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आरक्षण की लड़ाई: एक अनार सौ बीमार

सरकारों के द्वारा जब शिक्षा को महँगा किया जाता है व इसे आम जनता की पहुँच से लगातार दूर किया जाता है और जब सार्वजनिक क्षेत्र (‘पब्लिक सेक्टर’) की नौकरियों में कटौती करके हर चीज़ का ठेकाकरण किया जाता है तब जातीय ठेकेदार चूं तक नहीं करते! ‘रोज़गार ही नहीं होंगे तो आरक्षण मिल भी जायेगा तो होगा क्या?’ यह छोटी सी और सीधी-सच्ची बात भूल से भी यदि इनके मुँह से निकल गयी तो इन सभी की प्रासंगिकता ही ख़त्म हो जायेगी इस बात को ये घाघ भलीभाँति जानते हैं।

शिक्षा में आरक्षण जनता को बाँटने की साजिश है! एकसमान व निःशुल्क स्कूल व्यवस्था का नारा आज की ज़रूरत है!

सभी परिवर्तकामी नौजवानों को अपने संगठनों के ज़रिये यह माँग उठानी चाहिए कि भारत के सभी बच्चों को, चाहे वे किसी भी वर्ग, क्षेत्र, जाति या धर्म के हों, एकसमान स्कूल प्रणाली मिलनी चाहिए। यही आज के दौर में एक सही इंक़लाबी माँग हो सकती है। अन्य सभी माँगें, मिसाल के तौर पर, निजी स्कूलों में आरक्षण आदि की माँग से फौरी तौर पर भी कोई लाभ नहीं मिलता। उल्टे नुकसान ही होता है। इसलिए शासक वर्ग के इस ख़तरनाक ट्रैप में फँसने की बजाये हमें एकसमान स्कूल व्यवस्था की माँग करनी चाहिए। उच्च शिक्षा को बहुसंख्यक आबादी से दूर करते हुए तमाम सरकारें यही कारण बताती हैं कि वे इससे बचने वाले धन को प्राथमिक शिक्षा में निवेश करेंगी। यदि वाकई ऐसा है तो सरकार से यह माँग की जानी चाहिए कि वह सभी बच्चों को निशुल्क, स्तरीय और एकसमान स्कूल शिक्षा दे और सभी क्षेत्रों के बच्चों को उनकी भाषा में पढ़ने का अधिकार मुहैया कराये।

आरक्षण की फसल

थोड़ा तथ्यों व आँकड़ों पर ध्यान देकर विवेक का प्रयोग करने की ज़रूरत है। बात बिलकुल साफ हो जायेगी कि आरक्षण महज़ एक नौटंकी किसलिए है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कैसे पब्लिक सेक्टर को ख़त्म करके हर चीज़ का बाज़ारीकरण किया जा रहा है। निजी मालिकाने में भी लगभग 90 फीसदी काम दिहाड़ी, ठेका, पीसरेट आदि पर कराया जाता है, 7 से 9 फीसदी विकास दर वाले देश में लगभग 28 करोड़ लोग बेरोज़गार हैं, तो आखि़र आरक्षण के मायने क्या है? दूसरा जिन जातियों के लिए आरक्षण की माँग हो रही है, (चाहे वे जाट, गुर्जर, यादव, मीणा कोई भी हों) उनमें भी ध्रुवीयकरण जारी है, पूँजी की नैसर्गिक गति भारी आबादी को उजाड़कर सर्वहारा, अर्धसर्वहारा की कतार में खड़ा कर रही है। तो इसमें भी बड़े किसान, कुलक ही पूँजीवादी भूस्वामी बनकर चाँदी काट रहे हैं, और दूसरे लोगों के लिए आरक्षण का झुनझुना थमाने पर आमादा हैं।