Category Archives: साहित्‍य और कला

उद्धरण

“जिसे ‘क़ानून की रूह’ और ‘परंपरा’ कहते हैं वह सभी जड़़मतियों के भेजे में घड़ी की तरह का एक ऐसा सादा यन्त्र पैदा कर देती है जिसकी कमानी के हिलने-डुलने से ही जड़तापूर्ण विचारों के पहिये घूमने लगते हैं। हर एक जड़मति का नारा होता है- जैसा जो अब तक रहा है वैसा ही हमेशा बना रहेगा। मरी मछली की ही तरह जड़मति भी दिमाग की तरफ़ से नीचे की ओर सड़ना शुरू करते हैं।”

मिगेल एरनानदेस – एक अपूर्ण क्रान्ति का पूर्ण कवि

मिगेल के जीवन के अन्तिम दिन ज़्यादातर जेल की सलाखों के पीछे बीते। लेकिन सलाखों के बाहर भी ज़िन्दगी क़ैद थी। इन अँधेरे दिनों के गीत मिगेल ने अपनी कविताओं में गाए हैं। ये कविताएँ उन अँधेरे, निराशा, हताशा, विशाद और मायूसी भरे दिनों की कविताएँ हैं जो अँधेरे समय का गीत गाती हैं। ऐसी ही एक कविता है नाना दे सेबोया (प्याज़ की लोरी)। मिगेल की पत्नी ने उसे जेल में चिट्ठी भेजी और उसे बताया कि घर में खाने को कुछ भी नहीं है सिवाय प्याज़ और ब्रेड के। मिगेल का एक छोटा बेटा था, मिगेल ने जेल से अपने बेटे के लिए यह लोरी लिखी थी

उद्धरण

जब लोग समाज में क्रान्ति ला देने वाले विचारों की बात करते हैं, तब वे केवल इस तथ्य को व्यक्त करते हैं कि पुराने समाज के अन्दर एक नये समाज के तत्व पैदा हो गये हैं और पुराने विचारों का विघटन अस्तित्व की पुरानी अवस्थाओं के विघटन के साथ कदम मिलाकर चलता है।

भगतसिंह के लिए एक गद्यात्मक सम्बोध-गीति

भारत की एक स्त्री, एक स्त्री कवि, सचमुच तुम्हे याद करना चाहती है भगतसिंह,
एक मशक्कती ज़िन्दगी की तमाम जद्दोजहद और
उम्मीदों और नाउम्मीदियों के बीच,
अपने अन्दर की गीली मिट्टी से आँसुओं, ख़ून और
पसीने के रसायनों को अलगाती हुई,
जन्मशताब्दी समारोहों के घृणित पाखण्डी अनुष्ठानों के बीच,
सम्बोध-गीति के अतिशय गद्यात्मक हो जाने का जोखिम उठाते हुए

नौजवान का रास्ता-मुक्तिबोध का प्रसिद्ध लेख

नौजवानी के गीत बहुत लोगों ने गाये हैं। हुस्नोइश्‍क़ और इन्‍क़लाब का क़ाबा नौजवानी ही समझी गयी है। लेकिन जिन तकलीफ़ों में से नौजवान गुज़रता है, उनके बारे में क़लम चलाने का साहस थोड़े ही लोगों ने किया है। यथार्थ कुछ और है, और काल्पनिक लोक कुछ और। माना कि साधारण रूप से नौजवान अपने बाप के घर रहता है, बड़ों की छत्रछाया में पलता है। और दुनिया से लोहा लेने का जोश और उमंग उसमें भले ही रहे, उनके पास अनुभव न होने के कारण उसे पग-पग ठोकर खाना पड़ता है।

फ़िलिस्तीनी कवि समीह अल-क़ासिम की स्मृति में

समीह अल क़ासिम आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन फ़िलिस्तीन की मुक्ति के लिए उठने वाली हर आवाज़ में, अन्याय के प्रतिरोध में उठने वाली हर मुट्ठी में वह ज़िन्दा हैं। उनकी कविताएँ आज़ाद फ़िलिस्तीन के हर नारे में गूँज रही हैं।

शोकगीत

लोग मेरे दोस्त के बारे में
बहुत बातें करते हैं
कैसे वह गया और फ़िर नहीं लौटा
कैसे उसने अपनी जवानी खो दी
गोलियों की बौछारों ने
उसके चेहरे और छाती को बींध डाला
बस और मत कहना
मैंने उसका घाव देखा है

फिलिस्तीन: कुछ कविताएँ

अगर मुझे अपनी रोटी छोड़नी पड़े
अगर मुझे अपनी कमीज और अपना बिछौना
बेचना पड़े
अगर मुझे पत्थर तोड़ने का काम करना पड़े
या कुली का
या मेहतर का
अगर मुझे तुम्हारा गोदाम साफ करना पड़े
या गोबर से खाना ढूंढ़ना पड़े
या भूखे रहना पड़े
और खामोश
इनसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूंगा
आखिर तक मैं लड़ूंगा

उद्धरण

यह सच नहीं कि लोग बूढ़े हो जाते हैं इसलिए सपनों को पूरा करने की धुन छोड़ देते हें। वे सपनों को पूरा करने की धुन छोड़ देते हैं, इसलिए वे बूढ़े हो जाते हैं।