बेबी की कविताएँ
रोज
कोड़ता हूँ
घोंघे, सितुए
कंकड.पत्थर
चुन.चुनकर फेंकता हूँ
कि
कल
बो दूँगा तुझे
जिन्दगी
रोज
कोड़ता हूँ
घोंघे, सितुए
कंकड.पत्थर
चुन.चुनकर फेंकता हूँ
कि
कल
बो दूँगा तुझे
जिन्दगी
साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहत है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति मगर आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं। हालाँकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है। हिन्दू मूर्तिपूजक हैं, तो क्या मुसलमान कब्रपूजक और स्थान पूजक नहीं है। ताजिये को शर्बत और शीरीनी कौन चढ़ाता है, मस्जिद को खुदा का घर कौन समझता है। अगर मुसलमानों में एक सम्प्रदाय ऐसा है, जो बड़े से बड़े पैगम्बरों के सामने सिर झुकाना भी कुफ्र समझता है, तो हिन्दुओं में भी एक ऐसा है जो देवताओं को पत्थर के टुकड़े और नदियों को पानी की धारा और धर्मग्रन्थों को गपोड़े समझता है। यहाँ तो हमें दोनों संस्कृतियों में कोई अन्तर नहीं दिखता।
दोस्तो! ‘तुम्हारी’ पैण्ट बनाने में या कमीज़ बनाने में
सिर्फ हमारी मेहनत ही नहीं
बहुत कुछ गलता-पिसता-घिसता-ख़त्म होता है
हाँ, ये सिर्फ तुम्हारी ही हैं
हमें तो ये सपनों में भी मयस्सर नहीं
हमारे समाज पर जिन लोगों का नियन्त्रण है, यानी राजनीतिज्ञ, कॉरपोरेट अधिकारी, प्रेस और टेलीविज़न कम्पनियों के मालिक, अगर वे हमारे विचारों पर प्रभुत्व हासिल करने में सफल रहेंगे, तो वे सत्ता में सुरक्षित बने रहेंगे। उन्हें ऐसा करने के लिए सड़कों पर गश्त लगाते सैनिकों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। हम स्वयं अपने आपको नियन्त्रित करेंगे।
एक दिन लोग
कविता में
उन दिनों की बातें भूतकाल में करेंगे
जो अभी आये नहीं।
शॉपेनहावर ने कहा है कि मनुष्य की महानता का अनुमान लगाने में, आत्मिक ऊँचाई और शारीरिक आकार को तय करने वाले नियम एक-दूसरे के विपरीत होते हैं। क्योंकि वे हमसे जितने ही दूर होते हैं, मनुष्यों के शरीर उतने ही छोटे दिखते हैं और उनकी आत्माएँ उतनी ही महान।
जो बन जाते हैं आदत के गुलाम,
चलते रहे हैं हर रोज़ उन्हीं राहों पर,
बदलती नहीं जिनकी कभी रफ्तार
जो अपने कपड़ों के रंग बदलने का जोखिम नहीं उठाते,
और बात नहीं करते अनजान लोगों से,
वे मरते हैं धीमी मौत।
भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौर में जिन्होंने त्याग बलिदान और जुझारूपन के नये प्रतिमान स्थापित किये, उनमें गणेशशंकर विद्यार्थी भी शामिल हैं। अपनी जनपक्षधर निर्भय पत्रकारिता के दम पर विद्यार्थी जी ने विदेशी हुकूमत तथा उनके देशी टुकड़खोरों को बार-बार जनता के सामने नंगा किया था। वे आजीवन राष्ट्रीय जागरण के प्रति संकल्पबद्ध रहे। विद्यार्थी जी ने तथाकथित वस्तुपरकता का नाम लेते हुए कभी भी वैचारिक तटस्थता की दुहाई नहीं दी। हिन्दी प्रदेश में भारतीय राष्ट्रीय जागरण का वैचारिक आधार तैयार करने में तथा उसे और व्यापक बनाने में उन्होंने अहम भूमिका अदा की थी। उस दौर में विद्यार्थी जी के द्वारा सम्पादित पत्र ‘प्रताप’ ने साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रीय पत्रकारिता की भूमिका तो निभायी ही साथ-साथ जुझारू पत्रकारों तथा क्रान्तिकारियों की एक पूरी पीढ़ी को शिक्षित-प्रशिक्षित करने का काम भी किया था।
जब हम गाते हैं तो वे डर जाते हैं।
वे डर जाते हैं जब हम चुप होते हैं।
वे डरते हैं हमारे गीतों से
और हमारी चुप्पी से!
अगर तुम्हारी माँ तुम्हें कुछ करने के लिए कहती है, तो यह जवाब देना एकदम ग़लत है कि तुम नहीं करोगी। यह बेहतर और यथोचित होगा कि तुम उसे बताओ कि तुम वैसा करोगी जैसा कि उसका आदेश है, और फिर उसके बाद चुपचाप उस मामले में वही करो जो तुम्हारे सर्वश्रेष्ठ निर्णय विवेक का निर्देश हो।