Category Archives: साहित्‍य और कला

पवन करण की कविताएँ

मैं और वे जो रोटी खाते हैं
उसमें नब्बे लाख गुना अन्तर है
क्या मेरी और उनकी रोटी
नस्ल में अंततः रोटी ही हैं
गणना में उनसे नब्बे लाख गुना कम
मैं अपने मेहनत की गंध से परिचित हूं
उनके पीसने का कोई स्वाद होगा?

उद्धरण

लेखन के जरिये लड़ो! दिखाओ कि तुम लड़ रहे हो! ऊर्जस्वी यथार्थवाद! यथार्थ तुम्हारे पक्ष में है, तुम भी यथार्थ के पक्ष में खड़े हो! जीवन को बोलने दो! इसकी अवहेलना मत करो! यह जानो कि बुर्जुआ वर्ग इसे बोलने नहीं देता! लेकिन तुम्हे इजाजत है। तुम्हे इसे बोलने देना चाहिये। चुनो उन जगहों को जहां यथार्थ को झूठ से, ताकत से,चमक-दमक से छुपाया जा रहा है। अन्तरविरोधों को उभारो!

प्रदीप की कविताएँ

सभी आधुनिक कविगण हँसते हैं
मेरी सपाट ‘कुपोषित’ कविताओं पर
अभद्रता का शून्य प्रदर्शन करते हुए
किन्हीं तिलस्मी बिम्बमहलों में
शब्दों के गोल-गोल छल्ले बनाते हुए।
वे पापी ठहराते हैं मुझे
क्रिया-फ्रिया, रस-फस,
और छन्द-बन्द की घोर
अनुपस्थिति पर।

नयी शती में चित्रकला का भविष्य

एक चित्रकार वस्तुतः एक सामाजिक इकाई होता है, जिस पर समाज के समस्त कार्य-व्यापारों का कमोबेश उतना ही असर पड़ता है। अपने आसपास और अतीत की तमाम घटनाओं से टकराकर वह तय करता है कि किन-किन स्थितियों को, सन्दर्भों को, समस्याओं और सपनों को वह अपने कला-कर्म में प्राथमिकता दे, और किसे वह त्यागे। लिहाज़ा, यह तो तय है कि चित्रकार अपने समाज और समय से कटा हुआ कोई बौद्धिक अस्तित्व नहीं होता है। चित्रकला की अपनी विधागत विशिष्टता के चलते चित्रकार के चित्रों में – उसके कला-कर्म में उसके समय और समाज का प्रतिबिम्बन कभी साफ, कभी धुँधला-सा लग सकता है, पर कलाकार अपने समाज के अन्दर से उपजी शक्तियों द्वारा ही अनिवार्य रूप से संचालित होता है।

प्रो. लालबहादुर वर्मा का प्रेम-चिन्तन

अगले ही पैरा में लेखक एक और ऐसी बात कहता है जिससे यह संशय होता है कि या तो मार्क्सवाद की अपनी समझ से वे प्रस्थान कर चुके हैं, या फिर मार्क्सवाद में ही वे कोई नया इज़ाफ़ा कर रहे हैं। वे कहते हैं कि उन्नीसवीं सदी में क्रान्ति का सिद्धान्त रचा गया और उसके आधार पर व्यवहार भी विकसित हुआ, लेकिन इसके साथ ही लैंगिक राजनीति का उस अनुपात में विकास नहीं हो सका जिससे कि नारी आश्वस्त और सन्तुष्ट हो सके। अब इस पर क्या कहा जा सकता है? मार्क्सवाद अलग से किसी भी लैंगिक राजनीति का विरोध करता है। मानव मुक्ति के पूरे प्रोजेक्ट के तमाम हिस्सों में से एक हिस्सा जेण्डर प्रश्न का समाधान है, ठीक उसी प्रकार जैसे उसका एक हिस्सा जाति प्रश्न का समाधान भी है। लेकिन अलग से लैंगिक राजनीति वास्तव में अस्मितावादी राजनीति की ओर ले जाती है। एक बात और भी स्पष्ट नहीं हो पाती है कि लैंगिक राजनीति से प्रो. वर्मा का अर्थ सेक्सुअल पॉलिटिक्स है या फिर जेण्डर पॉलिटिक्स, क्योंकि इन दोनों में फ़र्क़ है। लेकिन यह भ्रम इस पूरे लेख में लगातार मौजूद रहता है। कहीं पर लैंगिक प्रश्न जेण्डर प्रश्न का अर्थ ध्वनित कर रहा है तो कहीं पर यह सेक्सुअल निहितार्थों में प्रकट हो रहा है। बहरहाल, यहाँ पर इन दोनों ही अर्थों में लैंगिक राजनीति का समर्थन करना ग़लत है। इस प्रश्न पर भी प्रो. वर्मा को अपनी अवस्थिति स्पष्ट करनी चाहिए, कि वे किस प्रकार की लैंगिक राजनीति की वकालत कर रहे हैं, जिससे कि सभी वर्गों की नारियाँ ‘आश्वस्त और सन्तुष्ट’ हो जायें।

केदारनाथ अग्रवाल की कुछ कविताएँ

जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है,
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है,
जिसने सोने को खोदा, लोहा मोड़ा है,
जो रवि के रथ का घोड़ा है,
वह जन मारे नहीं मरेगा,
नहीं मरेगा।

उद्धरण

जब तक लोग अपनी स्वतन्त्रता का इस्तेमाल करने की ज़हमत नहीं उठाते, तब तक तानाशाहों का राज चलता रहेगा, क्योंकि तानाशाह सक्रिय और जोशीले होते है, और वे नींद में डूबे हुए लोगों को ज़ंजीरों में जकड़ने के लिए, ईश्वर, धर्म या किसी भी दूसरी चीज़ का सहारा लेने में नहीं हिचकेंगे।

केन के जल से बना कवि

जब भी कविता की सांस्कृतिक सार्थकता के समर्थक कवि और आत्मीय बेबाक अन्वेषणों और निजी सघन अनुभूतियों की कविता का ज़िक्र होगा, कवि केदारनाथ अग्रवाल याद आयेंगे। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए अलग तरह की कलात्मक अनुभूति और रचना की नर्मी और गुदाजी का अहसास होता है। वह शिल्प के कटे-छटेपन और पॉलिश के लिए भी याद आते हैं। उनकी विशेषता है कि उन्होंने कविता में करोड़ों कर्म के उत्सव मनाये। वे हर रचना में मगन मन रहे। एकान्तवास की एक पंक्ति नहीं रची। साथ ही उनके मन में उत्पीड़ित, दुखी, संघर्षशील जनता से अथाह प्रेम था। उनकी कविता सिर्फ पढ़े जाने के लिए नहीं लगती है, बल्कि कवि होने की सीख लेने के लिए भी ज़रूरी लगती है।