माया की माला और भारतीय पूँजीवादी जनतंत्र के कुछ जलते सवाल
सत्यप्रकाश
बहुजन समाज पार्टी के 25वे स्थापना दिवस पर पिछले दिनों बसपा की नेता और उत्तर प्रदेश की मुख्यमन्त्री मायावती को करोड़ों रुपये के नोटों की माला पहनायी गयी। चैनल वालों ने बाकायदा हज़ार–हज़ार के नोटों का हिसाब लगाकर बता दिया कि माला में कम से कम 22 करोड़ रुपये के नोट तो होंगे ही। वैसे तो मायावती हर साल अपने जन्मदिन पर करोड़ों रुपये के उपहार बटोरती थीं। इसके लिए उनके उत्साही समर्थक प्रदेश भर में सरकारी मशीनरी और धौंस का इस्तेमाल करके जमकर वसूली करते थे। मगर इन उपहारों को पार्टी फण्ड के लिए “जनता” का सहयोग कहकर ऐसे आरोप खारिज कर दिये जाते थे। लेकिन एनाकोण्डा जैसी इस 22 करोड़ की माला को छिपाना मुश्किल था। सारी पार्टियों वाले फौरन टूट पड़े। इसके जवाब में बसपा ने अगले दिन फिर मायावती को 18 लाख के नोटों की माला पहनायी और ऐलान कर दिया कि वे बार–बार मायावती को ऐसी लखटकिया मालाएँ पहनाते रहेंगे। दूसरी पार्टियों को इसकी निन्दा करने का कोई हक नहीं है क्योंकि उनके नेता खुद भी कभी सोने का मुकुट पहनते हैं तो कभी चाँदी की तलवार प्राप्त करते हैं, आदि–आदि।
वाह क्या तर्क है! इस देश की तीन चौथाई आबादी बेहद ग़रीबी में जीती है। 84 करोड़ लोग महज़ 20 रुपये रोज़ पर गुज़ारा करते हैं और उत्तर प्रदेश की आबादी में ग़रीबों का प्रतिशत सबसे ज़्यादा है। जिस दलित आबादी का मायावती प्रतिनिधि होने का दम भरती हैं उसका नब्बे प्रतिशत से अधिक हिस्सा जानलेवा और अपमानजनक गरीबी में डूबा हुआ है। मगर मायावती इन दबे–कुचले लोगें की आर्थिक– राजनीतिक–सांस्कृतिक मुक्ति के लिए कुछ करने के बजाय अरबों की सम्पत्ति बटोरने और खुद को जीवित देवी घोषित करने में लगी हुई हैं। आज अगर डॉ. अम्बेडकर होते तो उनके नाम पर की जा रही राजनीति के इस रूप को देखकर वे भी शर्मा जाते। दलित मुक्ति की परियोजना को लेकर अम्बेडकर के चाहे जो भी विचार हों, मगर वे पश्चिमी पूँजीवादी जनतन्त्र के मूल्यों की बात करते थे जिसमें लोभ–लालच और अन्धी महत्वाकांक्षा के ऐसे फूहड़ प्रदर्शन की जगह नहीं थी।
यह बात पूरी तरह सही है कि दूसरी पार्टियों के नेता भला किस मुँह से मायावती की माला की निन्दा करेंगे ? उनमें से कोई चाँदी के सिंहासन पर बैठता है, कोई मंच पर सोने का मुकुट धारण करता है, कोई चाँदी की तलवार स्वीकार करता है तो किसी को लाखों के सिक्कों से तौला जाता है। ज़ाहिर है, इन पार्टियों की ज़मीन पर खड़े होकर मायावती की आलोचना करने का कोई मतलब नहीं है। मगर क्या इसका जवाब यही है कि जो–जो इन पार्टियों और नेताओं ने किया है, वह सब हम भी करेंगे, उनसे भी चार कदम आगे बढ़कर करेंगे ? क्या अरबों रुपये खर्च करके विशालकाय स्मारक और मूर्तियाँ बनवाने से दलित मुक्ति की परियोजना एक क़दम भी आगे बढ़ेगी ? माना कि सदियों से अपमानित–लांछित दलित आबादी में सम्मान की प्रबल चाहत है, लेकिन बहुसंख्यक दलित आबादी के जीवन की अपमानजनक परिस्थितियों को खत्म किये बिना क्या उन्हें समाज में सम्मान और बराबरी हासिल हो सकेंगे ?
