Category Archives: शिक्षा स्‍वास्‍थ्य और रोजगार

बाज़ार के हवाले चिकित्सा व्यवस्था में दम तोड़ते आम मेहनतकश

विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार 70 फीसदी भारतीय अपनी आय का 70 फीसदी हिस्सा दवाओं पर ख़र्च करते है। भारत विश्व का दवा घर है। वर्ष 2008 में यहाँ का घरेलू दवा बाज़ार 55,000 करोड़ रुपये से अधिक का था। स्वास्थ्य तन्त्र में फैला भ्रष्टाचार आज सत्ता और कम्पनियों की गठजोड़ से ऊपर से नीचे तक फैला हुआ है। कुछ वर्ष पूर्व केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री ने सार्वजनिक क्षेत्र की टीका उत्पादक कम्पनियों को उत्पादन बन्द करने का आदेश दिया ताकि निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ लोगों को लूट सकें। मेडिकल काउंसिल का सदस्य डॉ. केतन देसाई मेडिकल संस्थानों को स्वीकृति देने हेतु रिश्वत लेते हुए गिरफ़्तार किया गया। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ मिशन (एन.एच.आर.एम.) राजनेताओं, डाक्टरों एवं प्रशासकों के लिए आज सोने की खान साबित हुआ है। मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश में घोटालों के कितने ही मामले सामने आये है।

स्कूल बचाओ अभियान का ये पैगामः सबको शिक्षा एक समान!

अमीर और ग़रीब में बँटे हमारे समाज में स्कूल भी दोहरे स्तरों में बँटे हुए हैं। एक तरफ हैं दिल्ली पब्लिक स्कूल, केन्द्रीय विद्यालय सरीखे स्कूल तो दूसरी ओर नगर निगम और सर्वोदय विद्यालय सरीखे; एक स्कूल घुड़सवारी, स्वीमिंग पुल, हवाई जहाज प्रशिक्षण, विदेशी शिक्षक जैसी सुविधाएँ देता है तो दूसरे में पीने का पानी नहीं है, शौचालय नहीं है, शिक्षक नहीं हैं; एक स्कूल में व्यापारियों, पूँजीपतियों, बडे़ अफ़सरान के बच्चे पढ़ते हैं तो दूसरे में मज़दूरों, रिक्शा चालकों, पान की दुकान वालों के बच्चे पढ़ते हैं। यह खुद सभी नागरिकों को समान मानने वाले भारत के संविधान का उल्लंघन है, वैसे इस संविधान के बारे में जितना कम कहा जाये बेहतर है। भारतीय संविधान के दुनिया में सबसे भारी-भरकम संविधान होने का कारण यही है कि इसमें हरेक अधिकार साथ उस अधिकार को हज़म कर जाने का प्रावधान भी जोड़ा गया है!

किसे चाहिए अमेरिकी शैली की स्वास्थ्य सेवा?

सरकार जिस तरह से जनता की स्वास्थ्य सेवा से हाथ पीछे खींच रही है, उससे सरकार का मानवद्रोही चरित्र साफ़ सामने आता है। स्वास्थ्य का अधिकार जनता का बुनियादी अधिकार है। भारत में स्वास्थ्य का स्तर सर्वविदित है। जिस देश में पहले से ही 55 प्रतिशत महिलाएँ रक्त की कमी का शिकार हों, जहाँ 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हों, वहाँ स्वास्थ्य सेवा को बाज़ार की ताकतों के हवाले करने के कितने भयावह परिणाम हो सकते हैं, इसे आसानी से समझा जा सकता है। सरकार के इस प्रस्तावित कदम से भी यह साफ़ हो जाता है कि ऐसी व्यवस्था के भीतर जहाँ हर वस्तु माल होती है, वहाँ जनता की स्वास्थ्य सेवा भी बिकाऊ माल ही है। जिस व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु मुनाफा हो उससे आप और कोई उम्मीद भी नहीं रख सकते हैं।

