राजस्थान में गोपालगंज साम्प्रदायिक हिंसा
कांग्रेसी ‘धर्मनिरपेक्षता’ की असली कहानी
शिवार्थ
आज़ादी के 64 सालों के दौरान भारतीय राज्य का ‘धर्मनिरपेक्ष’ चरित्र कभी कश्मीर में, कभी गुजरात और मध्यप्रदेश में तो कभी राजस्थान में, अपने सच्चे रूप में देश की जनता के सामने उजागर होता रहा है। जहाँ गुजरात और मध्यप्रदेश जैसी जगहों पर, संघ और उसका चुनावी मुखौटा भाजपा सत्ता में है, वहाँ धार्मिक अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ बहुत ही सचेतन प्रक्रिया में हिंसक गतिविधियों को अंजाम दिया जाता है, वहीं राजस्थान, महाराष्ट्र इत्यादि जैसी जगहों पर जहाँ ये धार्मिक फासीवादी सत्ता में नहीं होते, वहाँ यह प्रक्रिया कम तीखे रूप में सामने आती है। इस धार्मिक बहुसंख्यावादी राजनीति के केन्द्र में भी वर्ग राजनीति ही होती है, क्योंकि शासक वर्ग इनके माध्यम से उन अन्तरविरोधों को धूमिल करता है जो व्यवस्था के लिए संकट पैदा कर सकते हैं।
पिछली 14 सितम्बर को राजस्थान-उत्तर प्रदेश सीमा पर स्थित भरतपुर जिले के गोपालगंज कस्बे में ज़मीन के विवाद को लेकर मेव मुस्लिम समुदाय और गुर्जर समुदाय के बीच साम्प्रदायिक हिंसा भड़क उठी, जिसमें दस लोग मारे गये और करीब दो दर्जन लोग घायल हो गये। मारे गये सभी दस लोग और घायलों में से भी ज़्यादातर मेव मुस्लिम समुदाय के हैं। कुछ मानवाधिकार संगठनों के अनुसार यह आँकड़ा और भी ज़्यादा हो सकता है, क्योंकि मुस्लिम समुदाय के कई लोग अभी भी लापता हैं। पी-यू-सी-एल-, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, राजस्थान मुस्लिम फोरम और यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी द्वारा इलाका का दौरा करने भेजे गये जाँच दल के अनुसार इस हिंसा में हताहत हुए लोग दंगों का शिकार नहीं, बल्कि पुलिस की गोलियों का शिकार हुए हैं। दस मृतकों में जिन तीन लोगों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट के बारे में ज्ञात हुआ है, उसके अनुसार तीनों ही लोग पुलिस बल की गोलियों से मरे हैं। इतना ही नहीं, बल्कि जिस जगह पर यह घटनाक्रम हुआ, वहाँ पुलिस द्वारा करीब 219 गोलियाँ दागी गयीं। अब जाहिरा तौर पर, जैसा कि राज्य सरकार दावा कर रही थी (क्योंकि साक्ष्यों के आने के बाद करना असम्भव बन गया) इतनी भारी संख्या में गोलियाँ हवा में तो नहीं चलायी गयी होंगी ताकि भीड़ को तितर-बितर किया जा सके। दरअसल अगर पूरे घटनाक्रम पर एक नज़र दौड़ायी जाये तो चीज़ें अपने-आप साफ़ हो जाती हैं।
गोपालगंज कस्बे में स्थित जामा मस्जिद के पास स्थित एक खाली ज़मीन को लेकर दोनों समुदायों के बीच लम्बे समय से विवाद चल रहा था। मेव मुस्लिम समुदाय का दावा था कि यह कब्रिस्तान की ज़मीन है, और गुर्जरों का दावा था कि यह पशुओं के चरने की ज़मीन है। इस विवाद के बावजूद स्थिति कोई गम्भीर नहीं थी और उम्मीद थी कि स्थानीय प्रशासन से बातचीत करके मामला सुलझा लिया जायेगा। 13 सितम्बर को, यानी घटना से एक दिन पहले जामा मस्जिद के शाही इमाम को दिनदहाड़े किसी ने पीट दिया। इसके उपरान्त 14 सितम्बर को सुबह ही पुलिस की मौजूदगी में मेव मुस्लिमों और गुर्जरों के बीच कुछ कहा-सुनी हुई, जिस पर पुलिस बल गुर्जरों का साथ देते नज़र आये। इसके उपरान्त इर्द-गिर्द के करीब चालीस गाँवों के मुस्लिम समुदाय के लोग 14 सितम्बर को दिन में जामा मस्जिद में ‘अशर की नमाज़’ अदा करने के लिए इकट्ठा हुए। उनका मकसद था कि नमाज़ अदा करने के बाद इकट्ठा होकर इन मसलों पर बातचीत की जाये। इकट्ठा होने के पीछे असुरक्षाबोध भी एक कारण रहा होगा, क्योंकि अल्पसंख्यकों के साथ समय-समय पर जैसा व्यवहार किया जाता है, उसकी यही परिणति हो सकती है। ख़ैर, उनके इकट्ठा होने की ख़बर पाकर और सुबह की घटना से बौखलाये हुए पुलिस वालों ने गुर्जर समुदाय के कुछ लोगों के साथ मिलकर जामा मस्जिद पर धावा बोल दिया। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार बाकायदा यह कहते हुए ‘कि आज यहीं पर इनका अन्तिम संस्कार कर दिया जाये’ पुलिस द्वारा मुस्लिम समुदाय के लोगों पर गोलियाँ चलायी गयीं, लोहे के हथियारों से वार किया गया। इतना ही नहीं बल्कि पास ही कण्डे, सूखी लकड़ी इत्यादि इकट्ठा करके आग जलाकर गड्ढे में लोगों को झोंक दिया गया। यही कारण है कि मृतकों में सभी लोग सिर्फ एक ही समुदाय के हैं, और घायलों में भी कमोबेश यही स्थिति है। राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार के राज्य में कोई पहली बार ऐसा नहीं हुआ है। पिछले दो सालों के दौरान उदयपुर, झलावर, जोधपुर, दौसा में भी अल्पसंख्यक आबादी साम्प्रदायिक हिंसा का शिकार हुई है।
