Category Archives: साहित्‍य और कला

उद्धरण

‘‘राष्ट्र की एकता मंचों पर लम्बे-लम्बे भाषण से नहीं होगी। इसके लिए हमें ठोस काम करना होगा। वह ठोस काम यही है कि देश के भीतर धर्म और जाति-भेद ने जितनी दीवारें खड़ी की हैं, उन्हें गिरा देना। हाँ, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई या लामज़हब होने से हमारे खान-पान, शादी-ब्याह में कोई रुकावट नहीं होनी चाहिए। ज़रूरत पड़ने पर हमें इसके लिए मज़हब से भी लोहा लेने के लिए तैयार रहना चाहिए।’’

वीरेन डंगवाल की छह कविताएँ

आखिर लपक क्यों लिया हमने ऐसी सभ्यता को
लालची मुफ्तखोरों की तरह? अनायास?
सोचो तो तारंता बाबू और ज़रा बताओ तो
काहे हुए चले जाते हो ख़ामख़ाह
इतने निरुपाय?

जीवन की अपराजेयता और साधारणता के सौन्दर्य का संधान करने वाला कवि वीरेन डंगवाल

वीरेन डंगवाल की कविता का रास्ता देखने में सहज, लेकिन वास्तव में काफी बीहड़ था। उदात्तता और सूक्ष्मतग्राही संवेदना उनके सहज गुण हैं। ये कविताएँ भारतीय जीवन के दुःसह पीड़ादायी संक्रमण के दशकों की आशा-निराशा, संघर्ष-पराजय और स्वप्नों के ऐतिहासिक दस्तावेज के समान हैं। वीरेन ने अपने ढंग से निराला, नागार्जुन, शमशेर और त्रिलोचन जैसे अग्रज कवियों की परम्परा को आगे विस्तार दिया और साथ ही नाज़िम हिकमत की सर्जनात्मकता से भी काफी कुछ अपनाया, जो उनके प्रिय कवि थे। जीवन-काल में उनके तीन संकलन प्रकाशित हुए – ‘इसी दुनिया में’ (1991), ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ (2002) और ‘स्याहीताल’ (2010)। उनकी ढेरों कविताएँ और ढेर सारा गद्य अभी भी अप्रकाशित है। नाज़िम हिकमत की कुछ कविताओं का उनके द्वारा किया गया अनुवाद ‘पहल-पुस्तिका’ के रूप में प्रकाशित हुआ था, लेकिन बहुतेरी अभी भी अप्रकाशित हैं। उन्होंने पाब्लो नेरूदा, बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊष रोजेविच आदि कई विश्वविख्यात कवियों की कविताओं के भी बेहतरीन अनुवाद किये थे। उनकी कविताएँ उत्तरवर्ती पीढ़ियों को ज़िन्दादिली के साथ जीने, ज़िद के साथ लड़ने और उम्मीदों के साथ रचने के लिए हमेशा प्रेरित और शिक्षित करती रहेंगी। पाब्लो नेरूदा ने कहा थाः “कविता आदमी के भीतर से निकलती एक गहरी पुकार है।” वीरेन डंगवाल की कविताएँ ऐसी ही कविताएँ

अखबार

इतने सारे,
इतने सारे पेड़ों को काटते हैं लगातार
इतने सारे कारखानों में
इतने सारे मजदूरों की श्रमशक्ति को निचोड़कर
तैयार करते हैं इतना सारा कागज
जिनपर दिन-रात चलते छापाखाने
छापते हैं इतना सारा झूठ
रोज सुबह इतने सारे दिमागों में उड़ेल देने के लिए।

ओडिसियस एलाइटिस की कविता

जब तक कि चेतना पदार्थ में वापस नहीं लौटती
हमें दोहराते रहना होगा
कि दुनिया में कोई छोटे और बड़े कवि नहीं – सिर्फ़ मनुष्य हैं,
कुछ ऐसे जो कविताएँ ऐसे लिखते हैं
जैसे वे पैसा कमाते हैं
या वेश्याओं के साथ सोते हैं
और कुछ ऐसे मनुष्य, जो ऐसे लिखते हैं
जैसे प्रेम के चाकू ने उनका दिल चीर दिया हो।

फ़ासीवाद, जर्मन सिनेमा और असल ज़िन्दगी के बारे में जर्मनी के प्रचार मंत्री, डॉक्टर गोएबल्स को खुला पत्र

आपकी हिम्मत कैसे हुई अपने सिनेमा से जीवन के यथार्थ का सच्चा चित्रण करने का आह्वान करने की जबकि उसका पहला कर्तव्य होना चाहिए चीख-चीख कर पूरी दुनिया को उन हज़ारों-लाखों लोगों के बारे में बताना जो आपकी जेलों की काल-कोठरियों में सड़ रहे हैं जिनका उत्पीड़न कर आपके यातना शिविरों में मौत के घाट उतरा जा रहा है?

