Category Archives: शिक्षा स्‍वास्‍थ्य और रोजगार

‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना’ भी चढ़ी भ्रष्टाचार की भेंट

इस योजना में भ्रष्टाचार होने का आधार तो पहले से ही तैयार था। बी.पी.एल. कार्डधारकों के सर्वेक्षण में पाया गया है कि केवल 30 प्रतिशत ही वास्तविक लाभार्थी हैं। और जब बी.पी.एल. कार्डधारकों के सत्यापन की बात आती है तो सरकारी तंत्र को नींद आने लगती है। हम यहाँ पर ग़रीबी रेखा के पैमाने की बात ही नहीं कर रहे हैं जो कि हास्यास्पद है। ग़रीबों का मज़ाक बनाया गया है।

साम्राज्यवाद के ‘चौधरी’ अमेरिका के घर में बेरोज़गारी का साम्राज्य

इन तथ्यों और आँकड़ों की रोशनी मे साफ़ है कि विश्व को लोकतन्त्र व शान्ति का पाठ पढ़ने वाला अमेरिका खुद अपनी जनता को बेरोज़गारी, ग़रीबी, भूखमरी, अपराध से निजात नहीं दिला पाया। दूसरी तरफ़ शान्तिदूत ओबामा की असलियत ये है कि जिस हफ़्ते ओबामा को नोबल शान्ति पुरस्कार दिया गया, उसी हफ़्ते अमेरिकी सीनेट ने अपने इतिहास में सबसे बड़ा सैन्य बजट पारित किया 626 अरब डॉलर। और बुशकालीन युद्धनीति में कोई फ़ेरबदल नहीं किया गया और इस कारण आज भी अफ़गान-इराक युद्ध में अमेरिकी सेना वहाँ की निर्दोष जनता को ‘शान्ति का अमेरिकी पाठ’ पढ़ा रही है इन हालतों से साफ़ है कि पूँजीवादी मीडिया द्वारा जिस अमेरिका समाज की चकाचौंध दिखाई जाती है उससे अलग एक और अमेरिकी समाज है जो पूँजीवाद की लाइलाज बीमारी बेरोज़गारी, ग़रीबी आदि समस्या से संकटग्रस्त है।

राष्ट्रीय शहरी रोज़गार गारण्टी अभियान

नौजवान भारत सभा व दिशा छात्र संगठन विगत छह माह से राष्ट्रीय शहरी रोज़गार गारण्टी अभियान चला रहे हैं। इस अभियान के तहत उत्तर प्रदेश के लखनऊ, गोरखपुर, नोएडा, ग़ाज़ियाबाद आदि क्षेत्रों में, पंजाब के लुधियाना और चण्डीगढ़, बंगाल के कोलकाता, महाराष्ट्र के मुम्बई और दिल्ली में जगह–जगह अभियान टोली नुक्कड़ सभाओं, घर–घर अभियान, सांस्कृतिक कार्यक्रम और साइकिल यात्राओं द्वारा रोज़गार के अधिकार को शहरी बेरोज़गारों और ग़रीबों के बुनियादी हक़ के तौर पर स्थापित करने की माँग को प्रचारित कर रही है। इस अभियान के तहत दिल्ली के करावल नगर, मुस्तफाबाद बाद आदि इलाकों में नुक्कड़ सभाओं, क्रान्तिकारी गीतों व सांस्कृतिक कार्यक्रमों, पोस्टरों आदि के जरिये रोज़गार गारण्टी के सन्देश को हर शहरी गरीब और बेरोज़गार तक पहुँचाया जा रहा है।

दिल्ली विश्वविद्यालय में सेमेस्टर प्रणाली लागू

सेमेस्टर प्रणाली को लागू करने के पीछे की असली मंशा क्या है? बात एकदम साफ़ है, यह एक और क़दम है पढ़ाई और पाठ्क्रम के नाम पर छात्रों को यथास्थितिवादी बनाने का, उन्हें किताबों की चौहद्दी में क़ैद करके देश, दुनिया, समाज के बारे में सोचने से रोकने का। जब विद्यार्थी पूरा साल अंकों, ट्युटोरियल, असाइनमेन्ट और परीक्षाओं के चक्कर में ही रहेंगे, तो वाक़ई में किसी और चीज के बारे में सोच कैसे पायेंगे?

