Category Archives: शिक्षा स्‍वास्‍थ्य और रोजगार

भाजपा सरकार का नया नारा: “बहुत हुई बेरोज़गारी की मार, तलो पकौड़ा, लगाओ पान!”

इस तमाशे के बादशाह तो भाजपा सरकार के मुखिया हैं जिन्होंने ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्किल इंडिया’, ‘स्टार्ट उप इंडिया’ जैसे जुमलों का खूब बड़ा गुब्बारा फुलाया और उसकी हवा निकल जाने पर मेहनतकश अवाम को पकौड़े तलने और भीख माँगने की हिदायत दे रहें हैं। हाल ही में त्रिपुरा के चुनाव जीतने के बाद वहाँ के मुख्य मंत्री बिप्लब देव भी प्रधान सेवक के पदचिह्नों पर चलते हुए वहाँ के युवाओं को प्रवचन देते हुए कह रहे हैं कि सरकारी नौकरी के पीछे भागने की बजाये अगर युवा पान की दूकान लगाए तो 10 साल में उनके खाते में 5 लाख रुपये जमा हो जाएँगे।

पूँजीवादी समाज में बेरोज़गारी

पूँजीवादी उत्पादन तकनीकों के विकास और मशीनों के व्यापक तौर पर अपनाये जाने से कई श्रम कार्य इतने आसान बन गये कि बहुत-सी औरतें और बच्चे भी भाड़े के मजदूरों की जमात में शामिल हो सकते थे। पूँजीपति उन्हें काम पर रखना पसन्द करते थे क्योंकि उनसे कम मज़दूरी पर काम कराया जा सकता था। इसके साथ ही पूँजीवादी उत्पादन के फैलाव के साथ बड़ी संख्या में छोटे माल उत्पादक और छोटे पूँजीपति दिवालिया हो जाते हैं और अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं। छोटे व्यापारी, छोटे दुकानदार आदि को पूँजी लगातार उजाड़ती रहती है।

पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों द्वारा फैलाये जाने वाले बेरोज़गारी के “कारणों” की पड़ताल

बेरोज़गारी के संकट का ज़िम्मेदार जनता को ही ठहराने के लिए सबसे ज़्यादा उचारा जाने वाला जुमला होता है, “जनसँख्या बहुत बढ़ गयी है, संसाधन हैं नहीं! अब ‘बेचारी’ सरकार किस-किसको रोज़गार दे!” किन्तु अफ़सोसजनक बात यह है कि इस जुमले में कोई दम नहीं है और यह झूठ के सिवाय कुछ भी नहीं है। कोई भी वस्तु जब कम या ज़्यादा होती है तो वह अन्य वस्तु के साथ तुलना में कम या ज़्यादा होती है। निरपेक्ष में कुछ भी छोटा या बड़ा नहीं होता। इसी तरह जनसँख्या को भी संसाधनों की तुलना में ही देखा जाना चाहिए। उत्पादन का स्वरूप, उपजाऊ ज़मीन, समुद्र, नदियाँ, खनिज पदार्थ इत्यादि की तुलना में ही जनसँख्या को रखा जा सकता है।

गोरखपुर हत्याकाण्ड से आश्वित्ज़* की गंध आती है

बयान-बाजि़यों, कभी इस पर कभी उस पर जिम्मेदारी मढ़ने के बाद भी निहायत बेशर्म फासीवादी योगी आदित्यनाथ यहाँ भी अपने हिन्दुतत्ववादी एजेन्डे को लागू करने से बाज़ नहीं आया। बली के बकरे की तरह डॉ. खलील को ढूँढ़ निकाला गया। वह डॉक्टर जो अभी अस्पताल का स्थाई डॉक्टर भी नहीं है, जिसने अपने पैसे और प्रयास से बच्चों की जान बचाने की पूरी कोशिश की उसे ऑक्सीजन सिलेन्डर का चोर और भ्रष्ट करार कर दिया गया और पूरे मामले का ठीकरा इसके सिर फोड़ दिया गया। सात लोगों के खि़लाफ गिरफ्तारी का वारन्ट निकला, लेकिन डॉ. खलील की गिरफ्तारी को सबसे ज्यादा सनसनीखेज बनाया गया। मुसलमानों को ‘अन्य’ बना कर जिस कदर समाज में उनके खिलाफ जहर और शक पैदा किया जाता है यह उसी का एक और उदाहरण है।

‘भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी कानून’ बनवाने के लिए जन-संगठनों ने फूँका संघर्ष का बिगुल

हालिया अख़बारी ख़बरों के हवाले से यह बात सामने आयी है कि केन्द्र में बैठी भाजपा नीत राजग सरकार पाँच साल से खाली पड़े पदों को समाप्त करने की ठान चुकी है। कहाँ तो चुनाव से पहले करोड़ों रोज़गार देने के ढोल बजाये जा रहे थे कहाँ अब खाली पदों पर काबिल युवाओं को नियुक्त करने की बजाय पदों को ही समाप्त करने के लिए कमर कस ली गयी है। देश के प्रधानमन्त्री से लेकर सरकार के आला मन्त्रीगण बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि ‘शाम तक 200 रुपये के पकोड़े बेचना भी काफ़ी बेहतर रोज़गार है’ और इसके लिए भी सरकार बहादुर अपनी पीठ थपथपा रही है!

सावित्रीबाई फुले की लड़ाई आगे बढ़ाओ, नई शिक्षाबन्दी के विरोध में नि:शुल्क शिक्षा के हक़ के लिए एकजुट हो जाओ!

