सूचना प्रौद्योगिकी माध्यमों पर सरकार के सर्विलियंस का असली निशाना जनता है
सनी
भारत में सूचना क्रान्ति का असर पिछले दशक से व्यापक हुआ है। आज भारत में करीब 10 प्रतिशत लोग इण्टरनेट का इस्तेमाल करते हैं। हालाँकि यह अनुपात कम है और कुल आबादी की तुलना में यह अनुपात जल्दी बढ़ने वाला भी नहीं है (क्योंकि नये इण्टरनेट उपभोक्ताओं से ज़्यादा तेज़ी से नये ग़रीब बढ़ रहे हैं!) लेकिन निरपेक्ष रूप से यह संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। इण्टरनेट उपभोक्ताओं की संख्या के हिसाब से भारत में विश्व में तीसरे नम्बर पर है। भारत में दूसरे नम्बर पर सबसे ज़्यादा मोबाईल फोन उपभोक्ता हैं। आज भारत में एक बड़ी आबादी एक-दूसरे से सूचनाओं का आदान-प्रदान कर रही हैं, हालाँकि इण्टरनेट का इस्तेमाल करने वाली आबादी मुख्यतः उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग से हैं, परन्तु इस तकनोलॉजी का तमाम राजनीतिक कार्यकर्ता भी इस्तेमाल कर रहे हैं। कई लोग फेसबुक, ब्लॉग, वेबसाइट और अन्य माध्यमों को इस्तेमाल कर जनता के पक्ष में आवाज़ उठा रहे हैं। इण्टरनेट पर आज जनआन्दोलनों का प्रचार, मार्क्सवाद तथा प्रगतिशील विचारों का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। भोपाल गैस त्रासदी से लेकर, हरियाणा के गाँव गोरखपुर के नाभिकीय संयत्र का विरोध या जगह-जगह खड़े हो रहे मज़दूर आन्दोलनों का प्रचार इण्टरनेट पर किया जा रहा है। खुद ‘वाल स्ट्रीट कब्जा करो’ आन्दोलन और अरब जनउभार में इण्टरनेट का व्यापक इस्तेमाल किया गया। यही कारण है कि भारत सरकार भी खुद को हर प्रकार के विरोधों के खिलाफ चाकचौबन्द कर रही है। भारत में जिस गति से नवउदारीकरण की नीतियों ने ध्रुवीकरण पैदा किया है, सम्भव है कि आने वाले समय में जन असन्तोष सड़कों पर फूट पड़े। सेन्ट्रल मॉनिटरिंग सिस्टम, नेटग्रिड, यू.आई.डी. योजना इत्यादि उन्नत तकनोलॉजी संस्थान तथा इन्फोर्मेशन तकनोलोजी एक्ट 2008 और एन.सी.टी.सी. जैसे ख़तरनाक कानून को लागू करना या इसकी तैयारी करना इसी प्रक्रिया का हिस्सा हैं।
इन्फोर्मेशन तकनोलोजी एक्ट 2008 सरकार की खुफिया एजेंसियों व पुलिस आदि को भारत में हर प्रकार के सूचना संचार पर नज़र रखने की आज़ादी देता है। अमेरिका और यूरोप में सूचना के प्रसार पर चौकसी काफी पहले ही रखी जाती है। यहाँ पर 70 प्रतिशत से ज़्यादा आबादी इण्टरनेट का उपयोग करती है, स्कैण्डिनेवियन देशों में यह चौकसी और भी विशाल रूप से रखी जाती है क्योंकि वहाँ की 90 प्रतिशत से ज़्यादा आबादी इण्टरनेट उपभोक्ता है। चीन में, जहाँ दुनिया के सबसे ज्यादा इण्टरनेट व मोबाइल उपभोक्ता हैं, सामाजिक फासीवादी शासन ने सर्विलियंस के तंत्र को सूक्ष्म और व्यापक स्तर पर बिछा रखा है। आज की दुनिया में आप इण्टरनेट पर किसी को भी मेल करते हैं, फोन करते हैं, हर चीज़ पर देश की सरकार की नज़र है-कहीं आप उसके खिलाफ तो कुछ नहीं बोल रहे हैं? कहीं आप कोई व्यवस्था-विरोधी साजिश तो नहीं कर रहे हैं? इसलिए आज सर्विलियंस का सवाल एक बेहद ज़रूरी राजनीतिक सवाल है। सरकार द्वारा की जा रही सर्विलियंस ख़तरनाक है। इस सवाल को समझने के लिए पहले हमें इण्टरनेट के तंत्र को समझना होगा। पहले यह देख लेते हैं की इण्टरनेट पर आज किस प्रकार से सूचना का आदान-प्रदान व्यापक हुआ है तथा खुद इसके क्या माने हैं। हम पूँजीवाद में सूचना क्रांति के दौर में सूचना के व्यापक तंत्र का सामाजिक विश्लेषण रखेंगे।