इस घटनाक्रम के बाद जैसा कि अक्सर होता है मृतकों और घायलों के लिए मुआवज़ा राशि जारी कर दी गयी, राहुल गाँधी, सचिन पायलेट जैसे फायर ब्राण्ड युवा नेताओं के साथ भाजपा के शाहनवाज़ हुसैन के नेतृत्व में एक चार सदस्यीय दल ने इलाके का दौरा किया और दंगों से उपजे चुनावी नुकसान और फायदे के अनुसार अपनी-अपनी भूमिका निभायी।
यह ज़रूर ग़ौरतलब है कि पी-यू-सी-एल- और कुछ मानवाधिकार संगठनों के त्वरित जाँच रिपोर्ट जारी करने और स्थानीय पैमाने पर जनता को इकट्ठा कर कुछ विरोध सभाएँ करने के कारण राज्य सरकार कुछ मुद्दों पर पीछे हटने को मजबूर हुई। जहाँ पहले सरकार ने सिर्फ जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस महानिरीक्षक के तबादले से काम चलाया था, वहीं बाद में उन्हें निलम्बित करने का आदेश जारी किया। इसके साथ जहाँ पहले प्रशासनिक जाँच से काम चलाया जा रहा था, वहीं सी-बी-आई- जाँच के आदेश जारी किये गये।
जाहिरा तौर पर ये कदम कांग्रेस की उदारता के परिणामस्वरूप नहीं बल्कि जन-दबाव और भविष्य के चुनावी समीकरणों के मद्देनज़र ही उठाये गये। दूसरे इन कदमों से भविष्य में ऐसी घटनाएँ कम हो जायेंगी, ऐसा भी कुछ नहीं होने वाला है। जो बात यहाँ ग़ौर करने वाली है, वह यह कि किस प्रकार पुलिस से लेकर भारतीय समाज के पूरे प्रशासनिक तन्त्र में समुदाय विशेष के प्रति विद्वेष भाव व्याप्त है। सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के उन्नत पूँजीवादी देशों के प्रशासनिक कार्यवाहियों में भी इसकी मिसालें मिलती हैं और पिछले दिनों (पूँजीवादी विश्वव्यापी संकट के दौर में) शासक वर्गों ने इन अन्तरविरोधों को और बढ़ावा देने का काम किया है। पश्चिमी यूरोप के देशों में पिछले दिनों प्रवासियों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा और चुनावी पार्टियों द्वारा जारी प्रवासी विरोधी प्रचार की बुनियाद में यही कारण है। हमारे देश में यह प्रक्रिया ज़्यादा मुखर रूप में सामने आती है, क्योंकि अपने ‘स्वर्णिम दौर’ में भी हमारे शासकों के पास इन सामन्ती प्रतीकों के विरुद्ध लड़ने की ताकत नहीं थी। इसके विपरीत इनका इस्तेमाल समय-समय पर जनता को बाँटने के लिए उसी रूप में इस्तेमाल किया गया जैसा अंग्रेज़ों ने किया था। भाजपा और संघ जहाँ इस राजनीति के आधार पर अस्तित्वमान ही रहते हैं और खुले तौर पर धार्मिक अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलते हैं, वहीं कांग्रेस, ज़्यादा शातिर ढंग से ‘नरम हिन्दू काण्ड’ खेलती है और चुनावी समीकरणों के मद्देनज़र अपना बटखरा इधर से उधर करती है। अयोध्या, पंजाब और दिल्ली, ’84 को भला कौन भूल सकता है!
इसका दूसरा पहलू यह है कि लगातार जारी इन घटनाओं के बीच धार्मिक अल्पसंख्यक एक असुरक्षाबोध और उससे जनित एक ‘प्रतिक्रिया’ की मानसिकता में जीने को मजबूर रहते हैं। हर ऐसी घटना, अप्रत्यक्ष रूप में उन करोड़ों लोगों को डर और भय के वातावरण में जीने के लिए मजबूर कर देती है, जिसका इस्तेमाल चुनावी पार्टियों से लेकर धार्मिक आतंकवादी संगठन करते हैं।
ऐसे में सभी जनपक्षधर और सचेत छात्रों-युवाओं के सामने सर्वप्रथम अपने धार्मिक पूर्वाग्रहों को तोड़कर, शासक वर्गों की उन दूरगामी चालों का समझना होगा जो इनका इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ अपने हितसाधन के लिए करते हैं। दूसरे भाजपा और संघ के तीखे हमलों के विरुद्ध कांग्रेसी या संसदीय वामपन्थियों के धर्मनिरपेक्षता के बजाय मेहतनकश जनता की फौलादी एकजुटता पर भरोसा करना होगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-अक्टूबर 2011
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