मन्दी का मार से छिनते रोज़गार

हाल ही में अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) की रिपोर्ट सामने आई जिसमें बताया गया है कि मन्दी के कारण इस वर्ष दुनिया भर में 5 करोड़ लोगों को बेरोज़गारी की मार झेलनी पड़ेगी। करीब 1 अरब 40 करोड़ लोग बेहद ग़रीबी में गुजर–बसर करने को मजबूर हो जायेंगे। मूडीस कैपिटल ग्रुप के प्रमुख अर्थशास्त्री जॉन लांस्की का कहना है कि वर्ष 2009 में अमेरिका में करीब 20 लाख 10 हजार नौकरियों में कटौती की जायेगी। कुछ कम्पनियों द्वारा छँटनी की प्रक्रिया पर अगर नजर डाली जाये तो नौकरियों के कम होते जाने की रफ्तार का अनुमान बड़े आराम से लगाया जा सकता है।

प्रधानमंत्री का प्राथमिक शिक्षा पर स्यापा

इसी से जुड़ा प्रश्न है कि बच्चे स्कूल क्यों छोड़ देते हैं ? असल में सामाजिक–आर्थिक व्यवस्था उन्हें स्कूल से बाहर छोड़ आती है । ऐसा नहीं है कि स्कूल छोड़ने वाले बच्चे अपने जीवन में शिक्षा के महत्व को समझते ही नहीं या उनके मां–बाप को शिक्षा से कोई जन्मजात बैर हो । ऐसे ख्याल कई बार खाते–पीते मध्यवर्गीय को खासा मनोरंजन और संतुष्टि देते हैं कि ये लोग तो पढ़ना और आगे बढ़ना ही नहीं चाहते । यह बात भुला दी जाती है कि इन बच्चों और उनके परिवारों के लिए ये व्यवस्था दो जून खाने और रोज कमाने के बीच ज्यादा फासला नहीं छोड़ती । अध्ययनों में भी सामने आया है कि वंचित तबकों के ज्यादातर बच्चे ग्यारह साल की उम्र तक स्कूल से बाहर चले जाते है यह उम्र का वह मोड़ होता है, जहां से एक रास्ता स्कूल की तरफ आगे जाता है और दूसरा परिवार का पेट भरने में हाथ बंटाने की तरफ । और ऐसे में ये बच्चे अगर अपना नाम लिखना भी सीख लेते है तो सरकारी आंकड़ों के हिसाब से ये साक्षर मान लिये जाते हैं ।

मीडिया ने फ़ूलाया नौकरियां बढ़ने का गुब्बारा। नौजवानों के साथ एक मज़ाक!

पिछले दिनों दो प्रमुख बाज़ारू मीडिया संस्थानों-इंडिया टुडे और टाइम्स ऑफ़ इंडिया, ने देश भर में नौकरियों की भरमार का जो हो-हल्ला मचाया, उसकी असलियत जानने के लिए कुछ और पढ़ने या कहने की जरूरत नहीं है, बस खुली आँखों से आस-पड़ोस में निगाह डालिये; आपको कई ऐसे नौजवान दिखेंगे जो किसी तरह थोड़ी-बहुत शिक्षा पाकर या महँगी होती शिक्षा के कारण अशिक्षित ही सड़कों पर चप्पल फ़टकारते हुए नौकरी के लिए घूम रहे है या कहीं मज़दूरी करके इतना ही कमा पाते है कि बस दो वक्त का खाना खा सके। शायद आप स्वयं उनमे से एक हों और नंगी आँखों से दिखती इस सच्चाई को देखकर कोई भी समझदार और संवेदनशील आदमी मीडिया द्वारा फ़ैलाई गई इस धुन्ध की असलियत को समझ सकता है।

राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना – एक विशालकाय सरकारी धोखे का सच!