पिछले 20 सालों में सूचना के माध्यम बेहद शक्तिशाली और तेज़ हुए हैं। ऑप्टिकल फाइबर के जालों ने, सूक्ष्म तरंगों की फील्ड तथा अन्य माध्यमों को व्यापक संचार तंत्र ने हर ओर से घेर रखा है। सूचना को बेहद शक्तिशाली ट्रांसमीटरों के जरिये दुनिया के किसी भी हिस्से तक पहुँचाया जा सकता है। हम ब्रह्माण्ड में भी अपना विस्तार कर रहे हैं। सूचनाओं के आदान-प्रदान की व्यापकता इस बात से समझी जा सकती है कि विश्व में 7 अरब आबादी पर 5-6 अरब मोबाईल है और 2 अरब इण्टरनेट उपभोक्ता हैं। इस ज़्यादा संख्या से भ्रमित न हों! इसका कारण यह है कि कई कारपोरेट उपभोक्ताओं के पास एक, दो या तीन नहीं बल्कि सैंकड़ों इण्टरनेट व मोबाइल कनेक्शन हैं। यह आँकड़ा वैसे ही भ्रामक हो सकता है जैसे कि प्रति व्यक्ति आय से आम जनता के जीवन की खुशहाली का अन्दाज़ा लगाना! बहरहाल, इण्टरनेट पर हर सेकेण्ड खबरें, बैंक अकाउण्ट की जानकारी, अध्ययन सामग्री, मेल तथा चैटिंग, वीडियो, आडियो, तस्वीरों आदि का आदान-प्रदान होता है। हालाँकि, सिर्फ यह बात इण्टरनेट की असली तस्वीर पेश नहीं करती है।
इण्टरनेट भी आज पूँजीपतियों की होड़ का युद्धक्षेत्र है। चाहे गूगल हो, अमेज़न हो या फेसबुक, ये सब बड़े मुनाफाखोर हैं; दूसरी तरफ माइक्रोसॅाफ्रट, एपल कम्प्यूटर आदि सॅाफ्रटवेयर के बड़े मुनाफाखोर हैं। आपको इण्टरनेट से जुड़ने के लिए तारों के संजाल की जरूरत पड़ती हैं और उन पर एटी एण्ड टी, वेरिजोन और कामकास्ट जैसी बड़ी इण्टरनेट सर्विस प्रोवाइडर कम्पनियों का एकाधिकार है। इसका यह मतलब है कि इण्टरनेट भी पूँजी के महारथियों की जंग की ज़मीन है। जाहिर है की पूँजी के नियम से ही इण्टरनेट तंत्र भी चलता है। सूचनाओं पर पूँजी की अराजक गति की छाप होती है। यह सूचनाओं के प्रसार के लिए एक बेहद कारगर तकनोलॉजी है। पर इण्टरनेट पर मौजूद जानकारियाँ बेहद अव्यवस्थित होती हैं। मीडिया के हर नए रूप का यह आम नियम है। हर दिन सूचनाओं का विस्फोट आप तक हज़ारों ख़बरें, जानकारियाँ पहुँचाता है। परन्तु ज्ञान महज सूचनाओं का समुच्चय नहीं होता है, यह व्यवस्थित वैज्ञानिक वस्तु होता है जो एक वैज्ञानिक क्रिया के द्वारा विकसित होता है। स्पष्ट है कि यह महज़ इण्टरनेट के आगे बैठे रहने से प्राप्त नहीं हो सकता है। इण्टरनेट तथा टीवी मीडिया से प्राप्त जानकारी बिना आलोचनात्मक विवेचन और तुलनात्मक अध्ययन के, हमें किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचाती हैं।
