एक शर्मनाक फैसले की हकीकत

श्वेता

क्या आप संवेदनशील, न्यायप्रिय और इंसाफ़पसन्द हैं? क्या अन्याय के विरुद्ध विद्रोह को आप न्यायसंगत समझते हैं? क्या शोषण के खिलाफ होने वाली बग़ावत को आप सही मानते हैं? अगर इन सवालों का जवाब हाँ है तो सावधान! किसी भी क्षण आपको ‘‘गुण्डा’’ घोषित कर समाज के लिए ख़तरनाक बताया जा सकता है! अभी हाल में ऐसी ही एक शर्मनाक घटना गोरखपुर जिले में सामने आयी।

यहाँ तीन जनवरी को मज़दूरों के संघर्ष की अगुवाई करने वाले बिगुल मजदूर दस्ता के कार्यकर्ताओं और एक मजदूर प्रतिनिधि के खिलाफ जिला प्रशासन ने गुण्डा एक्ट लगाकर जिलाबदर (जिले से बाहर कर दिया जाना) का आदेश किया। ग़ौरतलब है कि प्रशासन ने एक पक्षीय रुख़ अपनाते हुए चन्द दिनों के भीतर ही इस कार्यवाही को अंजाम दिया। वर्ष 2011 में 8 नवम्बर को इस मामले की पहली सुनवाई हुई और दो महीने से भी कम समय में 3 जनवरी, 2012 को इस मामले में फैसला सुनाया गया। जहाँ एक तरफ कानूनी मामलों के निपटारे में सालों-साल बीत जाते है वहाँ जिला प्रशासन ने जिस फुर्ती से इस मामले पर फैसला सुनाया, उसकी सचमुच दाद देनी पड़़ेगी! बड़े ही सुनियोजित तरीके से स्थानीय पुलिस, जिला प्रशासन, पूँजीपतियों और बाहुबली नेताओं के गठजोड़ ने साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति पर अमल करते हुए इस कार्यवाही को अंजाम दिया।

ज्ञात हो कि गोरखपुर जिले के बरगदवा औद्योगिक क्षेत्र में वर्ष 2009 से ही अलग-अलग कारखानों के मजदूर समय-समय पर अपनी जायज़ माँगों को लेकर संघर्षरत रहे हैं। मज़दूरों को अपने हक़ों की लड़ाई में संगठित करने में बिगुल मज़दूर दस्ता ने शुरू से ही नेतृत्वकारी भूमिका निभाई है। मज़दूर संघर्ष की तेज़ी से जिले के पूँजीपति भयाक्रान्त हैं। स्थानीय पूँजीपति इस सच्चाई से अच्छी तरह वाकिफ़ हैं कि मज़दूरों को अपने हकों के प्रति सजग बनाने में बिगुल मज़दूर दस्ता ने एक अहम भूमिका निभाई है। शोषण का वही पुरान माहौल कारखानों में लौट आये ताकि पूँजीपतियों का मुनाफ़ा बढ़े, इसके लिए स्थानीय कारखाना मालिकों के लिए बिगुल मज़दूर दस्ता का सफ़ाया करना बेहद ज़रूरी था। इसी सोच के तहत वहाँ के पूँजीपतियों ने हर मुमकिन कोशिश करके पुलिस-जिला प्रशासन व स्थानीय नेताओं की मदद से बिगुल के कार्यकर्ताओं पर फर्जी मुकदमें लगाकर उन्हें कानूनी मामलों में उलझाने का चक्रव्यूह रचा। इसी साजि़श के नतीजे के रूप में सामने आया बिगुल के कार्यकर्ताओं पर गुण्डा एक्ट लगाये जाने का फैसला व उन पर जिलाबदर का आदेश सुनाया जाना। जिला प्रशासन मज़दूरों के संघर्ष की अगुवाई करने वालों को ‘‘गुण्डा’’ घोषित कर रही है, वहीं दूसरी तरफ मज़दूरों पर गोलियाँ बरसाने वाले कारखाना मालिकों व कुख्यात गुण्डों (वर्ष 2011 में 3 मई को अंकुर उद्योग के मालिक अशोक जालान ने गुण्डों का बुलाकर मज़दूरों पर गोलियाँ चलवाई जिसमें 20 मजदूर गम्भीर रूप से घायल हुए थे) को खुला संरक्षण दे रही है। गोलीकाण्ड के मुख्य अभियुक्त आज भी खुलेआम घूम रहे हैं, अभी तक उनकी कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है।

गोरखपुर की यह घटना एक मात्र ऐसी घटना नहीं है। देशभर में जहाँ कहीं भी आम जनता अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत है, वहाँ राज्यसत्ता फर्जी मुकदमों में उलझाकर, उनपर या तो ‘‘गुण्डा’’ या माओवादी होने का लेबल चस्पाँ कर रही है। इसमें से कुछ एक घटनाएँ तो मीडिया में कहीं दिखाई-सुनाई पड़ती हैं, पर अधिकतर घटनाओं को व्यवस्थित तरीके से दबा दिया जाता है। यहाँ तक कि मीडिया खुद भी ऐसे मुद्दों को ब्लैकआउट करने का काम करती है। अपने हकों के लिए आवाज़ उठाने के लोकतान्त्रिक अधिकार को राज्यसत्ता अलग-अलग तरीकों से दबाने-कुचलने का काम करती है, पर इस सबके खि़लाफ़ कहीं कोई पुरज़ोर विरोध सुनाई नहीं पड़ता है। कुछ प्रतीकात्मक विरोध के अलावा हर तरफ मुर्दा शान्ति का माहौल व्याप्त है। यह पूरा परिदृश्य हर जि़न्दा इंसान को सोचने व अपनी चुप्पी तोड़ने का संदेश दे रहा है। तय करने की जिम्मेदारी हमारी है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2012

 

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