ज़रूरत है ऐसे बहादुर, विचारसम्पन्न नौजवानों की, जो इस काम को अंजाम देने के लिए आगे आयें। यह तो सभी महसूस करते हैं कि उनके माँ-बाप को उनकी ज़रूरत है। जो लोग यह महसूस करते हैं कि समाज को उनकी ज़रूरत है, वे ही इतिहास बदलने के औज़ार गढ़ते हैं और परिवर्तनकामी जनता के हिरावल बनते हैं। आज एक बार फ़िर सब कुछ नये सिरे से शुरू करना है और इसके लिए कोई मसीहा धरती पर नहीं आयेगा। बदलाव की तैयारी आम जनता के कुछ बहादुर युवा सपूत ही शुरू करेंगे। ऐसे ही लोग सच्चे युवा हैं। उनकी संख्या ही बहुसंख्या है। पर अभी वे निराशा या ‘क्या करें क्या न करें’ की दुविधाग्रस्त मानसिकता से ग्रस्त हैं। सही है, कि हार के समय थोड़ी निराशा आ जाती है। लेकिन कब तक मेरे भाई? अब तो उबरने का समय आ चुका है? इसके संकेतों को पहचानने की कोशिश तो करो! क्या हज़ार ऐसे कारण नहीं है कि हम विद्रोह करें और क्या इनमें से चन्द एक ही काफ़ी नहीं हैं कि हम अपनी तैयारी अभी से शुरू कर दें? क्या एकमात्र रास्ता यही नहीं बचा है कि हम अन्याय के विरुद्ध लड़ें और छिटपुट न लड़ें बल्कि अपनी लड़ाई को सामाजिक क्रान्ति की सीढ़ियाँ बना दें।