बहरहाल, इण्टरनेट जैसी तकनोलोजी का इस्तेमाल राज्य हर उस व्यक्ति पर नज़र रखने के लिए करता है जो व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा है। हर राज्यसत्ता आज के दौर में खुद को हर प्रकार के जन विरोध के खिलाफ चाक-चौबन्द कर रही है, जनता पर नज़र रख रही है और उन लोगों को चिन्हित कर रही है जो राज्य के दमनतंत्र के खिलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं, जो कानून को ‘तोड़’ रहे हैं, चाहे वह कोई चोर हो, अल कायदा से हो, या मजदूर आन्दोलन से जुड़े हुए कार्यकर्ता हों। चाहे देशभर में मजदूरों का संघर्ष हो, नोएडा में किसानों का विरोध हो, हरियाणा के गोरखपुर गाँव के लोगों द्वारा संघर्ष हो, कश्मीर व उत्तर पूर्वी भारत में जन संघर्ष हो; जो कोई भी पूँजी की लूट के रास्ते में खड़ा है वह राज्य का शत्रु है और उसे राज्य तंत्र कुचलने की कोशिश करता है। इस इलेक्ट्रॉनिक निगरानी तंत्र को और चुस्त बनाने के लिए इसको कानूनी जामा पहनाते हुए भारत सरकार ने 2008 में इंफॉरमेशन तकनोलॉजी अधिनियम (2000) को संशोधित कर पारित किया। सोचने की बात यह है कि इस अधिनियम को बिना किसी सवाल या विरोध के संसद ने पारित किया। यह कानून सरकार को बिना किसी वारण्ट या कोर्ट आर्डर के किसी भी संचार को रिकॉर्ड करने तथा उसका उपयोग करने का अधिकार देता है। यह कानून केंद्रीय, राजकीय व आधिकारिक एजेंसी को किसी भी सूचना या जानकारी को अवरोधित (इण्टरसेप्ट), मॉनीटर व इन्क्रिप्ट (गोपनीय कोड में रूपान्तरित) करने का अधिकार देता है, ‘अगर यह कार्य राष्ट्र के हित में हो या किसी अपराध की जाँच में आवश्यक हो’। पिछले 64 साल का इतिहास स्पष्ट तौर पर बताता है कि राष्ट्र का हित वास्तव में हमेशा राज्य का हित होता है। सरकार ने जानकारी जुटाने के लिए नेट ग्रिड को स्थापित करने की बात कही है। नेट ग्रिड राष्ट्रीय स्तर का संस्थान होगा जो भारत के समस्त व्यक्तियों के इण्टरनेट अकाउण्ट, बैंकिंग, इंश्योरेंस, आप्रवासन, इनकम टैक्स अकाउण्ट, टेलीफोन इत्यादि पर सूचना को रिकॉर्ड करेगा। बिल्कुल इसी काम के लिए भारत में सी.एम.एस. (सेन्ट्रल मोनिटरिंग सिस्टम) को भी स्थापित किया जा रहा है जो बिना किसी टेली कम्युनिकेशन व इण्टरनेट आधारित कम्पनियों की अनुमति के देश भर में हर सूचना को मॉनिटर करेगा। आधार कार्ड की योजना (यू.आई.डी.) भी भारत के नागरिकों से उनकी हर जानकारी को, आँखों के रंग से लेकर बैंक के अकाउंट, इत्यादि को जानने के लिए देश भर में चलायी जा रही योजना है। 2012 के बजट में यू.आई.डी. पर सरकार ने राजस्व का बड़ा हिस्सा ख़र्च किया है तथा इसको विस्तारित कर 40 करोड़ लोगों को जोड़ने का लक्ष्य रखा गया है। सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर इन तीनों संस्थानों को एन.सी.टी.सी. से जोड़ने की बात कही है। इन सब सूचनाओं को सरकार सीधे देश में काम कर रही 12 खुफिया एजेंसियों जैसे रॅा, सी.बी.आई., आई.बी. आदि को मुहैया कराएगी। यह सभी संवैधानिक नियमों को धता बताते हुए खुफिया एजेंसियों को असीमित शक्ति दे देंगी। फिलहाल एन.सी.टी.सी., नेटग्रिड को अभी तक सरकार लागू नहीं कर पायी है पर जल्द ही हर विरोध के बावजूद यह लागू हो ही जायेंगे, क्योंकि इसमें किसी एक पार्टी के हित की नहीं बल्कि पूरी पूँजीवादी व्यवस्था और राज्यसत्ता के हित की बात है।
