इतना पैसा बनाया जिसकी कल्पना करना भी मुश्किल है। इस पूरे पैसे के बल पर ही अमेरिकी साम्राज्यवाद ने अपने अफ़गान युद्ध का संसाधन जुटाया। ज़िया के शासन काल में भारत के ख़िलाफ़ युद्धोन्माद को नहीं भड़काया गया और भारत के साथ शान्ति बरकरार रखने पर बल दिया गया। कारण यही था कि उस समय पाकिस्तानी सेना अमेरिका की अफ़गान योजना को अमल में लाने में जुटी हुई थी। लेकिन पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों का लालच बढ़ता गया और इस पैसे से भी वे असन्तुष्ट हो गये। इसका एक कारण यह भी था कि उन्हें अपने मुनाफ़े को सीमान्त के कबीलों से साझा करना पड़ता था। ये कबीले किसी के काबू में नहीं आते थे और वक्तन–ज़रूरतन अपनी वफ़ादारियाँ बदलते रहते थे।

अपने मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए पाकिस्तान के सैन्य अधिकारियों ने एक और काम शुरू किया और वह भी अमेरिका से छिपाकर। उन्होंने जिहाद के लिए आए उन्नततम अमेरिकी हथियारों की स्मगलिंग शुरू कर दी। ये हथियार उन्होंने ईरान के तत्कालीन अमेरिका-विरोधी शासन से लेकर जॉर्डन, सीरिया और लेबनान तक के अमेरिका-विरोधी ताक़तों को बेचे। इसके बहुत मज़ेदार परिणाम हुए। अमेरिकी सेना और शासन उस समय चकित रह गये जब 1980 के दशक में अमेरिकी हेलीकॉप्टरों पर ईरानी इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स ने अमेरिका द्वारा ही बनाई गई अत्याधुनिक स्टिंगर मिसाइलों से हमला किया। लेकिन तब तक इस भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए बहुत देर हो चुकी थी।

ड्रग्स और हथियारों के व्यापार के बल पर पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों ने 1970 और 1980 के दशक में खरबों डॉलर कमाए। इससे उनकी आर्थिक ताक़त में ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई। इस काले धन के बूते पर इन सैन्य जनरलों ने पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था के उद्योग, वित्त, वाणिज्य और प्रशासनिक सेक्टरों में अपनी पकड़ को और अधिक मज़बूत बना लिया। अब पुराना सैन्य कुलीन वर्ग जो 1958 से पहले के भूदानों के बूते पर खड़ा था, इस नये सैन्य कुलीन वर्ग के सामने बौना दिखलाई देने लगा। पाकिस्तान में एक नया, आधुनिक, अमेरिकीकृत, भ्रष्ट, चालाक और सत्ता का भूखा सैन्य कुलीन वर्ग अस्तित्व में आ चुका था जो पूरी पाकिस्तानी पूँजीवादी राजनीति के चरम स्थान पर बैठा हुआ था। यह राजनीतिक चेतना से सम्पन्न वर्ग था जो जानता था कि वह खुला सैन्य शासन लम्बे समय तक नहीं चला सकता है। उसे नागरिक शासन की ज़रूरत थी। लेकिन नागरिक शासन उसके हितों के अनुरूप ही काम कर सकता था क्योंकि आर्थिक ताक़त का आधे से अधिक हिस्सा इस सैन्य कुलीन वर्ग के हाथों में संकेन्द्रित था। अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में वे वरिष्ठ साझीदार थे और क्लासिकीय पूँजीपति वर्ग कनिष्ठ साझीदार। इस पूरी परिघटना ने पाकिस्तान में एक जटिल सैन्य-औद्योगिक तंत्र को जन्म दिया जो आज भी चल रहा है।

