यूनान में जनअसन्तोष के फूटने के निहितार्थ

शिवानी

दिसम्बर 2008 में यूनान ने अपने हालिया इतिहास की सबसे बड़ी हड़ताल और पुलिस द्वारा एक लड़के की गोली मार कर हत्या किये जाने के ख़िलाफ़ शुरू होने वाले प्रदर्शनों से पैदा हुए दंगों को देखा। पुलिस पर लोगों ने हमले किये, पत्थर और पेट्रोल बम फ़ेंके, संसद पर घेरा डाल दिया, देशव्यापी हड़ताल की और पूरे देश को ठप्प कर दिया। इस घटना को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने की आवश्यकता है।

greecea4यूनान में दंगों का भड़कना, देशव्यापी हड़ताल का होना कोई अलग-थलग घटना नहीं है। इसे आज के वैश्विक परिदृश्य के सन्दर्भों में ही देखा जाना चाहिए। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे विश्व पूँजीवाद के गहराते संकट के मद्देनज़र भी देखा जाना चाहिए। क्योंकि अब ऐसे संकट केवल साम्राज्यवादी लूट झेल रहे तीसरी दुनिया के देशों में ही भयंकर जन आक्रोश और असन्तोष को जन्म नहीं दे रहे हैं बल्कि यूरोप जैसे सापेक्षतः अधिक विकसित महाद्वीप के पिछड़े देशों में भी लोग इस मानवद्वेषी व्यवस्था का प्रतिकार कर रहे हैं। यूनान के दंगों और देशव्यापी हड़ताल ने इसी तथ्य को उजागर किया है।

यूनान में यह पिछले कुछ दशकों में हुई सबसे बड़ी हड़ताल है जिसने स्वतःस्फ़ूर्त ढंग से, अप्रत्याशित पैमाने पर छात्रों-युवाओं और मेहनतकश वर्गों की गोलबन्दी कर दी। समाज के आम निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय तबकों ने भी बढ़-चढ़कर इसमें भाग लिया। बढ़ती बेरोज़गारी, ग़रीबी और भ्रष्ट-अयोग्य सरकार और नौकरशाही के ख़िलाफ़ तो जनता में गुस्सा पहले से ही था। इस बारूद में चिंगारी देने का काम 6 दिसम्बर की रात को हुई उस घटना ने कर दिया जिसमें एक पुलिसकर्मी द्वारा एक पन्द्रह साल के स्कूल के बच्चे की गोली मारकर हत्या कर दी गई। इसके बाद देश भर में दंगों और प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हुआ जिसने कई जगहों पर, ख़ास तौर पर एथेंस में हिंसक रूप ग्रहण कर लिया। कई दिनों तक पूरी अर्थव्यवस्था ठप्प रही। बैंक और स्कूल पूरी तरह बन्द रहे, अस्पतालों में आपातकालीन सेवाएँ लागू कर दी गईं और हज़ारों यूनानियों ने नौकरियों से इस्तीफ़ा दे दिया। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि यूनानी समाज और अर्थव्यवस्था संक्रमण और उथल-पुथल के दौर से गुज़र रही है और यूनानी समाज एक ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा है।

यदि इन प्रतिरोध-प्रदर्शनों के पीछे के वास्तविक कारणों की पड़ताल की जाय तो पता चलता है कि जनता के बड़े हिस्से में, विशेषकर युवा आबादी के बीच एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के प्रति गहरी पैठी नफ़रत और निराशा है जो केवल अमीरों और धनाढ्य वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है और उन्हीं के हितों की पूर्ति और रक्षा करती है। निजीकरण और उदारीकरण की वैश्विक लहर से यूनानी अर्थव्यवस्था भी अछूती नहीं रही है। नवउदारवादी नीतियों के चलते, सार्वजनिक शिक्षा और सामाजिक सेवाओं को लगातार निजी हाथों में सौंपा जा रहा है और उन्हें अमीरों की बपौती बनाया जा रहा है। यदि केवल आँकड़ों की बात की जाय तो पूरे यूरोपीय संघ में यूनान में युवा बेरोज़गारी दर सबसे अधिक है, जो लगभग 28 से 29 प्रतिशत के बीच है। इसके कारण युवावस्था पार करने के बाद तक ज्यादातर नौजवान आर्थिक रूप से अपने माँ-बाप पर ही निर्भर रहते हैं। हाल के छात्र-युवा प्रदर्शन और दंगे एक ऐसे समाज का प्रतिबिम्बन हैं जो गहरे आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक संकट का शिकार है। किसी संगठित आन्दोलन और नेतृत्व के अभाव में यह उस व्यवस्था के ख़िलाफ़ जनता का असन्तोष है जिसमें वह अपना कोई भविष्य नहीं देखती। चौंकाने वाली बात यह है कि यूनान जैसे देश में भी 20 प्रतिशत से अधिक आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे गुज़र कर रही है। इस तथ्य से विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के सबसे निचले पायदानों पर बैठे देशों की स्थिति का अनुमान तो सहज ही लगाया जा सकता है।