यही हालत विश्व के और देशों में भी है। अमेरिका में कार्निवोर, एक्लिओन जैसे सर्विलियंस सिस्टम बहुत पहले से ही बदनाम हैं जो सी.आई.ए. और एफ.बी.आई. सरीखी कुख्यात खुफिया एजेंसियों के लिए अमेरिकी व अन्य देशों के नागरिकों के हर इलेक्ट्रोनिक डाटा के आदान-प्रदान पर नज़र रखते हैं। एक्लिओन अमेरिका सहित इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा के लिए काम करता है। सर्विलियंस के तंत्र एस.आई.जी.एन.आई.टी. (सीगनिट) नामक तकनोलॉजी का इस्तेमाल करते हैं जिसमें हर प्रकार के सिग्नल की जाँच साफ्रटवेयर द्वारा की जाती है। यह साफ्रटवेयर आदान-प्रदान की जा रही सूचनाओं में विशिष्ट शब्दों, संकेतों को जाँचता है और किसी भी प्रकार के ‘ख़तरे’ को पकड़ने की कोशिश करता है। आजकल अमेरिका की खुफिया एजेंसियों के लिए नेरुस इनसाईट नामक कम्पनी, जिसका ऑफिस बंगलुरू में है, सर्विलियंस के कुख्यात सॉफ्रटवेयर बनाती है। यूरोप में यूरोपियन यूनियन डाटा रिटेंशन डाईरेक्टिवव टेलीकम्युनिकेशन ओपरेटरों को मास सर्विलियंस यानी पूरी जनता पर नजर रखने का आदेश देता है। यूरोपियन यूनियन के ‘हाइड और इण्डक्ट’ भी मास सर्विलियंस के प्रोजेक्ट हैं। फ्रांस की फ़्रेंक्लिओन, स्विस ओनिक्स, तथा स्वीडन का फ्रा (FRA) कानून वहाँ की खुफिया एजेंसियों द्वारा पूरे देश में तथा देश से विदेश में सूचनाओं के संचार पर नज़र रखने का हक़ देता है।
दरअसल, नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के लिए हर देश की सत्ता को इतने ही दमनकारी और अधिक सतर्कता वाले नए संस्थानों को खड़ा करना होगा और वह कर भी रहा है। ये कानून कहने के लिए मध्यवर्ग और उच्च वर्ग के ‘बिगड़े’ तबके पर नज़र रखने के लिए और कारपोरेट प्रतियोगिता के कारण बनाए गये हैं। इस व्यापक तथा सूक्ष्म सर्विलियंस तंत्र पर एक नज़र डालने के बाद यह सवाल दिमाग में आता है कि आखिर आज़ादी और जनवाद का आम जनता के लिए अर्थ क्या रह गया है? निजता का नागरिकों के लिए अर्थ क्या रह गया है? क्या जनवाद का अर्थ महज़ सत्ता और शासक वर्गों के साथ सहमत होने का अधिकार है?
आज शासक वर्ग और सत्ता एक नागरिक के कमरे में भी प्रवेश कर रहे हैं। अभी वह नागरिक सत्ता या शासक वर्ग के लिए ख़तरा नहीं है। लेकिन बचाव (प्रिवेंशन) के नाम पर राज्य सत्ता अनुमान या सन्देह के आधार पर आक्रमण और अतिक्रमण के रास्ते को अपना रही है, जिसे अंग्रेज़ी में ‘प्रीएम्प्टिव स्ट्राइक’ कहा जाता है। वास्तव में यह राज्यसत्ता का डर है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति वेंकटरमण ने कहा था कि अगर भारत की सरकार नवउदारवाद और भूमण्डलीकरण की नीतियों को इसी तरह लागू करती रही तो वह अधिक से अधिक दमनकारी होती जायेगी। इसके अतिरिक्त उसके पास और कोई रास्ता नहीं होगा। इसलिए तमाम किस्म के आतंकवाद-विरोधी कानूनों से लेकर इलेक्ट्रॉनिक और आर्थिक सर्विलियंस के नाम पर