दलित अवाम की मुक्ति के बारे में डॉ– अम्बेडकर के विचार यूटोपियाई थे। मन्दिर प्रवेश या बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेने से, या कुछ प्रतिशत दलितों को आरक्षण मिल जाने से अनुसूचित जातियों की भारी आबादी के जीवन में कोई खास फर्क नहीं पड़ना था। आज़ादी के बाद के 62 साल के अनुभव ने इसे साबित भी कर दिया है।
इस देश के सामाजिक ताने–बाने में हज़ारों साल से निरंकुशता और जनवाद का अभाव रहा है जिसे 200 वर्षों की गु़लामी ने और बढ़ा दिया। दलित जातियों का बर्बर शोषण–दमन इस निरंकुश सामाजिक ढाँचे की सबसे बड़ी विशेषता रही है। परम्पराओं, रीति–रिवाजों, कर्मकाण्डों और देवी–देवताओं के नाम पर दलित जातियों पर उत्पीड़न और अपमान का कहर बरपा किया जाता रहा है। ग़रीबों को लूट और निचोड़कर समाज के हैसियतदार लोग अपनी विलासिताओं और सनकों पर पानी की तरह पैसा बहाते और जश्न मनाते रहे हैं। ऐसे में जिस आबादी के लोगों में नायक पूजा और देवी पूजा से सबसे अधिक नफरत होनी चाहिए थी, वे अगर “जीवित देवी” को बर्दाश्त कर रहे हैं तो यह समाज परिवर्तन की चाहत रखने वाले लोगों के लिए बेहद चिन्ता का विषय है। जिस समुदाय के नौजवानों में ऐश्वर्य के ऐसे पू़हड़ तमाशों के प्रति घृणा भरी होनी चाहिए थी वे अगर उसके विरुद्ध आवाज़ नहीं उठाते तो इसे कतई स्वीकार्य नहीं कहा जा सकता। यह सब महज़ इसलिए मान लिया जाता है कि उनके बीच से कोई व्यक्ति ऊपर उठकर वही सबकुछ कर रहा है जो पहले उनके “मालिक” लोग किया करते थे, और इससे दलित अवाम के चोट खाये स्वाभिमान पर मरहम लगता है! मगर यह एक भयंकर ऐतिहासिक मिथ्याभास है। यह अपने आप को झूठी तसल्ली देने के सिवा और कुछ नहीं है। आज भी इस देश की बहुसंख्यक दलित आबादी गाँवों में गरीबी और भुखमरी के दलदल में धँसी हुई है। बेशक पुराने बर्बर सामन्ती उत्पीड़न और अपमान से उसे एक हद तक आज़ादी मिली है, लेकिन आज भी वह ग्रामीण जीवन के सबसे निचले पायदान पर बस किसी तरह जी रही है। गाँवों से उजड़कर शहरों में मज़दूरी करने वाली भारी गरीब आबादी में भी दलितों का बहुत बड़ा हिस्सा है जो बस जीने लायक मज़दूरी पर नरक से भी बदतर हालात में रहकर काम कर रहे हैं। उनकी हालत में इन सब अनुष्ठानों से क्या बदलाव आने वाला है ?
इतिहास में हमेशा ही शासक वर्ग जनता की चेतना को अनुकूलित करके उससे अपने ऊपर शासन करने की अनुमति लेते रहे हैं। यहाँ भी ऐसा ही हो रहा है। जब तक मायावती जैसे नेताओं का यह तर्क आम दलित आबादी के बीच स्वीकारा जाता रहेगा कि जो कुछ सवर्ण करते रहे हैं, वही सबकुछ करने की उन्हें भी छूट है, तब तक व्यापक दलित जनता की मुक्ति का वास्तविक आन्दोलन आगे नहीं बढ़ेगा।
मायावती की राजनीति पर दलित समाज के भीतर से पुरज़ोर आवाज़ों का अब तक न उठना, न्यूनतम जनवादी चेतना की कमी को दिखलाता है। यह काफी चिन्ता की बात है और दलित जातियों के सोचने–समझने वाले बाले नौजवान जब तक इस सवाल पर नहीं सोचेंगे तब तक आम दलित आबादी की ज़िन्दगी में बुनियादी बदलाव लाने की लड़ाई आगे नहीं बढ़ जाएगी। इसके लिए दलित समाज के भीतर व्यापक सांस्कृतिक कार्रवाइयां और प्रबोधन के काम को हाथ में लेना होगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2010
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