Category Archives: साहित्‍य और कला

उपन्यास ‘वन हण्ड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड’ का एक अंश – केला बागान मज़दूरों का क़त्लेआम / गाब्रियल गार्सिया मार्केस

केला बागान मज़दूरों का क़त्लेआम (गाब्रियल गार्सिया मार्केस के उपन्यास ‘वन हण्ड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड’ का एक अंश) नया औरेलियानो अभी एक वर्ष का था जब लोगों के बीच मौजूद तनाव बिना किसी पूर्वचेतावनी के फूट पड़ा। खोसे आर्केदियो सेगुन्दो और अन्य यूनियन नेता जो अभी तक भूमिगत थे, एक सप्ताहान्त को अचानक प्रकट हुए और पूरे केला क्षेत्र के कस्बों में उन्होंने प्रदर्शन आयोजित किये। पुलिस बस सार्वजनिक व्यवस्था बनाये रखती रही। लेकिन सोमवार की रात को यूनियन नेताओं को उनके घरों से उठा लिया गया और उनके पैरों में दो-दो पाउण्ड लोहे की बेड़ियाँ डालकर प्रान्त की राजधानी में जेल भेज दिया गया। पकड़े गये लोगों में खोसे आर्केदियो सेगुन्दो और लोरेंज़ो गाविलान भी थे। गाविलान मेक्सिको की क्रान्ति में कर्नल रहा था जिसे माकोन्दो में निर्वासित किया गया था। उसका कहना था कि वह अपने साथी आर्तेमियो क्रुज़ की बहादुरी का साक्षी रहा था। लेकिन उन्हें तीन महीने के भीतर छोड़ दिया गया क्योंकि सरकार और केला कम्पनी के बीच इस बात पर समझौता नहीं हो सका कि जेल में उन्हें खिलायेगा कौन। इस बार मज़दूरों का विरोध उनके रिहायशी इलाक़ों में साफ-सफाई की सुविधाओं की कमी, चिकित्सा सेवाओं के न होने और काम की भयंकर स्थितियों को लेकर था। इसके अलावा उनका कहना था कि उन्हें वास्तविक पैसों के रूप में नहीं बल्कि पर्चियों के रूप में भुगतान किया जाता है जिससे वे सिर्फ़ कम्पनी की दुकानों से वर्जीनिया हैम ख़रीद सकते थे।

गाब्रियल गार्सिया मार्खेस : यथार्थ का मायावी चितेरा

गाब्रियाल गार्सिया मार्खेस, यथार्थ के कवि, जो इतिहास से जादू करते हुए उपन्यास में जीवन का तानाबाना बुनते हैं, जिसमें लोग संघर्ष करते हैं, प्यार करते हैं, हारते हैं, दबाये जाते हैं और विद्रोह करते हैं। ब्रेष्ट ने कहा था साहित्य को यथार्थ का “हू-ब-हू” चित्रण नहीं बल्कि पक्षधर लेखन करना चाहिए। मार्खेस के उपन्यासों में, विशेष कर “एकान्त के सौ वर्ष”, “ऑटम ऑफ दी पेट्रियार्क” और “लव एण्ड दी अदर डीमन” में उनकी जन पक्षधरता स्पष्ट दिखती है। मार्खेस के जाने के साथ निश्चित तौर पर लातिन अमेरिकी साहित्य का एक गौरवशाली युग समाप्त हो गया। उनकी विरासत का मूल्यांकन अभी लम्बे समय तक चलता रहेगा क्योंकि उनकी रचनाओं में जो वैविध्य और दायरा मौजूद है, उसका आलोचनात्मक विवेचन एक लेख के ज़रिये नहीं किया जा सकता है। लेकिन इस लेख में मार्खेस के जाने के बाद उन्हें याद करते हुए हम उनकी रचना संसार पर एक संक्षिप्त नज़र डालेंगे। आगे हम ‘आह्वान’ में और भी विस्तार से मार्खेस की विरासत का एक आलोचनात्मक विश्लेषण रखेंगे।

यह आर्तनाद नहीं, एक धधकती हुई पुकार है!

