बेजुबान, बेनाम और बेगुनाह
कश्मीर में सामूहिक कब्रों ने किया भारतीय राज्य को बेपर्द
अभिनव
अन्ततः लगभग उन सभी तथ्यों की पुष्टि हो गयी जो तमाम जनवादी अधिकार संगठनों, गुमशुदा लोगों के परिवार वालों द्वारा बनाये गये संगठनों और अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों ने बहुत पहले ही पेश कर दिये थे। जम्मू-कश्मीर राज्य मानवाधिकार आयोग द्वारा नियुक्त विशेष जाँच टोली ने अपनी जाँच रिपोर्ट में 2730 कब्रों के मिलने की पुष्टि की, जिसमें से 2156 कब्रें गुमनाम थीं। ग़ौरतलब है कि यह जाँच मात्र चार जिलों के कुछ हिस्सों में की गयी थी। जाँच रिपोर्ट स्वयं ही बताती है कि पूरे राज्य में ऐसी जाँच से पूरी तस्वीर सामने आयेगी। जाँच रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि गुमनाम कब्रों की लाशों की डी.एन.ए. जाँच की जानी चाहिए और इस बात की पूरी गुंजाइश है कि जो हज़ारों लोग सुरक्षा बलों द्वारा आतंकी बोलकर उठाये गये और कभी नहीं लौटे, ये वे लोग निकलें। जाँच रिपोर्ट यहाँ तक कहती है कि अगर गुमशुदा लोगों की मौत की पुष्टि इस रूप में होती है तो यह सरकार पर बहुत बड़ा सवाल होगा और यह सोचा जाना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र बल विशेष शक्ति कानून और डिस्टर्ब्ड एरियाज़ एक्ट लागू किये रखने का कोई अर्थ है या नहीं। यह एक जनवादी होने का दावा करने वाले राज्य के लिए शर्म की बात है कि आतंकवाद से लड़ने के नाम पर वह हज़ारों बेगुनाह मासूम नागरिकों को यातना दे-देकर मार डाले। रिपोर्ट में तो और भी बहुत सी बातें कही गयी हैं, लेकिन अब देखना यह है कि सरकार इस पर क्या करती है। पूरी उम्मीद इसी बात की है कि सुरक्षा बलों की अदण्डनीयता कायम रहेगी और जिस अमानवीय और बर्बर अत्याचार का सामना कश्मीरी जनता को पिछले कई दशकों से करना पड़ा है, वह भी जारी ही रहेगी। इस तरह के खुलासे पहले भी होते रहे हैं। बस नयी बात यह है कि पहली बार किसी सरकारी एजेंसी या जाँच टीम ने इस बात की पुष्टि की है। अप्रैल 2009 में ‘एसोसयेशन ऑफ पेरण्ट्स ऑफ डिसपियर्ड पर्संस’ (एपीडीपी) ने एक रिपोर्ट जारी की जिसका नाम था ‘फैक्ट्स अनग्राउंडेड’। इसके 19 महीने बाद ‘इण्टरनेशनल पीपुल्स ट्रिब्युनल ऑन ह्यूमन राइट्स एण्ड जस्टिस इन जम्मू-कश्मीर’ (आईपीटीके) ने एक रिपोर्ट जारी कीः ‘बेरीड एविडेंसः अननोन, अनमार्क्ड मास ग्रेव्स इन कश्मीर’। इन रिपोर्ट ने 2,373 बेनाम कब्रों की शिनाख़्त की। ये कब्रें बंदीपुरा, बारामुला, और कुपवाड़ा जिले में मिलीं थीं। आईपीटीके ने अपनी रिपोर्ट में फोटोग्राफ, कब्र खोदने वालों के बयानों और चश्मदीद गवाहों की गवाही को शामिल किया। इस रिपोर्ट ने सन्देह से परे इस बात को साबित किया था कि ये लोग वे ही गुमशुदा लोग हैं जिन्हें भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा उठा लिया गया था और वे कभी वापस नहीं लौटे। स्थानीय लोगों ने बताया कि सेना अक्सर लाशों को रात के वक़्त लेकर आती थी और बताती थी कि ये आतंकवादियों की लाशें हैं। इसके बाद उन्हें दफना दिया जाता था।
जाहिर है, यह कश्मीर की जनता के लिए कोई आश्चर्यजनक खुलासा नहीं था। कश्मीर की जनता तो बहुत पहले से जानती है, और उस दर्द को महसूस कर सकती है। 