लोकसभा चुनावों के ड्रेस रिहर्सल में कांग्रेस को बढ़त लेकिन…
जीते कोई भी, हारेगी जनता ही!
सम्यक जोशी
हाल ही में दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिज़ोरम में और उसके बाद कश्मीर में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हुए और इन पाँच में तीन राज्यों में कांग्रेस को विजय प्राप्त हुई। दिल्ली में तीसरी बार शीला दीक्षित की सरकार बनी जो एक रिकॉर्ड था। राजस्थान में भी कांग्रेस को विजय प्राप्त हुई और मिज़ोरम में कांग्रेस ने एम.एन.एफ़. के किले में सेंध लगाकर विजय प्राप्त की। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने आतंकवाद को मुद्दा बनाने की बजाय स्थानीय मुद्दों को प्राथमिकता दी और निम्न मध्य वर्ग और मध्य वर्ग का प्रतिनिधि होने की अपनी छवि को भुनाया। छत्तीसगढ़ में रमन सिंह ने यही फ़ार्मुला अपनाया और साथ ही छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वनवासी कल्याण परिषद के कामों को भी उन्होंने खूब फ़ायदा उठाते हुए जीत हासिल की। लेकिन दिल्ली, राजस्थान और मिज़ोरम में पराजय और कश्मीर में पहले से बेहतर प्रदर्शन करने के बावजूद किसी प्रभावी स्थिति में न आ पाने की हालत ने भाजपा को अन्दर से हिलाकर रख दिया। आडवाणी की शक्ल पर प्रधानमन्त्री बनने के आखिरी प्रयास को भी बेकार जाता देखने की हताशा साफ़ नज़र आ रही थी। हार की बौखलाहट को भाजपा पचा नहीं पा रही थी।
विधानसभा चुनावों के ठीक पहले मुम्बई हमले हुए तो भाजपा को लगा था कि इन हमलों के बाद आतंकवाद के मुद्दे को गरमाकर असुरक्षा और मुसलमान–विरोध और पाकिस्तान से नफ़रत की लहर उभार कर वह सत्ता में आ सकती है। लेकिन आतंकवाद पर उसके भोंड़े और बेशरम प्रचार से जनता के बड़े हिस्से को उबकाई ही आ रही थी। दूसरी बात यह कि जिस हेमन्त करकरे को भाजपा साज़िश करने वाला और कांग्रेस का टट्टू बता रही थी वह भी मुम्बई के हमलों में मारे गये। एंटी टेरर स्क्वाड के प्रमुख करकरे संघी आतंकवाद की जाँच कर रहे थे और नांदेड़ और कानपुर में हुए बम धमाकों में पकड़े गये संघ के लोगों से पूछताछ कर रहे थे। करकरे के मारे जाने से भाजपा की स्थिति अजीब तरीके से शर्मनाक बन गयी। अभी तीन दिन पहले जिसे दलाल और ग़द्दार की उपाधि दी जा रही थी अब उसे आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ते हुए जान देने वाले सिपाही का सम्मान देना था। हालत न उगलते बन रही थी और न निगलते। कांग्रेस नेतृत्व ने आतंकवादी हमलों पर अपेक्षाकृत सन्तुलित रुख़ अपनाते हुए बाज़ी मार ली और भाजपा के चन्द ट्रेडमार्क मुद्दों में से एक को उसकी झोली से उड़ा लिया। हिन्दुत्ववादी आतंकवादियों के पकड़े जाने से भी भाजपा की पूरे देश में काफ़ी किरकिरी हुई थी। इन सब कारकों ने मिलकर भाजपा के लाख प्रयासों के बावजूद आतंकवाद-विरोधी प्रचार को बेअसर कर दिया। स्थानीय मुद्दों को लेकर भाजपा हाईकमान दिल्ली, राजस्थान, मिज़ोरम और कश्मीर में कुछ कर नहीं सकती थी या कर नहीं पाई। सिर्फ़ आतंकवाद के बूते चुनाव जीतने का सपना चूर–चूर हो गया।
