खुशवंत सिंह, स्वार्थी होने के साथ ही क्या आप अव्वल दर्जे के अहमक और परले दर्जे के बेवक़ूफ़ भी हैं? जिस डाल को आप काट डालना चाहते हैं, उसी पर तो आप विराजमान भी हैं। आप यह क्यों नहीं सोचते कि नर्क की ज़िन्दगी जीने वालों ने ही आपका स्वर्ग सजाया है। आपकी ज़िन्दगी और उनकी ज़िन्दगी एक ही सामाजिक ढाँचे के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व मुमकिन ही नहीं। पीड़ा-व्यथा और आँसुओं के अथाह समुद्र में ही समृद्धि के मूँगा-द्वीप निर्मित होते हैं। जिन पर विलासिता की स्वर्णमण्डित मीनारें खड़ी होती हैं। खुशवंत सिंह यदि खुद ही पूँजीपति होते तो एकदम से ऐसी बातें नहीं करते। पर वे तो पूँजीपति के टट्टू हैं, भाड़े के कलमघसीट हैं। इसीलिये उन्हें पूँजीवाद की सारी खुशियाँ तो चाहिए, पर उन खुशियों को रचने की शर्त मंज़ूर नहीं। उन्हें पूँजीवाद द्वारा उत्पादित आवश्यकता और विलासिता की सारी चीज़ें चाहिए, पर उसी के द्वारा पैदा किये गये आबादी के बहुलांश के अभिशप्त, नारकीय जीवन को वे देखना भी नहीं चाहते। वे चाहते हैं, ये सभी लोग उनकी सुख-सुविधा का सारा इंतज़ाम करके रोज़ अपने-अपने गाँव को वापस लौट जायें, उनकी नज़रों से दूर हो जायें।