जागो मृतात्माओ!
बर्बर कभी भी तुम्हारे दरवाज़े पर दस्तक दे सकते हैं।
कायरो! सावधान!!
भागकर अपने घर पहुँचो और देखो
तुम्हारी बेटी कॉलेज से लौट तो आयी है सलामत,
बीवी घर में महफूज़ तो है।
बहन के घर फ़ोन लगाकर उसकी भी खोज-ख़बर ले लो!
कहीं कोई औरत कम तो नहीं हो गयी है
तुम्हारे घर और कुनबे की?

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट – दुख के कारणों की तलाश का कलाकार

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की कला की मुख्य प्रवृत्ति पूँजीवादी नज़रिये पर तीखा प्रहार करना है। अपने नाटकों और कविताओं में इन्होंने शिक्षात्मक पहलू के साथ ही कलात्मकता के बेहतरीन मानदण्डों को बरकरार रखा। अपने नाटकों में ब्रेष्ट ने दुखों का केवल बख़ान करके ही नहीं छोड़ दिया, बल्कि उनके कारणों की गहराई तक शिनाख़्त भी की। ब्रेष्ट ने अपने नाटकों में रूप और अन्तर्वस्तु दोनों ही दृष्टियों से एक अलग सौन्दर्यशास्त्र का अनुपालन किया, जिसे इन्होंने ‘एपिक थिएटर’ का नाम दिया।

पीट सीगर (1919-2014) – जनता की आवाज़ का एक बेमिसाल नुमाइन्दा

सीगर 1990 के दशक में भी अपनी काँपती आवाज़ में जनसभाओं और आन्दोलनों में गाते रहे। उनकी आवाज़ में एक ऐसी ईमानदारी, जीवन के प्रति भरोसा और प्यार, इंसानियत के प्रति विश्वास और साथीपन झलकता था कि लगभग हमेशा ही समूची भीड़ उनके साथ गाने लगती थी। 2000 के दशक में भी वयोवृद्ध होने के बाद भी उन्होंने अपनी सांगीतिक सक्रियता को छोड़ा नहीं। यहाँ तक कि उन्होंने ‘ऑक्युपाई’ आन्दोलन में भी गाया।

कविता – लेनिन जिन्दाबाद / बेर्टोल्ट ब्रेष्ट Poem – The Unconquerable Inscription / Bertolt Brecht

तब जेल के अफ़सरान ने भेजा एक राजमिस्त्री।
घण्टे-भर वह उस पूरी इबारत को
करनी से खुरचता रहा सधे हाथों।
लेकिन काम के पूरा होते ही
कोठरी की दीवार के ऊपरी हिस्से पर
और भी साफ़ नज़र आने लगी
बेदार बेनज़ीर इबारत –
लेनिन ज़िन्दाबाद!
तब उस मुक्तियोद्धा ने कहा,
अब तुम पूरी दीवार ही उड़ा दो!

चिनुआ अचेबे को श्रृद्धांजलि

बकौल चिनुआ अचेबे उन्होंने अपने लेखन के ज़रिये अफ्रीका की सांस्कृतिक विभिन्नताओं को इसलिए चित्रित किया, क्योंकि उसकी मौजूदगी को विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियों के बरक्स दिखाया जा सके। अपने एक निबन्ध ‘द रोल ऑफ़ ए राइटर इन न्यू नेशन’ में उन्होंने ज़ोर दिया कि दुनिया को इस बात का एहसास दिलाना ज़रूरी है कि अफ्रीकियों के पास भी अपनी सभ्यता-संस्कृति है। हालाँकि उनके लेखन में और विचारों में कई जगह विरोधाभास मिलते हैं, लेकिन सत्तावाद और निरंकुशता का विरोध और जनपक्षधरता उनकी विशेषता रही। आह्वान की ओर से उन्हें श्रद्धांजलि!

