सलवा जुडूम के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय का फैसला
लालचन्द्र
सर्वोच्च न्यायालय ने 5 जुलाई 2011 को फैसला सुनाया कि ‘सलवा जुडूम’ असंवैधानिक है। उसपर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी जाय। न्यायाधीश बी. सुदर्शन रेड्डी व सुरिन्दर सिंह निज्जर की बेंच ने यह फैसला दिल्ली-विश्वविद्यालय की समाज विज्ञानी नन्दिनी सुन्दर, स्वामी अग्निवेश, पूर्व नौकरशाह ई.ए. एस. शर्मा, इतिहासकार रामचन्द्र गुहा व अन्य की ओर से दायर जनहित याचिका पर सुनाया।
छत्तीसगढ की भाजपा शासित सरकार लगातार यह तर्क देती रही कि माओवादी विद्रोहियों को रोकने के लिए उसके पास एकमात्र विकल्प है कि वह दमन के सहारे शासन करे। दमन के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने सुरक्षा बलों के अलावा आदिवासी आबादी के एक छोटे हिस्से को जो कि अशिक्षित, गरीब व पिछड़ा था पैसे व हथियार देकर उन्हीं के साथी आदिवासियों के खिलाफ खड़ा कर दिया। ये वहां के जंगली रास्तों व भाषा-बोली को भलीभांति जानते थे। इसका फायदा राज्य के सुरक्षा बलों ने भी उठाया।
सलवा जुडूम के गठन की शुरूआत कांग्रेसी विधायक व सदन में विपक्ष नेता महेन्द्र कर्मा ने सन 2005 में की और भाजपा शासित सरकार द्वारा इसे भरपूर समर्थन मिला, सरकार कहती रही कि माओवादियों के खिलाफ सलवा जुडूम आदिवासी जनता का स्वतः स्फूर्त आन्दोलन था, जबकि असलियत यह है कि सलवा जुडूम को पैसा मुहैया कराने का काम टाटा व एस्सार ग्रुप ने किया था। यही इसके मुख्य फाइनेन्सर थे। इस अभियान के पीछे व्यापारी, ठेकेदार खदानों में खुदाई से जुड़े लोग भी थे।
सलवा जुडूम के खड़े किये जाने के बाद पूरे राज्य में गृहयुद्ध जैसी स्थिति पैदा हो गयी। अदालत में दायर याचिका के अनुसार सलवा जुडूम द्वारा कम से कम 537 हत्याओं, 99 बलात्कारों आगजनी की 103 घटनाओं द्वारा 644 गांवो को उजाड़ा गया। मेन्स्ट्रीम पत्रिका के अनुसार सलवा जुडूम द्वारा 2005 से लेकर अब तक 700 गाँवों में लगभग 1500 से अधिक बेगुनाहों की हत्या की जा चुकी है। हजारों आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार हो चुका है। कई जगहों पर खड़ी फसलों को तबाह करने और गाँवों में अनेकों लूटपाट की घटनाएं हो चुकी हैं।
तमाम मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्टों में बताया गया है कि छत्तीसगढ़ में मानवविकास सूचकांक बेहद निम्न है न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि सरकार द्वारा लागू की जा रही सामाजिक व आर्थिक नीतियों के कारण समाज भयानक असमानता से ग्रस्त है। ये नीतियां जनता के साथ एक बलात्कार के समान है। उन्होंने कहा सरकार एक ओर निजी क्षेत्र को सब्सिड़ी देती है साथ ही वह सामाजिक कल्याण के उपायों के जरिए गरीबों को सहारा देने की अपनी जिम्मेदारियों को पूरा न करने के लिए संसाधनों का रोना रोती है। दूसरी ओर सरकार गरीबों के बीच फैले असन्तोष का मुकाबला करने के लिए गरीबों के बीच से ही कुछ युवाओं के हाथ में बन्दूकें थमा रहा है। सुप्रीम कोर्ट का इस सम्बन्ध में फैसला सलवा जुडूम के लागू होने के पांच वर्ष बाद जनहित याचिका पर आया। इन पांच वर्षां में सलवा जुडूम आदिवासी आबादी के बीच तांडवनृत्य करता रहा और इस कारण सरकार की काफी किरकिरी हो चुकी थी। केवल सलवा जुडूम सरकारी तन्त्र की मंशा पूरी नहीं कर सकता था। ऐसे में इस फैसले से पूँजीवादी सत्ता के दो हित सध रहे हैं (1) जनता के बीच पनप रहे पूँजीवाद विरोधी सरकार विरोधी विचार को रोकने का काम हो रहा है, और यह भ्रम भी पैदा हो रहा कि ठीक है कि राजनीतिक तन्त्र पूँजी के पक्ष में खड़ा है परन्तु कुछ एक संस्थाएँ हैं जिस पर अभी भी विश्वास किया जा सकता हैं। जो कि जनता के साथ न्याय कर रही हैं। (2) हम सभी जानते है कि सलवा जुडूम को असंवैधानिक घोषित करने और उस पर प्रतिबन्ध लगाने से आदिवासी जनता की तबाही में कोई खास फर्क नहीं आने वाला।
एक बाद और गौर करने वाली है कि देश में जैसे-जैसे पूँजीवादी आर्थिक नीतियों की कलई खुलती जा रही है जिला न्यायालय से लेकर उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के नाम पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे हैं ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक सक्रियता काफी बढ़ चुकी है। उदाहरण के तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने 17 नवम्बर, 2010 को 2जी-स्पेक्ट्रम की जाँच की माँग, 12 अगस्त, 2010 को सरकार को अनाज आपूर्ति का आदेश, 4 जुलाई, 2011 को काले धन की जाँच के लिए विशेष जाँच दल के गठन की बात आदि। सुप्रीम कोर्ट समय-समय पर उपरोक्त मुद्दों पर फटकार, आदेश व सुझाव देती रही है परन्तु इन बातों का सरकारों पर कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता और न जनता की जीवन स्थितियों पर ही कोई फर्क पड़ता है।
