Category Archives: साहित्‍य और कला

कविता – हमारे समय के दो पहलू / सत्‍यव्रत

यह एक बेहतर समय है,
या शायद, इतिहास का एक दुर्लभ समय।
बेजोड़ है यह समय
जीवन-मरण का एक नया,
महाभीषण संघर्ष रचने की तैयारी के लिए,
अभूतपूर्व अनुकूल है
धारा के प्रतिकूल चलने के लिए।

कवितांश – ‘तुम्हारे हाथ और उनके झूठ’ / नाज़िम हिक़मत

दुनिया गाय-बैलों के सींगों पर नहीं टिकी है
दुनिया को ढोते हैं तुम्हारे हाथ।

कविता – आशावाद / वेणु गोपाल

क्योंकी वह पेड़ नहीं
उसका काँपना नहीं
तूफ़ान नहीं
बल्कि पत्तों का हरापन
देख रहा है।

लोकप्रियता और यथार्थवाद / बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (1938)

अगर हम एक ज़िन्दा और जुझारू साहित्य की आशा रखते हैं जो कि यथार्थ से पूर्णतया संलग्न हो और जिसमें यथार्थ की पकड़ हो- एक सच्चा लोकप्रिय साहित्य- तो हमें यथार्थ की द्रुत गति के साथ हमकदम होना चाहिए। महान मेहनतकश जनता पहले से ही इस राह पर है। उसके दुश्मनों की कारगुजारियाँ और क्रूरता इसका सबूत हैं।

देशभक्ति और देशद्रोह के बारे में चन्‍द उद्धरण

अगर देशप्रेम की परिभाषा सरकार की अन्धआज्ञाकारिता नहीं हो, झण्डों और राष्ट्रगानों की भक्तिभाव से पूजा करना नहीं हो; बल्कि अपने देश से, अपने साथी नागरिकों से (सारी दुनिया के) प्यार करना हो, न्याय और जनवाद के उसूलों के प्रति प्रतिबद्दता हो; तो सच्चे देशप्रेम के लिए ज़रूरी होगा कि जब हमारी सरकार इन उसूलों को तोड़े तो हम उसके हुक्म मानने से इंकार करें!

अन्धी वतन परस्ती हमको किस रस्ते ले जायेगी / गौहर रज़ा

यह मत खाओ, वह मत पहनो, इश्क़ तो बिलकुल करना मत
देश द्रोह की छाप तुम्हारे ऊपर भी लग जायेगी,
यह मत भूलो अगली नस्लें रौशन शोला होती हैं
आग कुरेदोगे चिंगारी दामन तक तो आयेगी

कविता : गुजरात-2002 / कात्यायनी

क्या हम कर रहे हैं आने वाले युद्ध समय की दृढ़निश्चयी तैयारी
क्या हम निर्णायक बन रहे हैं? क्या हम जा रहे हैं अपने लोगों के बीच
या हम वधस्थल के छज्जों पर बसन्तमालती की बेलें चढ़ा रहे हैं
या अपने अध्ययन कक्ष में बैठे हुए अकेले, भविष्य में आस्था का
उद्घोष कर रहे हैं और सुन्दर स्वप्न या कोई जादू रच रहे हैं

लघु कहानी : ताकत के खि़लाफ़ कार्यवाही / बेर्टोल्ट ब्रेष्ट

कौयनर महाशय ने जवाब दिया- ‘मेरे पास तुड़़वाने के लिए रीढ़ की हड्डी नहीं है। खासकर जबकि मुझे भी ताकत से ज्यादा अर्से तक ज़िंदा रहना है।’ और फिर कौयनर महाशय ने यह कहानी सुनायी-

कविता : एक जलते हुए शहर की यात्रा / विमल कुमार

हमें मालूम है आप किसी की आँखों में चमक देखने आए हैं
आपका स्वागत है।

कविता : गुजरात के मृतक का बयान / मंगलेश डबराल

पहले भी शायद मैं थोड़ा-थोड़ा मरता था
बचपन से भी धीरे-धीरे जीता और मरता था
जीवित रहने की अन्तहीन खोज ही था जीवन
जब मुझे जलाकर पूरा मार दिया गया