एक चित्रकार वस्तुतः एक सामाजिक इकाई होता है, जिस पर समाज के समस्त कार्य-व्यापारों का कमोबेश उतना ही असर पड़ता है। अपने आसपास और अतीत की तमाम घटनाओं से टकराकर वह तय करता है कि किन-किन स्थितियों को, सन्दर्भों को, समस्याओं और सपनों को वह अपने कला-कर्म में प्राथमिकता दे, और किसे वह त्यागे। लिहाज़ा, यह तो तय है कि चित्रकार अपने समाज और समय से कटा हुआ कोई बौद्धिक अस्तित्व नहीं होता है। चित्रकला की अपनी विधागत विशिष्टता के चलते चित्रकार के चित्रों में – उसके कला-कर्म में उसके समय और समाज का प्रतिबिम्बन कभी साफ, कभी धुँधला-सा लग सकता है, पर कलाकार अपने समाज के अन्दर से उपजी शक्तियों द्वारा ही अनिवार्य रूप से संचालित होता है।