स्कूल बचाओ अभियान मुस्तफाबाद में ‘नागरिक निगरानी समिति’ का गठन

स्कूल बचाओ अभियान की संयोजक शिवानी ने बताया कि जनदबाव के चलते ही यह सुनिश्चित हो पाया है कि हमारे बच्चे किस स्कूल में स्थानान्तरित होंगे। यह हमारे संघर्ष की आंशिक जीत थी। हम लोगों द्वारा बनाई गयी ‘नागरिक निगरानी समिति’ को स्कूल की जाँच करने का अधिकार मिलना हमारे संघर्ष की एक बड़ी जीत है। समिति के सदस्य योगेश ने बताया कि ‘स्कूल बचाओ अभियान’ दिल्ली के अन्य इलाकों में भी इस तरह की निगरानी समितियों का गठन करेगा।

स्वास्थ्य तन्त्र में अमानवीयता पूँजीवाद का आम नियम है

मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा मुनाफे की ख़ातिर इंसान के गोश्त को भी बेच खाने की प्रवृत्ति उसकी कोई विसंगति या विचलन नहीं है, बल्कि उसकी स्वाभाविक गति है। जो नौजवान अभी भी दूसरों के दुख-दर्द को महसूस करना जानते हैं, और नवजात शिशुओं की मौतों पर जिनका दिल गुस्से और नफरत से भर उठता है, उन्हें यह समझना होगा कि यह कुछ लोगों की नाजायज़ हरक़त या लालच का फल नहीं है। इस त्रासद स्थिति की जड़ में मुनाफा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था है। जब तक इसे तबाह नहीं किया जाता, तब तक यह हमारे जीवन को तबाह करती रहेगी।

शिक्षा में आरक्षण जनता को बाँटने की साजिश है! एकसमान व निःशुल्क स्कूल व्यवस्था का नारा आज की ज़रूरत है!

सभी परिवर्तकामी नौजवानों को अपने संगठनों के ज़रिये यह माँग उठानी चाहिए कि भारत के सभी बच्चों को, चाहे वे किसी भी वर्ग, क्षेत्र, जाति या धर्म के हों, एकसमान स्कूल प्रणाली मिलनी चाहिए। यही आज के दौर में एक सही इंक़लाबी माँग हो सकती है। अन्य सभी माँगें, मिसाल के तौर पर, निजी स्कूलों में आरक्षण आदि की माँग से फौरी तौर पर भी कोई लाभ नहीं मिलता। उल्टे नुकसान ही होता है। इसलिए शासक वर्ग के इस ख़तरनाक ट्रैप में फँसने की बजाये हमें एकसमान स्कूल व्यवस्था की माँग करनी चाहिए। उच्च शिक्षा को बहुसंख्यक आबादी से दूर करते हुए तमाम सरकारें यही कारण बताती हैं कि वे इससे बचने वाले धन को प्राथमिक शिक्षा में निवेश करेंगी। यदि वाकई ऐसा है तो सरकार से यह माँग की जानी चाहिए कि वह सभी बच्चों को निशुल्क, स्तरीय और एकसमान स्कूल शिक्षा दे और सभी क्षेत्रों के बच्चों को उनकी भाषा में पढ़ने का अधिकार मुहैया कराये।

दिल्ली में ‘स्कूल बचाओ अभियान’ की शुरुआत

स्कूली शिक्षा बच्चों के जीवन की बुनियाद होती है जहाँ वह सामाजिक होना, इतिहास, कला आदि से परिचित होता है। अमीरी और ग़रीबी में बँटे हमारे समाज का यह फ़र्क देश के स्कूलों में भी नज़र आता है। जहाँ एक तरफ़ पैसों के दम पर चलने वाले प्राईवेट स्कूलों में अमीरों के बच्चों के लिए ‘फाइव-स्टार होटल’-मार्का सुख-सुविधाएँ उपलब्ध हैं, वही दूसरी ओर सरकार द्वारा चलाये जा रहे ज़्यादातर स्कूलों की स्थिति ख़स्ताहाल है। केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय और सैनिक स्कूल जैसे कुलीन सरकारी स्कूलों को छोड़ दिया जाये, तो सरकारी स्कूल सरकार द्वारा ही तय विद्यालय मानकों का पालन नहीं करते। ज़्यादातर सरकारी स्कूलों में साफ़ पीने के पानी की व्यवस्था तक नहीं है, सभी बच्चों के बैठने के लिए डेस्क नहीं हैं, कक्षाओं में पंखों तक की व्यवस्था नहीं है; वहीं अमीरज़ादों के स्कूलों में पीने के पानी के लिए बड़े-बड़े ‘आर.ओ. सिस्टम’, खेलने के लिए बड़े मैदान, कम्प्यूटर रूम, लाइब्रेरी और यहाँ तक कि कई स्कूलों में स्विमिंग पूल व घुड़सवारी की भी व्यवस्था है!