पूरी जनता के बुनियादी नागरिक व जनवादी अधिकारों का आज जो हनन हो रहा है, वह अप्रत्याशित नहीं है। यहीं पर पूँजीवाद जनवाद की असलियत भी तार-तार होकर सामने आ जाती है। पूँजीवादी जनवाद का अर्थ वास्तव में पूँजीपति वर्ग की तानाशाही ही होता है। इसलिए, जब तक पूँजीवादी सत्ता के लिए कोई स्पष्ट और आसन्न ख़तरा नहीं दिखता तब तक वह थोड़ा ज़्यादा जनवादी दिखता है (हालाँकि, ग़रीब मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी के लिए तब भी इसका कोई अर्थ नहीं होता!) और जब पूँजीवाद द्वारा ढाई जाने वाली तबाही और बरबादी के खि़लाफ़ जनता सड़कों पर उतरने लगती है, जब विद्रोह का लावा सतह के नीचे कुलबुलाने लगता है, तब पूँजीवादी राजसत्ता जनवाद का स्वाँग छोड़कर अपने खाने वाले दाँतों के साथ हमारे सामने खड़ी होती है। लेनिन ने इस बात को इंगित करते हुए कहा था ‘‘एक भी राज्य ऐसा नहीं है, चाहे वे कितना ही जनवादी क्यों न हो, जिसके संविधान में ऐसे चोर दरवाज़े या शर्त न रखी गईं हों, जिनसे बुर्जुआ वर्ग के लिए इस बात की गारण्टी हो जाए कि यदि ‘सार्वजनिक सुव्यवस्था भंग हो’ और वस्तुतः यदि शोषित वर्ग अपनी दासता की स्थिति को ‘भंग करें’ और दासता के प्रतिकूल आचरण करने की कोशिश करें, तो बुर्जुआ वर्ग मज़दूरों के खिलाफ़ फौजें भेज सकता है, मार्शल लॉ की घोषणा कर सकता है, इत्यादि।‘’ (लेनिन, सर्वहारा क्रान्ति और गद्दार काउत्स्की)।
हमें राज्य के सवाल को समझना होगा। हर बुर्जुआ जनवाद दरअसल बुर्जुआ अधिनायकत्व भी होता है, इस बात को तमाम बुर्जुआ नेता और दार्शनिक छिपाते हैं। बुर्जुआ राज्य बुर्जुआ अधिनायकतत्व को लागू करने वाली मशीनरी होता है। एन.सी.टी.सी., सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम, पोटा, टाडा, यू.ए.पी.ए.- इत्यादि कानून राज्य के नंगे दमनतंत्र के चरित्र को ही दिखलाते हैं। भारतीय संविधान में कितने ही ऐसे चोर दरवाज़े हैं जो जनवाद की कभी भी बखिया उधेड़ सकते हैं।
लेकिन इसका यह अर्थ कभी नहीं निकाला जाना चाहिए कि राज्यसत्ता सर्वशक्तिमान और सर्वत्र अस्तित्वमान है और पूँजीवाद को पलटने और उसे हराने का कोई रास्ता नहीं है। यह सच है कि आज पूँजीवादी सरकारें पूँजीवाद के खि़लाफ़ उठते जनान्दोलनों से घबरा कर अपने दमनतन्त्र को अधिक से अधिक चुस्त-दुरुस्त बनाने में लगी हुई हैं और उन्होंने यह काम काफ़ी हद तक किया भी है। लेकिन यह भी सच है कि यह सारा काम सम्भालने का जिम्मा वेतनभोगी कर्मचारियों के ही हाथ में है और रहेगा! इस पूरे तन्त्र के ऊपर बैठे नीति-निर्धारकों को छोड़ दिया जाय, तो ये लोग किसी विचारधारात्मक या राजनीतिक प्रेरणा से ओत-प्रोत होकर काम नहीं करते। ये लोग महज़ रोज़ी-रोटी कमाते हैं। जबकि इस पूरे पूँजीवादी लूट तन्त्र के खि़लाफ़ जब भी कोई क्रान्तिकारी शक्ति संगठित होगी, तो वह वेतनभोगियों के बल पर नहीं होगी; वह एक बेहतर समाज और दुनिया के लिए लड़ने वाले, विचारधारात्मक-राजनीतिक प्रेरणा से ओत-प्रोत लोगों के बल पर खड़ी होगी! ब्रेष्ट की वह पंक्तियाँ यहाँ इस बात को और भी स्पष्ट कर देती हैं – ‘जनरल तुम्हारा टैंक बहुत मज़बूत है/…मगर इसमें एक कमी है/ इसे इंसान चलाता है/….और वह सोच सकता है।’