कुल मिलाकर यही है वह रोज़गार गारण्टी योजना जिसे ‘ऐतिहासिक’ बताया जा रहा था और जिसके लिए अभी भी इतना शोर मचाया जा रहा है, साल भर में महज़ 100 दिन का रोज़गार वह भी मात्र 50 रुपए की मज़दूरी पर! लेकिन साल के बाकी 265 दिन वह सौ दिन का (कहना चाहिए) ठेका मज़दूर और उसका परिवार क्या करेगा, क्या ख़ाकर ज़िन्दा रहेगा? ख़ैर, एक तरफ़ जहाँ सरकार इस पहलू पर आश्चर्यचकित ढंग से चुप्पी साधे हुए है, वहीं दूसरी ओर इस योजना के हिमायती यह कहते हुए घूम रहे हैं कि चलो कुछ लोगों को कुछ दिन के लिए ही सही कुछ तो मिल ही रहा है। लेकिन मनमोहन सिंह जी आपका यह “कुछ-कुछ” का सिद्धान्‍त तो वाकई में कुछ भी नहीं कर पा रहा है!

सूचना प्रौद्योगिकी सेक्टर में रोज़गार के अवसर: किसके लिए?

इस व्यवस्था का मकसद सबको रोज़गार देना है ही नहीं। इसलिए शिक्षा को लगातार महँगा किया जा रहा है ताकि एक व्यापक हिस्से को पहले ही कॉलेजों में आने से रोका जाए। यूँ तो अर्थव्यवस्था के बढ़ते वृद्धि दर का भोंपू लगातार बजाया जा रहा है पर अब तो सरकार भी बड़ी बेशर्मी से यह कहती है कि जो विकास हो रहा है वह ‘‘रोज़गारविहीन विकास’’ है। अब यह सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है कि वह सबको रोज़गार मुहैया कराये। इसलिए जल्द से जल्द इस इस बात को समझने की ज़रूरत है कि उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिला हो पाने के बावजूद आम घरों के लड़के-लड़कियों को रोज़गार मिलने की गारण्टी नहीं है। क्योंकि ये रोज़गार के अवसर उस ‘‘कुलीन’’ मध्यमवर्ग के लिए है जिनके पास पैसे की कोई कमी नहीं है। वैसे भी पूँजीवादी व्यवस्था में तो हर चीज़ माल की तरह बेची जाती है, इसलिए शिक्षा भी माल का रूप अपना लेती है-यानी जिसकी औकात हो, वो आकर खरीदे उसे! और जो खरीद नहीं सकता वह ज़िन्दगी भर सड़कों पर चप्पलें फ़टकारता फ़िरे! इसलिए साधारण परिवेश से आए छात्र जो सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपना सुरक्षित भविष्य तलाश रहे हैं, उनके लिए ज़रूरी है कि इस क्षे़त्र में बढ़ते रोज़गारों का जो धूम्रावरण खड़ा किया गया है, उसे हटाकर सच्चाई पहचानने की कोशिश करे।

देशी-विदेशी पूँजी की सेवा में मैकाले के मानसपुत्रों की कवायद

किसी स्वतन्त्र देश के लिए इससे बड़ी त्रासद विडम्बना क्या हो सकती है कि साठ वर्षों के बाद भी उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में एक औपनिवेशिक भाषा मजबूरी बनी हुई है। 1948 में डा. राधाकृष्णन ने उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी को एक तात्कालिक विवशता बताया था और इसे जल्द से जल्द दूर कर लेने की बात कही थी। लेकिन 60 वर्षों से बदस्तूर चली आ रही इस विवशता को अब अपरिहार्य मानते हुए ज्ञान आयोग ने उसे औपचारिक रूप प्रदान कर दिया है। आयोग ने अब उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी को विवशता नहीं आवश्यकता मानते हुए उसे प्राथमिक स्तर से ही अनिवार्य बना देने की सिफ़ारिश की है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में ज्ञान आयोग का यह कदम एक किस्म से सांस्कृतिक उपनिवेशन की स्थिति को औपचारिक रूप प्रदान करना है।