सपनों के बारे में एदुआर्दो गालिआनो की पाँच लघु कथाएँ

हेलेना एक घोड़ागाड़ी में उस देश की यात्रा कर रही थी जहाँ सपने देखे जाते थे। उसके बाजू में कोचवान की सीट पर उसकी नन्हीं कुतिया पेपा लुम्पेहन बैठी थी। पेपा अपने पंजों तले एक मुर्गी लेकर चली थी जो उसके सपने में काम करने वाली थी। हेलेना अपने साथ एक बहुत बड़ी संदूकची ले चल रही थी जो मुखौटों और रंग-बिरंगे चिथड़ों से भरी हुई थी।

Common people, intellectuals and the tragedy of Alexandria

Scientists who consider their struggle as aloof of the struggle of society, those who consider science indifferent to the societal division of rulers and ruled and wander in the mirage of “freedom to research”, they are left with nothing else but defeat, hopelessness, mental instability and suicide. The blind race to sell their intellectual ability as a commodity in market to get maximum price leaves them with no scope even to unite among themselves. But once they start considering knowledge as a social property and themselves as mental laborers forced to sell their intellectual labor for piece wage, once they start recognizing their position in this social framework and choose their side, then situations are definitely going to be different.

एंगेल्‍स की प्रसिद्ध पुस्तिका ‘समाजवाद: काल्‍पनिक तथा वैज्ञानिक’ का परिचय

समाजवाद की वैज्ञानिक धारा से अपरिचित लोग समाजवाद को एक अव्‍यवहारिक और आदर्शवादी विचार मानते हैं। ऐसे लोग अक्‍सर यह कहते हुए पाये जाते हैं कि समाजवाद जिस तरह की व्‍यवस्‍था की बात करता है वह कल्‍पना जगत में तो बहुत अच्‍छी लगती है, परन्‍तु वास्‍तविक जगत में ऐसी व्‍यवस्‍था संभव नहीं है क्‍योंकि मनुष्‍य अपने स्‍वभाव से ही लालची और स्‍वार्थी होता है। ऐसे लोगों को यह नहीं पता होता कि समाजवाद की उनकी समझ दरअसल काल्‍पनिक समाजवाद (Utopian Socialism) की धारा द्वारा प्रतिपादित विचारों के प्रभाव में आकर बनी है जिसके अनगिनत संस्‍करण दुनिया के विभिन्‍न हिस्‍सों में पाये जाते हैं। ऐसे लोग इस बात से भी अनभिज्ञ होते हैं कि काल्‍पनिक समाजवाद की इस धारा के बरक्‍स मार्क्‍स और एंगेल्‍स द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक समाजवाद की भी एक धारा है जो दरअसल काल्‍पनिक समाजवाद की धारा के साथ आलोचनात्‍मक संबन्‍ध रखते हुए और उसे कल्‍पना की दुनिया से वास्‍तविक और व्‍यवहारिक दुनिया में लाने की प्रक्रिया में विकसित हुई है। काल्‍पनिक समाजवाद से वैज्ञानिक समाजवाद की इस विकासयात्रा को समझने के लिए शायद सबसे बेहतर रचना एंगेल्‍स की प्रसिद्ध पुस्तिका ‘समाजवाद: काल्‍पनिक तथा वैज्ञानिक’है। ब्रिटेन के प्रसिद्ध मार्क्‍सवादी मॉरिस काॅर्नफ़ोर्थ ने इस पुस्तिका के बारे में लिखा है: ”मार्क्‍स और एंगेल्‍स की सभी कृतियों में से, शुरुआती पाठक के लिए यह शायद सर्वश्रेष्‍ठ है। यह बेहद स्‍पष्‍ट और सरल शैली में लिखी गयी है और वैज्ञानिक समाजवाद के बुनियादी विचारों से पाठक को परि‍चित कराती है।”

पाठक मंच

जी चाहता है
मुबारक़बाद दे दूँ, नववर्ष की
फिर सोचता हूँ
क्या ख़ास होगा नये साले में?
हाथों में डिग्रियाँ,
फिर भी ख़ाली हाथ
ख़ाली घूमते, आवारा से
युवा बेरोज़गार
जो बनते ही गये
राजनेताओं के झाँसे,
और राजनीति का शिकार
फँस कर रह गये, बस!