Category Archives: साहित्‍य और कला

उद्धरण

क्रान्ति शब्द का अर्थ प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना एवं आकांक्षा है। लोग साधारणतया जीवन की परम्परागत दशाओं के साथ चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार मात्र से ही काँपने लगते हैं। यही वह अकर्मण्यता की भावना है, जिसके स्थान पर क्रान्तिकारी भावना जागृत करने की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अकर्मण्यता का वातावरण निर्मित हो जाता है और रूढ़िवादी शक्तियाँ मानव समाज को ग़लत रास्ते पर ले जाती है। ये परिस्थितियाँ मानव समाज की उन्नति में गतिरोध का कारण बन जाती हैं। क्रान्ति की इस भावना से मनुष्य जाति की आत्मा स्थायी तौर पर ओत-प्रोत रहनी चाहिए, जिसे कि रूढ़िवादी शक्तियाँ मानव समाज की प्रगति की दौड़ में बाधा डालने को संगठित न हो सकें। यह आवश्यक है कि पुरानी व्यवस्था सदैव बदलती रहे और वह नयी व्यवस्था के लिए स्थान रिक्त करती रहे, जिससे कि यह आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके। यह है हमारा वह अभिप्राय जिसको हृदय में रखकर हम इन्‍क़लाब ज़िन्दाबाद का नारा ऊँचा करते हैं।

सियाह हाशिये

आग लगी तो सारा मुहल्ला जल गया- सिर्फ़ एक दुकान बच गयी, जिसकी पेशानी पर यह बोर्ड लगा हुआ थाः “यहाँ इमारतसाज़ी का सारा सामान मिलता है।’

हिटलर के तम्बू में व गुजरात – 2002

अब तक छिपे हुए थे उनके दाँत और नाख़ून।
संस्कृति की भट्ठी में कच्चा गोश्त रहे थे भून।
छाँट रहे थे अब तक बस वे बड़े-बड़े क़ानून।
नहीं किसी को दिखता था दूधिया वस्त्र पर ख़ून।
अब तक छिपे हुए थे उनके दाँत और नाख़ून।
संस्कृति की भट्ठी में कच्चा गोश्त रहे थे भून।

उद्धरण

“केवल वे आकांक्षाएँ ही वास्तव में महत्वपूर्ण हैं जो वास्तविकता पर आधारित होती हैं, केवल वे आशाएँ ही फ़लवती होती हैं जिन्हे वास्तविकता जन्म देती है और केवल तभी जब उनकी पूर्ति के लिए उन शक्तियों और परिस्थितियों का सहारा लिया जाता है जिन्हें वास्तविकता प्रस्तुत करती है।”

भूलना नहीं है

भूलना नहीं है कि
अभी भी है भूख और बदहाली,
अभी भी हैं लूट और सौदागरी और महाजनी
और जेल और फाँसी और कोड़े।
भूलना नहीं है कि
ये सारी चीज़ें अगर हमेशा से नहीं रही हैं
तो हमेशा नहीं रहेंगी।

हमारा सच और उनका सच

क्या यह ज़रूरी नहीं है कि सारे विश्वविद्यालयों के मठाधीशों को
खटाया जाय खेतों-खलिहानों और फ़ैक्ट्रियों में
कि उत्पादन का सच समझाया जा सके।
कि सच को समझने के लिए
चीजों को उलट देना ज़रूरी है
कि जैसे नमी को जानने के लिए शुष्कता
उजाले के लिए अन्धेरा और
दिन को जानने के लिए रात
और आज़ादी को जानने के लिए ज़रूरी है;
हमारे दिलों में जज़्ब जज़्बात की तड़प को समझना,

साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज

लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की ज़रूरत है। ग़रीब मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों में तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी ज़ंजीरें कट जाएँगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी।

उद्धरण

“आधुनिक मनुष्य का बढ़ता सर्वहाराकरण और जनसमुदायों का बढ़ता गठन एक ही प्रक्रिया के दो पहलू हैं। फासीवाद नव-गठित सर्वहारा जनसमुदायों को उस सम्पत्ति संरचना को छेड़े बग़ैर संगठित करना चाहता है जिसे जनसमुदाय ख़त्म करने के लिए जूझते हैं। फासीवाद इन लोगों को उनके अधिकार देने में अपना निर्वाण नहीं देखता, बल्कि उन्हें अपने आपको अभिव्यक्त करने का एक अवसर देने में अपना निर्वाण देखता है। जनसमुदाय के पास सम्पत्ति सम्बन्धों को बदल डालने का अधिकार है; फासीवाद सम्पत्ति की रक्षा करते हुए उन्हें अभिव्यक्ति देने का प्रयास करता है। फासीवाद की तार्किक परिणति होता है राजनीतिक जीवन में सौन्दर्यशास्त्र का प्रवेश। जनसमुदाय के विरुद्ध अतिक्रमण, जिसे फासीवाद अपने फ्यूहरर कल्ट के जरिये, घुटनों के बल ले आता है, का समानान्तर एक ऐसे उपकरण के विरुद्ध अतिक्रमण में होता है जो कि संस्कारगत मूल्यों के उत्पादन में लगाया गया होता है।”

मक्सिम गोर्की की कहानी – कोलुशा

“घटना इस प्रकार घटी। उसका पिता गबन के अपराध में डेढ़ साल के लिए जेल में बन्द हो गया। इस काल में हमने अपनी सारी जमा पूँजी खा डाली। यूँ हमारी वह जमा पूँजी कुछ अधिक थी भी नहीं। अपने आदमी के जेल से छूटने से पहले ईंधन की जगह मैं हार्स-रेडिश के डण्ठल जलाती थी। जान-पहचान के एक माली ने ख़राब हुए हार्स-रेडिश का गाड़ीभर बोझ मेरे घर भिजवा दिया था। मैंने उसे सुखा लिया और सूखी गोबर-लीद के साथ मिलाकर उसे जलाने लगी। उससे भयानक धुआँ निकलता और खाने का जायका ख़राब हो जाता। कोलुशा स्कूल जाता था। वह बहुत ही तेज़ और किफायतशार लड़का था। जब वह स्कूल से घर लौटता तो हमेशा एकाध कुन्दा या लकड़ियाँ – जो रास्ते में पड़ी मिलतीं – उठा लाता।

…वे अपना मृत्युलेख लिखते हैं

ऐसे में कोई कविता
कविता नहीं होती
कहानी कहानी नहीं बन पाती
सब कुछ महज़ एक बयान होता है,
हथेलियों में धँसी
क्रोधोन्मत्त, भिची हुई उँगलियों का
कसाव होता है