दूसरी बात जो ध्यान देने योग्य है, वह यह कि इण्टरनेट और अन्य सूचना माध्यम जहाँ राज्यसत्ता को व्यवस्था-विरोधी शक्तियों पर नज़र रखने का एक उपकरण देते हैं, वहीं ये माध्यम क्रान्तिकारी शक्तियों को भी एक शक्तिशाली दुधारी तलवार देते हैं। निश्चित तौर पर, इस तलवार का अविवेकपूर्ण ढंग से इस्तेमाल आत्मघाती हो सकता है। लेकिन यह भी सच है कि इस दुधारी तलवार को चलाने की सही विधा की समझदारी एक ज़बर्दस्त ताक़त का स्रोत भी बन सकती है। इन माध्यमों के जरिये समाज को बदलने के विज्ञान और तर्क की पहुँच व्यापक बनायी जा सकती है। क्रान्तिकारी विचारों को सीधे लोगों तक पहुँचाने के लिए इन माध्यमों का उपयोग किया जा सकता है और किया भी जा रहा है। ये क्रान्तिकारी विचार कोई कालीन के नीचे डालने और किसी गोपनीय कोड में कहे जाने के लिए नहीं हैं। ये बातें पूरे ज़ोर-शोर के साथ जनता के बीच कहे जाने के लिए हैं। इन्हें कहे जाने पर कोई भी पूँजीवादी जनवाद तब तक रोक नहीं लगा सकता जब तक कि कोई हिटलरी सत्ता न आ जाये! पूँजीवादी जनवाद अपने अन्तरविरोधों और अपने ऐतिहासिक दावों (‘‘आज़ादी, बराबरी और भाईचारा’’) के चलते खुलेआम किसी विचार या सोच पर प्रतिबन्ध नहीं लगा सकता! क्रान्तिकारी शक्तियाँ पूँजीवादी जनवाद को वर्ग संघर्ष को तीव्र बनाने और उसे प्रगतिशील दिशा में विकसित करने के लिए इस्तेमाल करती हैं। इसीलिए लेनिन ने कहा था कि पूँजीवादी जनवाद सर्वहारा वर्ग के लिए सबसे अच्छी युद्धभूमि है (जनवादी क्रान्ति की मंजिल में सामाजिक-जनवाद की दो कार्यनीतियाँ)। इण्टरनेट व अन्य नये सूचना माध्यमों ने इस युद्धभूमि के प्रयोग के लिए सर्वहारा वर्ग को एक नया हथियार दिया है। क्रान्तिकारी शक्तियाँ आज इस हथियार का पूरा इस्तेमाल नहीं कर पा रही हैं। लेकिन यह काम कुशलता के साथ उन्हें सीखना होगा। इसलिए इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की दुनिया भी कोई मृत/निष्क्रिय ज़मीन या औज़ार नहीं है जिसका शासक वर्ग मनचाहे ढंग से इस्तेमाल करेगा या परिवर्तनकामी शक्तियाँ इसी के जरिये क्रान्ति कर देंगी (जैसा कि कुछ साइबर क्रान्तिकारी सोचते हैं!), बल्कि यह वर्ग संघर्ष की एक जीवन्त/सक्रिय ज़मीन होगी जिस पर क्रान्तिकारी ताक़तों को पूँजीपति वर्ग को कदम-दर-कदम मुँहतोड़ जवाब देना होगा, और हमला करने और अपना बचाव करने, दोनों की ही विधियों को सीखना होगा। इण्टरनेट के रूप में शासक वर्गों के समक्ष भी एक चुनौती और संकट है जिसे 11 सितम्बर, 2011 के बाद अमेरिका के नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी के निदेशक माइकल हेडेन अपने बयान में इस तरह से सार-संकलित किया था, ‘‘मानव संचार की विशालता, भिन्नता और तेज़ी हमारा काम मुश्किल बना रही है….हमें हर उस तकनोलॉजी में माहिर होना होगा जो हमारा टारगेट इस्तेमाल कर रहा है, हमें आज के भूमण्डलीकृत टेलीकम्युनिकेशन क्रांति से कदम से कदम मिला कर चलना होगा…..