सलवा जुडूम के असंवैधानिक घोषित होने के पहले ही केन्द्र सरकार ने संवैधानिक तौर पर आपरेशन ग्रीनहंट की शुरूआत कर दी। सी.आर.पी.एफ. कोबरा बटालियन और बी.एस.एफ. सहित आधुनिक हथियारों से लैस दो लाख पुलिस फोर्स द्वारा छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उड़ीसा व आन्ध्रप्रदेश में सघन अभियान चलाया गया। सैन्य अभियान के तहत स्कूलों, हास्टलों, सरकारी इमारतों को छावनी में तब्दील कर दिया गया। बस्तर के जंगलों में ये बल माओवादियों से मुकाबले में असफल साबित हुए परन्तु इन्होंने आदिवासियों के गाँवो में जो करह बरपा किया वह तमाम जाँच रिपोर्टों में सामने आ चुका है।
सरकार की इनकारों के बावजूद सच्चाई सामने आ चुकी है कि इस सैन्य अभियान का मकसद देशी-विदेशी पूँजी के दैत्यों के हाथों में उन इलाकों को सौंप देना है जहाँ पर लौह अयस्कों और खनिजों के प्रचुर भण्डार हैं। अकेले छत्तीसगढ़ में भारत के कुल लौह अयस्क का 23 प्रतिशत भण्डार है। यहां पर कोयला भी प्रचुर मात्र में है। राज्य सरकार ने टाटा स्टील, आर्सेलर, मित्तल, डी-वीयर्स, कानसोलिडेटेड माइन्स, बी.एच.पी. मिलियन और रियोटिंटो से खरबों रूपये के सहमति पत्रों और अन्य समझौतों पर हस्ताक्षर किये हैं। अन्य राज्यों ने भी बडे़ व्यापार और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आमन्त्रित किया है। ये सभी कम्पनियाँ इसी ताक में है कि कैसे भी करके इन क्षेत्रों को अपने कब्जे में लिया जाय। गृह मंत्रलय का यह अनुमान कि कुल 607 जिलों में से 120 से 160 जिलों में नक्सलवाद देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है। आज ऐसी बातें क्यों की जा रही हैं इसका अनुमान कोई भी साधारण व्यक्ति लगा सकता है।
भारत में पिछले कई दशकों से विकास परियोजनाओं के कारण लाखों लोग विस्थापित हुए हैं। भारतीय राज्य दशकों तक विकास परियोजनाओं से उजड़े लोगों को जीविका के वैकल्पिक साधन उपलब्ध कराने में नाकाम रहा है। एक अनुमान के मुताबिक 1950 से 1990 के बीच विकास परियोजनाओं के कारण अनुसूचित जनजातियों के 85 लाख लोग विस्थापित हुए हैं। यह कुल विस्थापित हुए लोगों का 40 प्रतिशत है। छत्तीसगढ़, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड की आदिवासी आबादी को बिना किसी सामाजिक सुरक्षा व पुनर्वास के उजाड़ा जा रहा है। आदिवासी आबादी द्वारा किये जा रहे प्रतिरोध को बेरहमी से कुचला जा रहा है। आदिवासी आबादी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जी जान से लगी हुई है।
आदिवासी आबादी के खिलाफ युद्ध का दायरा यहाँ तक विस्तारित हो चुका है कि हर वह व्यक्ति जो मानवाधिकार की बात करे उसे संदिग्ध व माओवादी माना जाये। इसी के तहत ‘छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा कानून, 2005’ पारित किया गया। इसी कानून के अन्तर्गत 2007 में विनायक सेन व पियूष गुहा को गिरफ़्तार किया गया। विनायक सेन पर दिसम्बर 2010 में जिला न्यायलय में मुकदमा चलाकर उन्हें देशद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी। डॉ. विनायक सेन जैसे ख्याति प्राप्त व्यक्ति को तो जमानत सुप्रीम कोर्ट द्वारा, अप्रैल 2011 में मिल गयी। परन्तु आज भी जेलों के अन्दर तमाम मानवाधिकारकर्मी, मजदूर व किसान, विचाराधीन मामलो में बिना सुनवायी के पड़े हैं। ऐसी स्थिति में करना क्या होगा? जब आर्थिक नवउदारवाद के इस दौर में, राज्य द्वारा कारपोरेट अभिजात तन्त्र के लिए विकास के नाम पर गरीबों के खिलाफ लगातार हिंसा की जा रही है। इस काम में अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्वबैंक के साथ ही स्वार्थी राजनीतिक वर्ग का फायदा भी जुड़ा हुआ है। अकादमिक जगत व मीडिया के लोग ‘विकास के आतंकवाद’ को प्रगति का संकेत व विकास के लिए अनिवार्य कीमत बताने के राग में शामिल हो गयें हैं। तब जनवादी अधिकार के बारे में सोचने वाले लोगो को, संवेदनशील छात्रों-नौजवानों को, देशी-विदेशी पूँजी की इस बर्बर लूट के विरुद्ध व्यापक मेहनतकश आबादी को लामबन्द करने के आवश्यक काम में जुट जाना होगा और उन्हें बताना होगा कि पूँजीवादी-साम्राज्यवादी लूट से उन्हें मुक्ति इस व्यवस्था के भीतर नहीं मिल सकती। उन्हें इसे बदलने के बारें में व इसके विकल्प के बारे में सोचना एवं उस काम में जल्द से जल्द लग जाना होगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2011
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!