दवा कम्पनियों के मुनाफे के लिए इंसानी जि़न्दगी से घिनौने खिलवाड़ का मसौदा

किसी भी देश के नागरिकों तक जीवन-रक्षक व अत्यावश्यक दवाओं की सहज व सस्ती उपलब्धता को सुनिश्चित करना हरेक राज्य के सबसे महत्वपूर्ण दायित्वों में से एक है। एक स्वस्थ इंसानी, जिन्दगी के लिए अनिवार्य होने के कारण यह देश की जनता का एक प्रमुख जनवादी अधिकार व मानवाधिकार भी है। लेकिन जो राज्य लोगों की सबसे बुनियादी जरूरतों – भरपेट भोजन, कपडे़ और सिर के ऊपर छत – को भी पूरा न करता हो उससे बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के सस्ती दरों पर उपलब्ध कराए जाने का भ्रम पालना ही एक नादानी भरी सोच है। ख़ासकर नवउदारवाद और भूमण्डलीकरण के इस दौर में जबकि देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी की पूँजी के आधुनिक गुलामों और मुनाफ़ा निचोड़ने के लिए इस्तेमाल होने वाले यंत्रों से अधिक कोई कीमत न हो तो केवल पूँजीवादी राज्य से केवल यहीं उम्मीद की जा सकती है कि वह एक एक करके स्वास्थ्य सुविधाओं, दवा-इलाज आदि को मुनाफ़े की हवस में अंधे पूँजीपतियों और उनके जंगल (बाजार) को सौंपता जाए।

‘पंसारी की दुकान’ से ‘शॉपिंग मॉल’ बनने की ओर अग्रसर यह विश्वविद्यालय

वैसे यह फ़ीस वृद्धि कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है। पिछले दो दशकों से जारी और भविष्य के लिए प्रस्तावित शिक्षा नीति का मूलमन्‍त्र ही है कि सरकार को उच्च शिक्षा की जि़म्मेदारी से पूरी तरह मुक्त करते हुए उसे स्ववित्तपोषित बनाया जाये। ताज़ा आँकड़ों के अनुसार आज केन्द्रीय सरकार सकल घरेलू अत्पाद (जीडीपी) का 1 फ़ीसदी से कम उच्च शिक्षा पर ख़र्च करता है और यह भविष्य में बढ़ेगा, इसकी उम्मीद कम ही है। मानव संसाधन मन्‍त्रालय के हालिया बयानों में यह बात प्रमुखता से आयी है, हर तीन साल बाद विश्वविद्यालय की फ़ीसों में बढ़ोत्तरी की जाये ताकि राज्य इस जि़म्मेदारी से मुक्त हो सकते। बिरला-अम्बानी-रिपोई से लेकर राष्ट्रीय ज्ञान आयोग और यशपाल समिति की सिफ़ारिशें भी इसी आशय की हैं।

आरक्षण की फसल

थोड़ा तथ्यों व आँकड़ों पर ध्यान देकर विवेक का प्रयोग करने की ज़रूरत है। बात बिलकुल साफ हो जायेगी कि आरक्षण महज़ एक नौटंकी किसलिए है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कैसे पब्लिक सेक्टर को ख़त्म करके हर चीज़ का बाज़ारीकरण किया जा रहा है। निजी मालिकाने में भी लगभग 90 फीसदी काम दिहाड़ी, ठेका, पीसरेट आदि पर कराया जाता है, 7 से 9 फीसदी विकास दर वाले देश में लगभग 28 करोड़ लोग बेरोज़गार हैं, तो आखि़र आरक्षण के मायने क्या है? दूसरा जिन जातियों के लिए आरक्षण की माँग हो रही है, (चाहे वे जाट, गुर्जर, यादव, मीणा कोई भी हों) उनमें भी ध्रुवीयकरण जारी है, पूँजी की नैसर्गिक गति भारी आबादी को उजाड़कर सर्वहारा, अर्धसर्वहारा की कतार में खड़ा कर रही है। तो इसमें भी बड़े किसान, कुलक ही पूँजीवादी भूस्वामी बनकर चाँदी काट रहे हैं, और दूसरे लोगों के लिए आरक्षण का झुनझुना थमाने पर आमादा हैं।