अफ़गानी जिहाद के अतिरिक्त, पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों ने आणविक तकनीक अवैध रूप से कई देशों को बेचकर भी ज़बर्दस्त कमाई की। पाकिस्तानी आणविक कार्यक्रम को कई शक्तियों के सामने खोला गया और उन्हें इसकी जानकारी थी। ईरान और कोरिया में इसमें प्रमुख थे। पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों ने जो काला धन कमाया उसे सुरक्षित रखने के लिए पहले एक अलग बैंक की ही स्थापना की गई जिसका नाम था बैंक ऑफ़ क्रेडिट एंड कॉमर्स इण्टरनेशनल। बाद में इस बैंक का कच्चा-चिट्ठा खुलने के बाद उसे ख़त्म कर दिया गया। लेकिन तब तक सैन्य अधिकारी इस काले धन को अर्थव्यवस्था के अलग-अलग सेक्टरों में लगाकर सफ़ेद धन बना चुके थे, जैसे निर्माण, अवसंरचना, वित्त, रियल स्टेट, मैन्युफ़ैक्चरिंग आदि। आज इस काले धन का एक बड़ा केन्द्र दुबई है जहाँ सैन्य अधिकारियों ने इस धन को जमा कर रखा है। यही धन आज तालिबान और अल-कायदा जैसे धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवादी और फ़ासीवादी संगठनों का वित्तीय-आर्थिक आधार बने हुए हैं। आज पाकिस्तान के अन्दर एक शासक वर्ग मौजूद है जिसके मुख्य खिलाड़ी हैं सैन्य अधिकारी, न्यायपालिका, वरिष्ठ नागरिक नौकरशाह, धार्मिक कट्टरपंथी मुल्ला वर्ग, शीर्ष के व्यापारी और पूँजीपति वर्ग। पूरी पाकिस्तानी पूँजीवादी व्यवस्था ने यही विशिष्ट रूप अख़्ति‍यार किया है। ज़ाहिर है, ऐसा पूँजीवाद जो बिना किसी शक्तिशाली पूँजीपति वर्ग और उसकी प्रगतिशील प्रवृत्तियों के बिना अस्तित्व में आया है, वह कभी जनवादी नहीं हो सकता। इन तमाम शक्तियों के बीच, जो शासक वर्ग का अंग हैं, आपसी अन्तरविरोध भी हैं जो बीच-बीच में सामने आते रहते हैं। मिसाल के तौर पर, हाल के वकीलों के आन्दोलन के दौरान भी यही अन्तरविरोध सामने आए थे। लेकिन जनता के बीच विद्रोह और असन्तोष की भावना पैदा होते हैं ये सभी वर्ग अपने अन्तरविरोधों को भुलाकर साथ आ जाते हैं। कई बार ये जनता के आक्रोश का एक-दूसरे के विरुद्ध भी रणनीतिक इस्तेमाल करते हैं, लेकिन एक हद तक ही, यानी जहाँ तक सुरक्षित हो। हाल में, ये अन्तरविरोध बार-बार सिर उठाते रहे हैं। इसका एक कारण पूरे पाकिस्तानी पूँजीवाद का आर्थिक संकट भी है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि इस संकट का सीधा रिश्ता विश्व पूँजीवाद के आर्थिक संकट से है।

पाकिस्तान की राजनीति और शासन में सेना की भूमिका को समझने के लिए आवश्यक है कि हम अलग-अलग दौरों में पाकिस्तानी पूँजीवाद की चारित्रिक आभिलाक्षणिकताओं को समझें। इसके अतिरिक्त, हमें सेना के भीतर मौजूद वर्ग अन्तरविरोधों को समझने की भी आवश्यकता है। पाकिस्तानी पूँजीवाद और समाज के विकास के अलग-अलग दौरों में पाकिस्तानी सेना का चरित्र और उसका राजनीति में दख़ल बदलता रहा है। हम पहले भी उल्लेख कर चुके हैं कि सामान्य परिस्थितियों में एक पूँजीवादी देश में सेना का काम शासक वर्ग की नीतियों और निर्देशों को सुगमता के साथ लागू करवाना होता है और हर सम्भव प्रतिरोध को कुचलना होता है। इसका काम शासन के ख़िलाफ़ सिर उठाने वाले मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के संघर्ष को दबाना और पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग की रक्षा करना होता है। शासक वर्ग अपने प्रभुत्व को सेना के रूप में तो कायम रखता ही है लेकिन यह उसका सबसे नग्न और अन्तिम मौके पर उपयोग में लाया जाने वाला रूप है। इस मौके के पहले सामान्य स्थितियों में शासक वर्ग अपने विचार और संस्कृति, अपने मनोवैज्ञानिक प्रभुत्व को परम्परा, मीडिया, स्कूल और उनके पाठ्यक्रम, अपने दर्शन और बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा लागू करता है। जब प्रभुत्व के ये रूप संतृप्त हो जाते हैं तब नग्न बल का, यानी सेना, पुलिस और सशस्त्र बलों का उपयोग किया जाता है। इतिहास बताता है कि सामान्य स्थितियाँ लगातार नहीं बनी रहती हैं और ये तरीके हमेशा ही कुछ समय बाद संतृप्त हो जाते हैं और नग्न बल के इस्तेमाल की ज़रूरत पैदा हो जाती है। नग्न बल के उपयोग का नतीजा कई बार यह होता है कि जनता का प्रतिरोध और प्रबल हो उठता है और क्रान्तिकारी स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं। इस सभी चीज़ों का सेना पर भी प्रभाव पड़ता है। ऐसे में अक्सर सेना के भी निचले हिस्से जनता के साथ शामिल हो जाते हैं।

