नोनाडांगा के विस्थापितों का आन्दोलन और ममता की ”ममता”

संदीप संवाद

लगभग तीन दशक से पश्चिम बंगाल में सत्ता पर काबिज़ नकली वामपन्थियों के खिलाफ़ जनता के गुस्‍से की लहर पर सवार होकर सत्ता में पहुँची ममता बनर्जी की सरकार ने चन्द महीनों में ही अपना असली चेहरा दिखाना शुरू कर दिया है। सिंगूर-नन्दीग्राम में किसानों की ज़मीन छीनने के विरुद्ध आन्दोलन को जमकर भुनाने वाली ममता बनर्जी आज ग़रीबों को उनकी ज़मीन से उजाड़ने पर आमादा हैं और इसका विरोध करने वालों पर सरकारी दमन का पाटा चला रही हैं। पिछले तीन दशकों के ‘वामपन्थी’ शासन के दौरान माकपाइयों की गुण्डागर्दी और तानाशाही को मुद्दा बनाने वाली ममता ने राज्य में अभिव्यक्ति की आज़ादी और लोकतान्त्रिक अधिकारों पर हमला बोल दिया है। महज़ उनके एक कार्टून को ईमेल से भेजने पर एक प्रोफ़ेसर को जेल भेजना या राज्य के सरकारी पुस्तकालयों में तृणमूल-समर्थक अख़बारों को छोड़कर बाकी सभी अख़बार बन्द करने का आदेश तो सिर्फ वे उदाहरण हैं जो चर्चा में आ गये। माकपा-विरोध के नाम पर राज्य की पाठ्यपुस्तकों से कार्ल मार्क्स का संक्षिप्त परिचय देने वाला अध्याय ही हटा दिया गया है। गली-मुहल्लों से लेकर ट्रेड यूनियनों तक माकपाइयों की दादागीरी से त्रस्त जनता के लिए ममता के बहुचर्चित ‘परिबर्तन’ का बस यही मतलब है कि माकपा के गुण्डों की जगह अब तृणमूल के और भी छँटे हुए गुण्डों-बदमाशों ने ले ली है! बात-बात पर ‘माँ-माटी-मानुष’ का राग अलापने वाली ममता बनर्जी की संवेदनशीलता का यह आलम है कि राज्य में महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार की घटनाओं को वे मनगढ़न्त कहकर ख़ारिज कर देती हैं। जब उन्हीं की पुलिस की एक महिला डिप्टी कमिश्नर कोलकाता में सामूहिक बलात्कार की घटना को जाँच में साबित कर देती है तो उस अधिकारी का ही तबादला कर दिया जाता है।

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पिछले मार्च में, कोलकाता शहर के नोनाडांगा इलाके में बसे करीब 800 ग़रीब परिवारों को ‘दीदी’ की पुलिस ने बेरहमी से उजाड़ दिया। ये वे ग़रीब परिवार थे जो कुछ वर्ष पहले बंगाल में आये भीषण आइला तूफ़ान के कारण अपने घरों से विस्थापित होकर कोलकाता आये थे। कुछ ऐसे परिवार थे जो महानगर की अन्य जगहों पर झुग्गियाँ उजाड़े जाने के बाद यहाँ बसाये गये थे। नोनाडांगा और उसके आसपास की ज़मीन पर बड़े बिल्डरों की नज़र गड़ी है और उन्हीं की शह पर कोलकाता नगरनिगम और पुलिस ने ‘सौन्दर्यीकरण’ के नाम पर 30 मार्च को 800 घरों को बुलडोज़र से ढहा दिया और उनमें आग लगा दी। इस बर्बरता से अपने घरों को उजाड़ने का विरोध करने वाले निवासियों को बुरी तरह पीटा गया और पुलिस की गाड़ियों में ठूँसकर दूर ले जाकर छोड़ दिया गया। मगर उजाड़े गये लोगों ने हार नहीं मानी और पालीथीन की चादरों से अस्थायी छत बनाकर फिर से वहीं जम गये। उन्होंने मिलकर एक सामुदायिक रसोईघर भी शुरू कर दिया। अगले दिन और फिर 4 अप्रैल को शहर के विभिन्न संगठनों के साथ मिलकर उन्होंने एक विरोध मार्च निकाला। ‘ममतामयी’ सरकार की ‘‍करुणामयी’ पुलिस ने इस जुलूस पर क्रूरता के साथ हमला किया। भीषण लाठीचार्ज और गालियों की बौछार के साथ सादे कपड़ों में पुलिस के लोगों ने महिलाओं के साथ बदसलूकी की, एक गर्भवती महिला रीता पात्र के पेट में लात मारी और ढाई साल के बच्चे जय पासवान का सिर फोड़ दिया। इसके विरोध में 8 अप्रैल को हुए धरने पर पुलिस ने फिर हमला किया और 67 लोगों को गिरफ्तार कर लिया। इनमें विभिन्न जन संगठनों के सात कार्यकर्ता भी थे जिन पर अनेक ग़ैरज़मानती धाराओं में फ़र्जी मुकदमे लाद दिये गये। इनमें से दो आज भी ‘माओवादी’ समर्थक होने के आरोप में जेल में बन्द हैं। प्रसिद्ध युवा वैज्ञानिक और चर्चित वेबसाइट ‘संहति’ टीम से जुड़े पार्थसारथि राय को पुलिस पर हमला करने के आरोप में गिरफ्ऱतार किया गया जबकि वे उस दिन कई किलोमीटर दूर एक संस्थान में पढ़ा रहे थे। सरकारी दमन के तमाम हथकण्डों के बावजूद नोनाडांगा के ग़रीबों का आन्दोलन अभी जारी है और उसे देशभर से समर्थन भी मिल रहा है। इस घटना ने ममता सरकार के तानाशाही चरित्र को एकदम नंगा कर दिया है।