दूसरी तरफ़, कांग्रेस ने इन राज्यों में भाजपा की आंतरिक कलह को जमकर फ़ायदा उठाया और स्थानीय मुद्दों पर और विकास के मुद्दे पर निर्भर करते हुए चुनाव लड़ा और आराम से जीत हासिल कर ली। कांग्रेस की अपनी तमाम समस्याएँ हैं। उसके पास राजनीतिक बाज़ीगरी और धोखाधड़ी में मंझा हुआ एक अनुभवी नेतृत्व नहीं है। लेकिन भाजपा के आपसी झगड़ों के कारण उसे इस कमी का कोई विशेष नुकसान नहीं उठाना पड़ा। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा फ़ासीवादी राजनीति के सर्वश्रेष्ठ रूप में थी। मोदी मॉडल को अपने तईं लागू करने का काम शिवराज सिंह चौहान ने अपने पहले कार्यकाल में बखूबी किया। साईकिल पर कार्यालय जाने जैसे मीडिया गिमिक्स का भी चौहान को भरपूर फ़ायदा मिला। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृणमूल कामों को चौहान ने अच्छा इस्तेमाल किया और उसे वोट में रूपान्तरित करने में कामयाब रहे। छत्तीसगढ़ में रमन सिंह ने आदिवासियों में आधार बनाने पर पूरा ज़ोर दिया था जिसका फ़ल उन्हें विधानसभा चुनावों में जीत के रूप में मिला।
कश्मीर में अलगाववादियों को एक नुकसान का सामना करना पड़ा। वोटर टर्नअप पिछले चुनावों से अधिक रहा जिससे साफ़ ज़ाहिर हुआ कि कश्मीर की बड़ी आबादी को यह महसूस होने लगा है कि अलग देश की माँग किसी अर्थपूर्ण नतीजे में फ़लीभूत नहीं हो पा रही है। कोई ऐसा संगठन भी नहीं मौजूद है जो इस माँग को पुरज़ोर तरीके से उठाए। एक विचारणीय आबादी छोटे-छोटे संगठनों के रूप में या बिना किसी नेतृत्व के भारतीय शासन के दमनात्मक रवैये के ख़िलाफ़ हमेशा से सड़कों पर उतरती रही है और अब भी उतरती है, जैसा कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद के रूप में सामने भी आया था। लेकिन भारत-विरोधी जनभावना किसी ठोस कार्यकारी नतीजे या कदम में परिणत नहीं हो पा रही है। कोई और विकल्प मौजूद न होने की सूरत में कश्मीर की आबादी का एक हिस्सा अब समायोजित होता जा रहा है। लेकिन अभी भी यह एक बाध्यता है चयन नहीं। कहने की ज़रूरत नहीं कि इस स्थिति के लिए आज़ादी के बाद से अब तक की दमनकारी केन्द्रीय नीतियाँ, सेना और पुलिस द्वारा उत्पीड़न और आर्थिक और सामाजिक उपेक्षा ज़िम्मेदार हैं। कश्मीरी जनता का भारत से दूर खिसकना अपने आप नहीं हुआ है। इसी का लाभ पाकिस्तान का शासक वर्ग उठाता है और साथ ही इस्लामी कट्टरपंथियों को भी एक ज़मीन मिल जाती है। कश्मीर के चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस सबसे बड़े दल के रूप में उभरा और कांग्रेस के समर्थन से उसने सरकार बनाई है। भाजपा को जम्मू में काफ़ी फ़ायदा मिला जिसकी वजह अमरनाथ विवाद थी। लेकिन इसके बावजूद उसे पैर जमाने जैसी हालत भी नसीब नहीं हो पाई। कश्मीर का मुद्दा और वहाँ की राजनीति अलग से विस्तृत चर्चा की माँग करते हैं जिसकी यहाँ गुंजाइश नहीं है।
