Category Archives: साहित्‍य और कला

उद्धरण

व्लादीमिर मयाकोव्स्की की 81वीं पुण्यतिथि (14 अप्रैल) के अवसर पर… कविता में लय… लय की मूलभूत गूँज कहाँ से आती है, मैं यह नहीं जानता। मेरे लिये यह मेरे भीतर…

समझदारों का गीत

हवा का रुख़ कैसा है, हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं खून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं

य’ शाम है… शमशेर बहादुर सिंह

य’ शाम है
कि आसमान खेत हैं पके हुए अनाज का
लपक उठीं लहू-भरी दराँतियाँ
-कि आग है :
धुआँ-धुआँ
सुलग रहा
ग्वालियार के मजूर का हृदय

कौयनर महाशय की कहानियाँ

एक आदमी जिसने ‘क’ महाशय को काफी लम्बे अरसे से नहीं देखा था, मिलने पर उनसे कहा-‘आप तो बिल्कुल भी नहीं बदले।’

‘अच्छा’। महाशय ‘क’ ने कहा और पीले पड़ गये।

उद्धरण

दुनिया प्रगति कर रही है, उसका भविष्य उज्ज्वल है, तथा इतिहास की इस आम धारा को कोई नहीं बदल सकता। हमें दुनिया की प्रगति और उसके उज्ज्वल भविष्य से सम्बन्धित तथ्यों का जनता में प्रचार करते रहना चाहिए, ताकि उसके अन्दर विजय का विश्वास पैदा किया जा सके।

उद्धरण

केवल उन किताबों को प्यार करो जो ज्ञान का स्रोत हों, क्योंकि सिर्फ़ ज्ञान ही वन्दनीय होता है; ज्ञान ही तुम्हें आत्मिक रूप से मज़बूत, ईमानदार और बुद्धिमान, मनुष्य से सच्चा प्रेम करने लायक, मानवीय श्रम के प्रति आदरभाव सिखाने वाला और मनुष्य के अथक एवं कठोर परिश्रम से बनी भव्य कृतियों को सराहने लायक बना सकता है।

बाज़ का गीत

“हां मर रहा हूँ!” गहरी उसाँस लेते हुए बाज ने जवाब दिया। ‘ख़ूब जीवन बिताया है मैंने!…बहुत सुख देखा है मैंने!…जमकर लड़ाइयाँ लड़ी हैं!…आकाश की ऊँचाइयाँ नापी हैं मैंने…तुम उसे कभी इतने निकट से नहीं देख सकोगे!…तुम बेचारे!’

फासीवादियों के सामने फिर घुटने टेके उदार पूँजीवादी शिक्षा तन्त्र ने

स्पष्ट है कि हमेशा की तरह शिक्षा का प्रशासन अपने सेक्युलर, तर्कसंगत और वैज्ञानिक होने के तमाम दावों के बावजूद तर्क की जगह आस्था को तरजीह दे रहा है और फासिस्ट ताकतों के सामने घुटने टेक रहा है। यह प्रक्रिया सिर्फ दिल्ली विश्वविद्यालय तक सीमित नहीं है। आपको याद होगा कि मुम्बई विश्वविद्यालय ने रोहिण्टन मिस्त्री की पुस्तक को शिवसेना के दबाव में आकर पाठ्यक्रम से हटा दिया। इस तरह की तमाम घटनाएँ साफ़ तौर पर दिखलाती हैं कि पाठ्यक्रमों का फासीवादीकरण केवल तभी नहीं होगा जब साम्प्रदायिक फासीवादियों की सरकार सत्ता में होगी। धार्मिक बहुसंख्यावाद के आधार पर राजनीति करने वाली साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतें जब सत्ता में नहीं होंगी तो भी भावना और आस्था की राजनीति और वर्ग चेतना को कुन्द करने वाली राजनीति के बूते नपुंसक सर्वधर्म समभाव की बात करने वाली सरकारों को चुनावी गणित के बूते झुका देंगी। ऐसा बार-बार हुआ है। शिक्षा के क्षेत्र में भी और राजनीति के क्षेत्र में भी।

उद्धरण

“धार्मिक दृष्टिकोण के आधार पर विश्व के किसी भी भाग में आन्दोलन हो सकता है। किन्तु ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि इससे कोई बहुमुखी विकास होगा। जीवन हम सबको प्रिय है और हम सब जीवन की पहेलियों को अनावृत्त करने के लिए उत्सुक हैं। प्राचीन काल में विज्ञान की सीमाबद्धताओं के फलस्वरूप एक कल्पित ईश्वर के चरणों में दया की भीख माँगने के सिवा हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था, जिसे प्रकृति के रहस्यमय नियमों का नियन्ता माना गया। प्राक् वैज्ञानिक युग के मानव ने अपने को अत्यन्त असहाय महसूस किया और धर्म का आविर्भाव शायद इसी मानसिकता से हो सका। प्रकृति-सम्बन्धी विचार प्राचीन धर्मों में शायद ही सुपरिभाषित है। इसके अतिरिक्त इनकी प्रकृति आत्मनिष्ठ है, अतः ये आधुनिक युग की माँगों को पूरा नहीं कर सकते।”

हाथी और मनुष्य

हम मनुष्य भौगोलिक दिशा तो किसी से पूछकर जान लेते हैं, लेकिन राजनीतिक दिशा पर बहस करते हैं। यानी राजनीतिक दिशा के मामले में हमारा व्यवहार हाथियों जैसा होता है। लेकिन जहाँ तक मेरा अनुमान है, हाथियों की बहस ज़्यादा स्वस्थ और वस्तुपरक होती होगी। वहाँ कठमुल्लावाद, पूर्वाग्रह और “मुक्त-चिन्तन” के भटकाव नहीं होते होंगे। हाथियों में येन-केन-प्रकारेण अपनी बात ऊपर रखने की ज़िद और कुतर्क करने की प्रवृत्ति नहीं होती होगी। मनुष्यों की बात अलग है। संगोष्ठियों में सभी अपनी बात बोलते हैं, पर दूसरों की कोई नहीं सुनता। सुनता भी है तो महज़ मीन-मेख निकालने के लिए। हाथी शायद ऐसा नहीं करते होंगे। बुद्धिजीवी मनुष्य बहस करने में मेंढकों के समान होते हैं। एक साथ टर्राते हैं, पर अलग-अलग सुर में। कोई आहट सुनकर डरकर भागने और पानी में कूद जाने का काम एक साथ करते हैं, पर टोकरे में एक साथ उन्हें रख पाना सम्भव नहीं होता। मेंढकों से हमने काफ़ी-कुछ सीखा है।