Mamta and CPM

ग़रीबों को उजाड़ने की इस मुहिम को सही ठहराने की सनक में मुख्यमंत्री ऐसे बयान देती रही हैं कि नोनाडांगा में ‘माओवादियों ने हथियार और गोला-बारूद जमा कर रखे हैं’। ये वही ममता हैं जो सिंगुर और नन्दीग्राम के बारे माकपा के ऐसे बयानों को झूठा बताती थीं और ‘माओवादियों’ को जनता का सच्चा मित्र बताती थीं। सत्ता में आने से पहले जो ममता माओवादी नेता ‘आज़ाद’ के फ़र्जी एनकाउण्टर की सीबीआई जाँच की माँग कर रही थी, उनकी सरकार बनते ही माओवादियों की धरपकड़ और फ़र्जी मुठभेड़ों का अभियान तेज़ हो गया। लालगढ़ आन्दोलन के दौरान चर्चित हुए माओवादी नेता किशनजी को भी मार्च में फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया। विडम्बना यह है कि यही किशनजी और उनका संगठन माकपा के खिलाफ़ ममता बनर्जी के पक्ष में माहौल बनाने में बहुत मददगार था। आम तौर पर चुनाव बहिष्कार का नारा देने वाले माओवादियों ने पिछली बार तृणमूल को भीतर-भीतर वोट दिलवाने का भी काम किया था। इस किस्म का दक्षिणपंथी अवसरवाद लागू करना वामपंथी दुस्साहसवादियों के लिए नया नहीं है। वे पहले कर्नाटक में भी इसे आज़मा चुके हैं और तब भी उन्हें उसका ऐसा ही नतीजा भोगना पड़ा था।

पिछले चन्द महीनों की घटनाओं ने पश्चिम बंगाल की जनता और बुद्धिजीवियों को एहसास करा दिया है कि ममता के ‘माँ-माटी-मानुष’ और माकपा के ‘बाज़ार समाजवाद’ में कोई फर्क नहीं है। चुनाव के बाद सिर्फ इतना बदलाव हुआ है कि शासन-प्रशासन में माकपा समर्थकों, गाँव-शहर के गली-मुहल्लों-बस्तियों में माकपा के गुण्डा गिरोह ‘हरमद वाहिनी’ का स्थान प्रशासनिक तंत्र में तृणमूल समथर्कों और गाँव-शहर के गली-मुहल्लों-बस्तियों में तृणमूल के गुण्डा-गिरोह ‘भैरव वाहिनी’ ने ले ली है। गुण्डों की नामपट्टिका बदल गई है, लेकिन गुण्डई कायम है। यही तृणमूल कांग्रेस की राजनीति है और यही उसका असली चरित्र है। नन्दीग्राम और सिंगूर के आन्दोलन में ममता की भूमिका से बंगाल की आम जनता ही नहीं, बहुत से बुद्धिजीवी और क्रान्तिकारी वाम धारा से जुड़े कुछ ग्रुप भी ख़ासे प्रभावित थे। यही लोग अब ममता के मुख्यमंत्री बनते ही उनके व्यवहार में नाटकीय बदलाव से हैरान हैं और इसे तृणमूल कांग्रेस द्वारा जनता से विश्वासघात बता रहे हैं। इसे उनका भोलापन न कहें तो क्या जाये? क्या ये लोग ममता बनर्जी का इतिहास नहीं जानते थे? क्या ये भूल गये थे कि सामाजिक बदलाव का सपना देखने वाले हज़ारों नौजवानों का ख़ून बहाकर नक्सलवादी आन्दोलन का बर्बर दमने करने वाले सिद्धार्थ शंकर रे के मुख्यमंत्रित्व के दौरान ममता बनर्जी उनकी ख़ास चेली थी। यह वही ममता हैं जिन्होंने पश्चिम बंगाल में जयप्रकाश नारायण के काफिले में अपनी गुण्डा वाहिनी को लेकर हुड़दंग मचाया था, जयप्रकाश नारायण की कार के बोनट पर चढ़ कर नारेबाज़ी की थी और उनकी कार के शीशे तोड़ दिये थे। जयप्रकाश नारायण के ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ की पोल तो समय ने खोल दी, लेकिन उनके नेतृत्व में जो आपातकाल-विरोधी आन्दोलन चल रहा था, पश्चिम बंगाल में उस पर ममता बनर्जी की अगुवाई में असामाजिक तत्वों ने जमकर हमला किया।

सोचने की बात यह भी है कि इनका राजनीतिक चरित्र पता होते हुए भी, माओवादियों और बुद्धिजीवियों-संस्कृतिकर्मियों ने चुनावों के दौरान ममता और तृणमूल कांग्रेस का समर्थन क्या सोचकर किया! क्या जनता के हरावलों का फ़र्ज़ नहीं बनता कि वे जनता को यह बतायें कि साँपनाथ (माकपा) और नागनाथ (तृणमूल कांग्रेस) में सिर्फ फन के रंगरूप का ही फर्क है! लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, उस समय तो वे ममता की सादगी और जनपक्षधरता पर लहालोट हुए जा रहे थे, तो वे जनता को क्या बताते! अन्दरूनी दायरों में ममता के समर्थन को रणकौशल बताते-बताते वे खुद ही ममता के हाथों खेलते रहे और अब पछता रहे हैं।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2012

 

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