इस सारी चुनावी उठा-पठक में हमेशा की तरह एक बात उभर कर सामने आई है। वोटरों के उत्साह में कोई वृद्धि नहीं आई है। किसी भी राज्य में 50 से 60 फ़ीसदी वोटर ही वोट डालने गये। मिज़ोरम एक अपवाद था जहाँ सभी उत्तर–पूर्वी राज्यों की तरह वोटर टर्नअप ज़्यादा था, जिसकी अपनी ऐतिहासिक राजनीतिक वजहें हैं। लगभग आधे वोटर वोट डालने ही नहीं जाते जिससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि एक बड़ी आबादी यह समझ चुकी है कि कोई भी चुनावी पार्टी जीते उसकी किस्मत में कोई बदलाव नहीं आने वाला। जो वोटर वोट डालने जाते भी हैं उसमें एक छोटी-सी आबादी ही होती है, ख़ास तौर पर पढ़े-लिखे मध्यवर्ग की आबादी, जो किसी पार्टी में विश्वास के साथ वोट डालने जाती है। वोट डालने वालों में एक विचारणीय हिस्सा ऐसे लोगों का होता है जो बेहद ग़रीब होता है और अपना वोट बेचता है। वोटों का एक अच्छा-खासा हिस्सा फ़र्जी वोटिंग से आता है। इसके अतिरिक्त, जो बचते हैं वह विकल्पहीनता की स्थिति में कभी इस तो कभी उस चुनावी दलाल को वोट डालते हैं। वोट डालना संस्कृति और आदत में शुमार होता है और इसके चलते वे किसी न किसी को वोट डाल आते हैं लेकिन वे किसी ग़लतफ़हमी के शिकार नहीं होते हैं। एक हिस्सा ऐसे वोटरों का भी होता है जो जाति और धर्म या क्षेत्र का मिलान करके वोटे डालता है। वह भी किसी ग़फ़लत में नहीं होता। किसी पार्टी में विश्वास रखने के कारण वोट डालने वाले तो 10 प्रतिशत भी मुश्किल से ही होते हैं। अगर इसे ही सच्ची वोटिंग माना जाय तो इसमें से जीतने वाली पार्टी को मुश्किल से 3 या 4 प्रतिशत वोट मिलते हैं और इस तरह यह जनता के कुल हिस्से के मात्र 1 या 2 प्रतिशत की ही नुमाइंदगी करती है। यह है पूँजीवादी चुनावों और जनतंत्र का छल। यहाँ हमने इस बात पर तो कोई चर्चा ही नहीं की कि चुनाव लड़े कैसे जाते हैं, उसमें बहाये जाने वाले करोड़ों-अरबों रुपये कहाँ से आते हैं और जीतने पर चुनावी पार्टियाँ किसकी धुन पर नाचती हैं!
आम छात्रों-नौजवानों और मेहनतकशों के सामने समझने की बात यह है कि जब तक कोई क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा नहीं किया जाता तब तक चुनाव तो होते ही रहेंगे। लेकिन उसमें चुनने के लिए हमारे सामने नागनाथ, साँपनाथ, मगरमच्छ और अन्य खाफ़ैनाक जंगली जानवरों के ही विकल्प होंगे। हमें बस चुनना यह होगा कि हम किसके हाथों मरना पसन्द करेंगे! जब तक कोई विकल्प नहीं पैदा होता तब तक जनता का एक हिस्सा कभी इस तो कभी उस पार्टी के भरोसे नैया पार लगाने की उम्मीद में वोट डालता रहेगा। सभी जानते हैं कि इन पार्टियों के असली आका कौन हैं, इनकी आर्थिक और राजनीतिक नीतियाँ क्या हैं। आज परिवर्तनकामी छात्रों और नौजवानों के समक्ष यही चुनौती है कि वे एक ऐसे क्रान्तिकारी विकल्प का निर्माण करें जो एक सच्ची जन व्यवस्था को खड़ा कर सके; जिसमें उत्पादन, राज-काज और पूरे समाज के ढाँचे पर धनपशुओं और उनके भाड़े के टट्टुओं का नहीं बल्कि उत्पादन करने वाले आम मेहनतकशों का हक़ होगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2009
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