1989 से 2009 के बीच करीब 10,000 लोग ग़ायब हुए जो कभी वापस नहीं लौटे। बुजुर्ग अपने जवान बेटे-बेटियों का इन्तज़ार कर रही हैं, औरतें अपने पतियों और बच्चे अपने पिताओं का। कश्मीर की जनता लगातार इस बर्बर जुल्म को झेल रही है और इसलिए उसे ऐसे किसी खुलासे की ज़रूरत नहीं थी यह जानने के लिए भारतीय सुरक्षा बल उसके साथ क्या करते रहे हैं। लेकिन भारत के अन्य हिस्सों में रहने वाले आम नागरिकों के लिए यह एक अहम खुलासा है, जो बचपन से कश्मीर को भारत माता के ताज के रूप में स्कूली किताबों में देखते आये हैं; जिन्हें बचपन से बताया जाता है कि अगर कश्मीर को सख़्ती से पकड़कर न रखा गया तो पाकिस्तान उसे हड़प लेगा; जिसे मीडिया बचपन से सनी देओल मार्का फिल्में दिखला-दिखला कर उसके दिमाग़ में ऐसे जुमले भर देता है: ‘दूध माँगोगे, खीर देंगे-कश्मीर माँगोगे, चीर देंगे’! जाहिर है, ऐसे में उनके लिए कश्मीर और खीर में कोई ख़ास फ़र्क नहीं रह जाता। व्यवस्थित रूप से, कश्मीरी जनता को आतंकवादी के रूप में पेश किया जाता है और हमें उनके प्रति असंवेदनशील बनाया जाता है। मीडिया भारतीय सुरक्षा बलों को रक्षक और पाकिस्तान समर्थक आतंकवादी या आज़ादी की बात करने वाले कश्मीरियों को भक्षक और राक्षस के रूप में दिखलाता है। ऐसे में, भारत के नागरिकों का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा कश्मीर को भारत की सम्पत्ति समझता है। उसे सुरक्षा बलों द्वारा किया जाने वाला अत्याचार एक अनिवार्य बुराई नज़र आता है। ऐसे में, कश्मीरी जनता का अपने आपको अलगाव में महसूस करना क्या लाज़िमी नहीं है? ऐसे में, भारतीय राज्य और सुरक्षा बलों के खि़लाफ़ जनता के भीतर भयंकर नफ़रत और गुस्सा होना क्या लाज़िमी नहीं है? कश्मीर में प्रतिक्रिया में अगर पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगते हैं तो इस पर आश्चर्य किया जा सकता है? कश्मीर में अगर जनता आज़ादी के नारे लगाती है तो इस पर अचरज जताया जा सकता है?
जम्मू-कश्मीर राज्य मानवाधिकार आयोग की रपट ने सर्वज्ञात, सर्वमान्य और सामान्य तथ्य को आधिकारिक तौर पर पुष्ट कर दिया है। यह कश्मीरियों के लिए कोई खुलासा नहीं, लेकिन भारत के आम नागरिकों को सोचना चाहिए कि जिस देशभक्ति और राष्ट्रवाद में बहकर हम कश्मीर के सवाल पर अति-भावुक हो जाते हैं, उसमें किसके हित शामिल हैं। निश्चित तौर पर, इसमें भारत और पाकिस्तान के हुक़्मरानों के हित शामिल हैं। इन दोनों में से किसी का भी सरोकार कश्मीर की जनता के दुख-दर्द के साथ नहीं है। अपनी-अपनी क्षेत्रीय साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा के झगड़े में कश्मीर की आम मेहनतकश जनता को ये दबा-कुचल रहे हैं। कश्मीर प्रश्न का समाधान एक बहुत गहरा और जटिल मुद्दा है। निश्चित रूप से, एक पूँजीवादी राज्य इस समस्या का सही, जनवादी और क्रान्तिकारी समाधान नहीं कर सकता है। लेकिन अगर अभी हम इस दूरगामी लक्ष्य के बारे में न भी सोचें तो हर संवेदनशील व्यक्ति का पहला कर्तव्य बनता है कि सुरक्षा बलों की बर्बरता और अत्याचार की इस पुष्टि के बाद सशस्त्र बल विशेष शक्ति कानून और डिस्टर्ब्ड एरियाज़ एक्ट जैसे आदमखोर कानूनों की खि़लाफ़त करे और उन्हें रद्द करने की माँग करे। ये कानून बुनियादी जनवादी सिद्धान्तों की भी धज्जियाँ उड़ाते हैं और एक जनवादी होने का दावा करने वाले देश में ऐसे कानूनों की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। उत्तर-पूर्व के राज्यों का सवाल हो या फिर कश्मीर का, ज़ोर-ज़बर्दस्ती से हासिल किया गया “राष्ट्रीय एकीकरण” कभी वास्तविक एकीकरण और सम्मिलन नहीं बन सकता। यह ऊपरी दबाव के टूटते या कमज़ोर पड़ते ही बिखर जायेगा। उल्टे इस किस्म की ज़ोर-ज़बर्दस्ती हर-हमेशा इन राज्यों की जनता के अलगाव को और बढ़ायेगा और उन्हें दूर करेगा। इन राज्यों की जनता को अपने भविष्य का निर्धारण करने का हक़ देना ही एकमात्र सही और उचित रास्ता है। यही लम्बी दूरी में समस्या का समाधान कर सकता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2011
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!