अमीरी बराका को श्रृद्धांजली

अफ्रीकी-अमेरिकी जनता और दुनियाभर के मेहनतकशों एवं शोषितों-उत्पीड़ितों के मुक्ति संघर्षों को अपनी कलम से आवाज़ देनेवाले लेखक, कलाकार, नाटककार, गीतकार, कवि और प्रखर मार्क्सवादी बुद्धिजीवी तथा कार्यकर्ता अमीरी बराका का पिछले दिनों 9 जनवरी 2014 को निधन हो गया। उनके लिए कला समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन का हथियार थी। वह कुर्सीतोड़ बुद्धिजीवी नहीं थे, बल्कि जनता के संघर्षों के भागीदार थे। अमीरी बराका (ली रॉइ जोन्स) का जन्म 7 अक्टूबर 1934 को अमेरिका के न्यू जर्सी स्थित न्यूयार्क शहर में हुआ। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1960 के दशक में काली जनता के सिविल राइट मूवमेण्ट में शिरकत से की। इस पूरे दौर में वह काले राष्ट्रवाद के हिमायती थे। 1970 के दशक के मध्य में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से उनका मोहभंग हो गया और मार्क्सवाद-लेनिनवाद उनके चिन्तन का आधार बन गया।

ज़ख़्म

बदलते हुए मौसमों की तरह राजधानी में साम्प्रदायिक दंगों का भी मौसम आता है। फर्क इतना है कि दूसरे मौसमों के आने-जाने के बारे में जैसे स्पष्ट अनुमान लगाये जा सकते हैं वैसे अनुमान साम्प्रदायिक दंगों के मामले में नहीं लगते। फिर भी पूरा शहर यह मानने लगा है कि साम्प्रदायिक दंगा भी मौसमों की तरह निश्चित रूप से आता है। बात इतनी सहज-साधारण बना दी गयी है कि साम्प्रदायिक दंगों की ख़बरें लोग इसी तरह सुनते हैं जैसे “गर्मी बहुत बढ़ गयी है’ या “अबकी पानी बहुत बरसा’ जैसी ख़बरें सुनी जाती हैं। दंगों की ख़बर सुनकर बस इतना ही होता है कि शहर का एक हिस्सा कर्फ्यूग्रस्त हो जाता है। लोग रास्ते बदल लेते हैं। इस थोड़ी-सी असुविधा पर मन-ही-मन कभी-कभी खीज जाते हैं, उसी तरह जैसे बेतरह गर्मी पर या लगातार पानी बरसने पर कोफ़्त होती है। शहर के सारे काम यानी उद्योग, व्यापार, शिक्षण, सरकारी काम.काज सब सामान्य ढंग से चलता रहता है। मन्त्रिमण्डल की बैठकें होती हैं। संसद के अधिवेशन होते हैं। विरोधी दलों के धरने होते हैं। प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं पर जाते हैं, मंत्री उद्घाटन करते हैं, प्रेमी प्रेम करते हैं, चोर चोरी करते हैं। अखबार वाले भी दंगे की ख़बरों में कोई नया या चटपटापन नहीं पाते और प्रायः हाशिये पर ही छाप देते हैं। हाँ मरने वालों की संख्या अगर बढ़ जाती है तो मोटे टाइप में ख़बर छपती है, नहीं तो सामान्य।

कविता : एस.ए.* सैनिक का गीत / बेर्टोल्ट ब्रेष्ट Poem : Song of the S.A. Man / Bertolt Brecht

और मार्च करते हुए मेरे साथ था शामिल
जो था उनमें सबसे मोटा
और जब मैं चिल्लाया ‘रोटी दो काम दो’
तो मोटा भी चिल्लाया।
टुकड़ी के नेता के पैरों पर थे बूट
जबकि मेरे पैर थे गीले
मगर हम दोनों मार्च कर रहे थे
कदम मिलाकर जोशीले।
मैंने सोचा बायाँ रास्ता ले जायेगा आगे
उसने कहा मैं था ग़लत
मैंने माना उसका आदेश
और आँखें मूँदे चलता रहा पीछे।