हम लोगों को आज सिगनिट डायरेक्टर की भाषा में ‘शिकारी होना होगा न कि महज़ संग्राहक’ होना होगा…..’’। शासक वर्ग समझ रहा है कि उसने इण्टरनेट के रूप में एक ऐसा शक्तिशाली माध्यम खड़ा कर दिया है जो कि व्यवस्था-विरोधी क्रान्तिकारी ताक़तों के द्वारा भी इस्तेमाल किया जा सकता है। क्रान्तिकारी शक्तियों को भी यह समझना होगा कि अपने आपमें इण्टरनेट न तो वरदान है और न ही अभिशाप! इसका सही इस्तेमाल इसे एक उपयोग हथियार बना सकता है, और इसका मूर्खतापूर्ण अति-उत्साही इस्तेमाल इसे एक आत्मघाती उपकरण बना सकता है।
सूचनाएँ हमारा समय और बेर्टोल्ट ब्रेष्ट
शशि प्रकाश
अलस्सुबह
एक नागरिक के दरवाजे के ऐन बाहर
मरे हुए पक्षी के समान
‘पट्ट’ से गिरती हैं सूचनाएँ।
चीज़ों के बारे में सोचने का काम
वह फिर अगले दिन पर टाल देता है।
सूचनाएँ लगातार
धूल और राख की तरह
आसमान से बरसती हैं
दिलो-दिमाग़ पर
इनकी परत-सी बैठ जाती है
आहट-सी होती है
कि झड़ने और उड़ने लगती हैं।
मनों-टनों सूचनाएँ बरस रही हैं
शहरों पर
पाम्पेई पर विसूवियस की गर्म राख की तरह,
सूचनाएँ सड़कों पर बरस रही हैं
लावे की तरह लपलपाती हुई।
सूचनाएँ कँपाती हैं
जगह-जगह धरती को
आठ-दस रिक्टर स्केल पर।
सूचनाएँ लाखों मेगावाट की बिजली बन
फड़कती हैं।
सूचनाएं फ़ुसफुसाती हैं,
इलेक्ट्रॉन-कणिकाओं सी बमबारी करती है
हमारे मस्तिष्क-कोषों पर।
कास्मिक किरणों की तरह
विकीरित होती हैं सूचनाएँ,
ओज़ोन परत को छेद-छेद जाती हैं।
पड़ोसी धमकाता है-
‘‘सूचनाओं से मार डालूँगा।‘‘
लगने लगता है हमें
कि आने वाली पीढ़ियों को
हमारी जिन्दगी और भावनाओं को जानने के लिए
भारी खुदाई करनी होगी
और सूचनाओं का कूड़ा हटाना होगा।
लगने लगता है हमें
कि सूचनाएँ प्यार, नफ़रत, तर्क, इतिहास और तरक्क़ी का
विकल्प बन रही हैं।
लगने लगता है कि हम हैं
तो महज़ सूचनाओं के लिए।
हम सूचनाओं पर सहज विश्वास करने लगते हैं
हमें निराकार, विराट, ईश्वर-सा
लगने लगता है सूचनाओं का तंत्र
कि ब्रेष्ट मिलते हैं।
अपनी आँखें मिचमिचाते हुए वे मुस्कुराते हैं
और बताते हैं: ‘‘चमत्कारी है सूचना का तंत्र
पर इसमें एक नुक़्स है।
इसे आदमी चलाता है।’’1
कभी भी ठप्प किया जा सकता है
सूचनाओं का उत्पादन-तंत्र
या बदला जा सकता है इनका उत्पादन-विधान।
सूचनाओं के विनिमय मूल्य को समाप्त किया जा सकता है
और उपयोग मूल्य को बहाल किया जा सकता है
वास्तविक, सम्पूर्ण रूप में
इसके बाद।
इण्टरनेट और केबुल संजाल
बन सकते हैं किसी दिन
जिन्दगी, मौत और सूचनाओं के सौदागरों के
जी का जंजाल।
‘’नये ट्रांसमीटरों के ज़रिये
चली आयी पुरानी बेवक़ूफियाँ
बुद्धिमानी चली आयी मुँहज़बानी।’’ 2
ब्रेष्ट हमें बताते हैं
और आँख मिचमिचाते हुए
मुस्कराते हैं।
1- सन्दर्भः ब्रेष्ट की कविता ‘जनरल तुम्हारा टैंक एक मजबूत वाहन है’।
2- ब्रेष्ट की कविता ‘नया जमाना’ की अन्तिम पंक्तियाँ
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2012
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!