पाकिस्तानी सेना में जनता के संघर्षों के प्रभाव के कई उदाहरण हैं। 1968–69 के दौरान पाकिस्तान में छात्रों, स्त्रियों, किसानों और मज़दूरों के कई आन्दोलन जारी थे। सेना के भीतर भी इन आन्दोलनों का गहरा प्रभाव पड़ा था। उस समय इन आन्दोलनों का निशाना फ़ील्ड मार्शल अयूब ख़ान था। उस समय निचले स्तरों के अतिरिक्त, सेना के उच्च स्तरों पर भी इन आन्दोलनों का प्रभाव पड़ने लगा था। सेना ने मार्शल लॉ लागू करने से इंकार कर दिया था। उसका कहना था कि अगर अयूब खान ही राष्ट्रपति बने रहते हैं तो मार्शल लॉ नहीं लगाया जाएगा। 1970 के चुनावों में सेना के बैरकों से सबसे अधिक वोट पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के उम्मीदवारों को मिले जो एक रैडिकल घोषणापत्र के साथ चुनाव लड़ रही थी। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की विजय के बाद जुल्फ़ीकार अली भुट्टो की सरकार बनी जिसने अपने कार्यक्रम पर अमल की बजाय पूँजीपति वर्ग की सेवा को दूसरे रूप में जारी रखा। सुधारवादी कार्यक्रम की इस असफ़लता के बाद सेना में भी निराशा फ़ैली। 1960 से लेकर 1970 के दशक पाकिस्तानी समाज में जनता के आन्दोलनों के दबदबे के दशक थे। 1970 के दशक की समाप्ति के बाद पीपीपी की असफ़लता और पाकिस्तान में वामपंथी धारा के तेज़ी से हृास और विश्व स्तर पर मज़दूर वर्ग के आन्दोलनों के पीछे हटने से पूरे पाकिस्तानी समाज में भी प्रतिक्रिया के हावी होने का दौर शुरू हुआ। पूँजीवादी व्यवस्था का आर्थिक संकट विश्व पैमाने पर गहराने लगा था। किसी प्रगतिशील नेतृत्व की गैर-मौजूदगी में धार्मिक कट्टरपंथ और प्रतिक्रिया ने अपना प्रभाव जमाना शुरू कर दिया। 1980 के दशक की शुरुआत तक पाकिस्तान पर प्रतिक्रिया की धारा एक बार फ़िर हावी हो चुकी थी। जिया उल हक़ का पूरा दौर इसी प्रतिक्रिया की धारा के हावी होने का प्रतीक था।

प्रतिक्रिया का यह दौर विभिन्न उतार-चढ़ावों से होकर पाकिस्तान में आज भी जारी है। आज फ़िर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार पाकिस्तान में काबिज है और सेना का पाकिस्तानी राजनीति और अर्थव्यवस्था में दख़ल उसी तरह बना हुआ है। पाकिस्तानी सेना के भीतर वर्ग अन्तरविरोधों का गहराना जारी और समाज के भीतर भी वर्ग अन्तरविरोध तेज़ी से गहरा रहे हैं। साथ ही पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था भी एक भँवर में फ़ँसी हुई है। ये स्थिति मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश वर्गों में एक भयंकर असन्तोष को जन्म दे रही है जो आने वाले समय में पाकिस्तान को भयंकर उथल-पुथल की तरफ़ ले जा सकता है। लेकिन वहाँ पर किसी क्रान्तिकारी नेतृत्वकारी शक्ति के न होने की समस्या भारत से भी ज़्यादा चिन्ताजनक रूप में मौजूद है। ऐसी किसी क्रान्तिकारी शक्ति की गैर-मौजूदगी में तमाम जनविद्रोह भी इतिहास को आगे ले जाने का काम नहीं कर सकते। देखना यही है कि इस पूरी संकटपूर्ण स्थिति को सम्भाल सकने वाली कोई क्रान्तिकारी शक्ति पाकिस्तान में जन्म ले पाती है या नहीं।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अप्रैल-जून 2009

 

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