यूनान की घटना विश्व पूँजीवाद के लिए अच्छी ख़बर नहीं है। वैसे भी गुज़रा साल विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के लिए बेहद ख़ौफ़नाक और दुस्वप्न की भाँति भयावह साबित हुआ। लगातार गहराता आर्थिक संकट, जिसका न कोई ओर नज़र आया न छोर; दुनिया भर के वित्तीय बाज़ारों में अप्रत्याशित मन्दी; खाद्यान्न संकट; तेल की लगातार बढ़ती कीमतें; बढ़ती महँगाई। इस बीते साल में क्या कुछ नहीं दे गया पूँजीवाद पूरी दुनिया को! हमने आह्वान के पिछले अंक में मन्दी पर आधारित लेख में साफ़ तौर पर बताया था कि पूँजीवाद का यह मौजूदा संकट हर साल-दो साल पर परेशान करने वाला कोई छोटा-मोटा आर्थिक संकट नहीं है, बल्कि एक लाइलाज, असमाधेय महासंकट है जिसका प्रेत आठ दशक की लम्बी यात्रा तय करके अपने ही माई–बाप को फ़िर सता रहा है। इस वर्ष के नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री पॉल क्रूगमैन ने भी इस आकलन को एक तरीके से पुष्ट करते हुए कहा कि वैश्विक वित्तीय संकट जल्द ही महामन्दी की शक्ल अख्तियार कर लेगा, यदि समय रहते उचित कदम नहीं उठाए । लेकिन श्रीमान क्रूगमैन शायद यह बताना भूल गये कि अन्तिम रोग से ग्रस्त, मृत्यु शैया पर आखिरी साँसें गिनता पूँजीवाद आख़िर ऐसा क्या करे कि उसकी खस्ता हालत सुधरे। कुल मिलाकर वह जो बता सके उसमें कुछ भी नया नहीं था। वही पुराना राज्य के हस्तक्षेप और कल्याणकारी नीतियों का राग! वह फ़ेल हो चुका है और फ़िर फ़ेल होगा। खै़र, इस समस्या के समाधान के लिए वह कुछ कह भी नहीं सकते क्योंकि वह भी जानते हैं इन समस्याओं का कोई स्थायी समाधान पूँजीवाद के पास मौजूद नहीं है। मन्दी और आर्थिक संकट आवर्ती क्रम में पूँजीवाद को सताते रहेंगे और एक मन्द मन्दी लगातार ही पूँजीवाद की छाती पर सवार रहेगी। अमेरिकी सरकार द्वारा दिया गया 700 अरब डॉलर का बेल-आउट पैकेज और उसके बाद दुनिया के अन्य देशों द्वारा दिये गये बेल-आउट और स्टिम्युलस पैकेज संकट के असर को कुछ समय के लिए टालने का माद्दा भी नहीं रखते हैं। और इन प्रयासों से यह मन्दी और विकराल रूप ही धारण करेगी।

यूनान में जो कुछ हुआ है वह विश्व पूँजीवाद के चौधरियों के लिए नींद उड़ा देने वाला है। कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि यूनान की ही तर्ज़ पर अन्य पिछड़े यूरोपीय देशों में भी जन प्रतिरोध का सिलसिला शुरू हो जाये। लेकिन यहाँ पर यह चर्चा बेहद ज़रूरी है कि असमाधेय संकट से ग्रस्त पूँजीवाद का अन्त अपने आप नहीं हो सकता और जनता के इस किस्म के स्वतःस्फ़ूर्त विद्रोह भी इसे धराशायी नहीं कर देंगे। यूनानी प्रतिरोध उल्लेखनीय है लेकिन यह व्यवस्था परिवर्तन नहीं कर सकता। अपने लाख संकटों के बावजूद पूँजीवाद आज पहले से अधिक चौकन्ना है। इसलिए पूँजीवाद को आज इसकी तार्किक परिणति तक पहुँचाने के काम को अंजाम देने के लिए आत्मगत शक्तियों के संगठन की आवश्यकता पहले से भी अधिक है। और चूँकि ऐसे संगठन की स्थितियाँ वस्तुगत तौर पर तीसरी दुनिया के देशों में अधिक मौजूद हैं, जो पिछले लम्बे समय से साम्राज्यवादी लूट-खसोट का चरागाह बने हुए हैं, इसलिए पूँजीवाद के ख़िलाफ़ क्रान्तियों की श्रृंखला की शुरुआत की उम्मीद भी यहीं से की जा सकती है। इस मायने में लेनिन की यह बात कि क्रान्तियों के तूफ़ान के नये केन्द्र तीसरी दुनिया के देश बनेंगे, आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। लेकिन दुर्भाग्यवश आज इन्हीं आत्मगत शक्तियों के संगठन का नितान्त अभाव नज़र आता है। मेहनतकश जनता के हिरावल आज खुद आपस में अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्नों पर बँटे हुए हैं। अधिकांश देशों में क्रान्तिकारी पार्टियाँ और ग्रुप पुरानी क्रान्तियों के अन्धानुकरण की सोच लिए बैठे हैं। कहीं पर दुस्साहसवाद और आतंकवादी लाइन का ज़ोर है तो कहीं सुधारवादी व्यवस्थापरस्त लाइन का ज़ोर। देश के भीतर की परिस्थितियों और विश्व साम्राज्यवाद की कार्य-पद्धति में आये बदलावों के बारे में इन संगठनों की कोई स्पष्ट समझदारी नहीं है। कुछ “मुक्त चिन्तन”׏ के शिकार हैं तो कुछ बदली परिस्थितियों से आँख मूँद लेने की मानसिकता से ग्रस्त हैं। इसीलिए, आत्मगत शक्तियाँ बिखरी हुई और भौतिक और बौद्धिक रूप से कमज़ोर हैं।

ऐसे हालात में विश्व पूँजीवाद जड़त्व की ताक़त से टिका हुआ है और अभी लम्बे समय तक टिका रह सकता है। लेकिन जिस गति से वह प्रकृति और मानव समाज में तबाही ला रहा है, उससे उम्मीद की जा सकती है कि यह नयी सदी निर्णायक तौर पर आत्मगत शक्तियों की तैयारी और पूँजीवाद के ख़ात्मे का गवाह बनेगी।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2009

 

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