शिक्षा के क्षेत्र में इतना क्रान्तिकारी काम करने वाली सावित्रीबाई का जन्मदिवस ही असली शिक्षक दिवस है पर ये विडंबना है कि आज एक ऐसे व्यक्ति का जन्मदिवस शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है जिस पर थीसिस चोरी का आरोप है और जो वर्ण व्यवस्था का समर्थक था।

ऐसे पढ़ेगा इण्डिया, ऐसे बढ़ेगा इण्डिया?

भारतीय हुक्मरानों को नये-नये हवाई नारे देने का बहुत शौक चढ़ा हुआ है। ऐसा ही एक नारा है – ‘‘पढ़ेगा इण्डिया, तभी तो बढ़ेगा इण्डिया’’। जरा पूछिए इनसे, तुम्हारे इतने बुरी स्कूली व्यवस्था के रहते कैसे पढ़ेगा इण्डिया, कैसे बढ़ेगा इंडिया?

आरक्षण की लड़ाई: एक अनार सौ बीमार

सरकारों के द्वारा जब शिक्षा को महँगा किया जाता है व इसे आम जनता की पहुँच से लगातार दूर किया जाता है और जब सार्वजनिक क्षेत्र (‘पब्लिक सेक्टर’) की नौकरियों में कटौती करके हर चीज़ का ठेकाकरण किया जाता है तब जातीय ठेकेदार चूं तक नहीं करते! ‘रोज़गार ही नहीं होंगे तो आरक्षण मिल भी जायेगा तो होगा क्या?’ यह छोटी सी और सीधी-सच्ची बात भूल से भी यदि इनके मुँह से निकल गयी तो इन सभी की प्रासंगिकता ही ख़त्म हो जायेगी इस बात को ये घाघ भलीभाँति जानते हैं।

विश्वस्तरीय शिक्षा के नाम पर देशी-विदेशी पूँजीपति होंगे मालामाल और जनता पामाल

उच्चतर शिक्षा को अमेरिकी शिक्षा व्यवस्था की तर्ज़ पर ढाला जा रहा है ताकि विदेशी निवेशकों को आकर्षित किया जा सके। साफ है कि एक व्यापक आबादी की पहुँच से उच्च शिक्षा को दूर किया जा रहा है। गरीब और निम्नमध्यवर्गीय आबादी के लिए लोन की स्कीम का राग सरकार अलाप रही है। क्या हुआ अगर तुम्हारे पास फीस देने के लिए पैसा नहीं है तो हम तुम्हें ज़ीरो प्रतिशत ब्याज़ दर पर लोन देंगे, नौकरी के बाद चुका देना! यह बस कहने के लिए होता है कि ब्याज दर ज़ीरो है, असलियत में जब तक आपके पास अचल सम्पत्ति गारण्टी नहीं होगी लोन नहीं मिलेगा। अब वित्तीय पूँजीपति को अपना भी मुनाफ़ा देखना होता है। दूसरे, जब आज 2 प्रतिशत की दर से नौकरियाँ कम हो रही हैं तो नौकरी की कोई गारण्टी नहीं। फिर लोन चुकाने के लिए स्वाभाविक तौर पर दूसरे रास्ते तलाशे जायेंगे जो सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर पतनशीलता का कारण बनेंगे। एक सर्वे के अनुसार अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों में औसतन ग्रैजुएट जब नौकरी की तलाश में निकलते हैं तो उनके ऊपर दस हजार पाउण्ड से भी ज़्यादा का कर्ज़ होता है जो पढ़ाई के दौरान लोन के रूप में लिया गया होता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, इस कर्ज़ को चुकाने के लिए छात्र शुक्राणु और अंडज तक बेचते हैं। अमेरिका के क्लिनिकों में इसकी विशेष व्यवस्था होती है ताकि सन्तानहीन दम्पत्तियों को इसका लाभ मिल सके। इसके लिए प्रदाताओं (डोनर) को 2,400 से 10,300 डॉलर तक दिये जाते हैं।

भारत के शोध संस्थानों का संकट

दर्शन, इतिहास व सामाजिक विज्ञान से कटे वैज्ञानिक ही इस संस्थान की बुनियाद होते हैं। एक संस्थान व दूसरे संस्थान के बीच बेहद सीमित बौद्धिक व्यवहार होता है व नीतियों का निर्धारण करने में किसी शोधार्थी की कोई भूमिका नहीं होती है। निर्धारक तत्व वित्त होता है जो कि शोध को तय करता है। यह सिर्फ भारत की नहीं बल्कि पूरी दुनिया के शोध संस्थानों की कहानी है, हालाँकि भारत की परिस्थिति में इस वैश्विक परिघटना में एक विशेषता भी है। भारत जैसे उत्तर औपनिवेशिक देश में जहाँ आजा़दी किसी क्रान्तिकारी आन्दोलन की गर्मी और उथल-पुथल के ज़रिये नहीं बल्कि औपनिवेशिक पूँजीपति वर्ग और भारतीय पूँजीपति वर्ग के बीच समझौता-दबाव-समझौता की प्रक्रिया से आयी, वहाँ भारतीय मानस की चेतना बेहद पिछड़ी रही जिसका प्रतिबिम्ब यहाँ की बौनी शोध संरचना में दिखता है। आज़ादी के बाद भारतीय पूँजीवाद साम्राज्यवाद के साथ भी चालाकी से समझौते-दबाव-समझौते की नीति पर काम करता रहा और अपनी स्वतंत्रता कायम रखते हुए इसने पब्लिक सेक्टर उद्योग व संरचनात्मक ढाँचा खड़ा किया। अगर उद्योग-निर्देशित विज्ञान व शोध की ही बात करें तो भी न तो भारत का पूँजीवाद अमरीकी या अन्य विकसित पूँजीवादी देशों की बराबरी कर सकता था और न ही इसका विज्ञान ही उतना विकसित हो सकता था। भारत के पूँजीपतियों ने इसका प्रयास ही नहीं किया है।