Category Archives: शिक्षा स्‍वास्‍थ्य और रोजगार

संगठित क्षेत्र में भी बेरोज़गारी में तीव्र वृद्धि

बेरोज़गारी का कारण उन्नत तकनीक नहीं है बल्कि वह उत्पादन प्रणाली व उत्पादन सम्बन्ध हैं जिनमें इन तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। बेरोज़गारी को तो वैसे ही बेहद कम किया जा सकता है अगर मज़दूरों से जानवरों की तरह काम लेना बन्द कर दिया जाय। मिसाल के तौर पर, भारत में मज़दूरों को आज 10 से 14 घण्टे तक काम करना पड़ता है। उन्नत तकनीकों को बढ़ाकर तो लागत में सापेक्षिक कटौती की ही जाती है लेकिन साथ ही मज़दूरों के श्रम काल को बढ़ाकर उसमें निरपेक्ष रूप से भी कटौती की जाती है। ये दोनों परिघटनाएँ पूँजीवादी व्यवस्था में साथ-साथ घटित होती हैं। जबकि होना तो यह चाहिए कि उन्नत तकनीकों का प्रयोग करके श्रमकाल को घटाया जाय और कामगारों के जीवन में भी मानसिक, सांस्कृतिक उत्पादन और मनोरंजन की गुंजाइश पैदा की जाय। लेकिन मुनाफ़े की हवस में पूँजीपति वर्ग स्वयं एक पशु में तब्दील हो चुका है। मज़दूर उसके लिए महज मशीन का एक विस्तार है, कोई इंसान नहीं, जिसे वह बेतहाशा निचोड़ता है। आज अगर मज़दूरों से 6 घण्टे ही काम लिया जाय तो भी रोज़गार के अवसरों में दो से ढाई गुना की बढ़ोत्तरी हो जाएगी। लेकिन ऐसा इस पूँजीवादी व्यवस्था में असम्भव है। इसलिए बेहतर है विकल्प के बारे में सोचें।

कैम्पसों में सिमटते जनवादी अधिकार

कहीं भी कोई व्याख्यान, नाटक, म्यूजिक कंसर्ट, गोष्ठी आदि का आयोजन करने के लिए इतने चक्कर लगवाये जाते हैं कि आप वहाँ ऐसे कार्यक्रमों के आयोजन का विचार ही त्याग दें। इनकी जगह अण्डरवियर की कम्पनियों की वैन, फैशन शो, जैम सेशन और इस तरह की गतिविधियों को आयोजित करवाने का काम स्वयं छात्र संघ में बैठे चुनावबाज करते हैं। इस तरह से कैम्पस का विराजनीतिकरण (डीपॉलिटिसाइजेशन) करने की एक साजिश की जा रही है। इसकी वजह यह है कि ऊपर बैठे हुक्मरान डरते हैं। उन्हें डर है कि अगर कैम्पस में इतना जनवादी स्पेस होगा तो उसका इस्तेमाल क्रान्तिकारी ताक’तें छात्रों को एकजुट, गोलबन्द और संगठित करने में कर सकती हैं। तो जनवादी अभिव्यक्ति की जगहों को ख़त्म किया जा रहा है और पुलिस का आतंक छात्रों के दिल में बैठाया जा रहा है। जनतंत्र के नाम पर छात्र संघ तो है ही! वहाँ किस तरह की राजनीति होती है यह किसी से छिपा तथ्य नहीं है। वैसी राजनीति की तो सत्ता पर काबिज लोगों को जरूरत है। वे छात्र राजनीति को अपने जैसी ही भ्रष्ट, दोगली और अनाचारी राजनीति की नर्सरी के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। इस काम में बाधक क्रान्तिकारी राजनीतिक शक्तियों का गला घोंटने के लिए ही तरह–तरह के नियम–क़ायदे–क़ानूनों की आड़ में जनवादी स्पेस को सिकोड़ा और जनवादी अधिकारों का धीरे–धीरे हनन किया जा रहा है। जिम्मेदार क्रान्तिकारी छात्र शक्तियों को इस साजिश को समझना होगा और इसे नाक़ाम करना होगा।

आरक्षण पक्ष, विपक्ष और तीसरा पक्ष

सत्ताधारी वर्ग जब नौकरियों या उच्च शिक्षा में आरक्षण का लुकमा फेंकते हैं तो पहले से नौकरियों पर आश्रित, मध्यवर्गीय, सवर्ण जातियों के छात्रों और बेरोज़गार युवाओं को लगता है कि आरक्षण की बैसाखी के सहारे दलित और पिछड़ी जातियाँ उनके रोज़गार के रहे-सहे अवसरों को भी छीन रही हैं। वे इस ज़मीनी हक़ीक़त को नहीं देख पाते कि वास्तव में रोज़गार के अवसर ही इतने कम हो गये हैं कि यदि आरक्षण को एकदम समाप्त कर दिया जाये तब भी सवर्ण जाति के सभी बेरोज़गारों को रोज़गार नहीं मिल पायेगा। इसी तरह दलित और पिछड़ी जाति के युवा यह नहीं देख पाते कि यदि आरक्षण के प्रतिशत को कुछ और बढ़ा दिया जाये और यदि वह ईमानदार और प्रभावी ढंग से लागू कर दिया जाये, तब भी दलित और पिछड़ी जातियों के पचास प्रतिशत बेरोज़गार युवाओं को भी रोज़गार नसीब न हो सकेगा। उनके लिए रोज़गार के जो थोड़े से नये अवसर उपलब्ध होंगे, उनका भी लाभ मुख्यतः मध्यवर्गीय बन चुके दलितों और आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक रूप से प्रभावशाली पिछड़ी जातियों के लोगों की एक अत्यन्त छोटी-सी आबादी के खाते में ही चला जायेगा तथा गाँवों-शहरों में सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा का जीवन बिताने वाली बहुसंख्यक आबादी को इससे कुछ भी हासिल नहीं होगा।

Reservation Support, Opposition and Our Position

when the ruling class hurls the bait of reservation in employment or higher education, the students and unemployed youth belonging to middle class and upper castes, who are already dependent on jobs for their livelihood think that the “dalits” and backward castes are now even robbing them off their remaining opportunities of employment with the aid of the crutches of reservation. They are unable to perceive this ground reality that in fact the opportunities for employment have dwindled away so much that even if the reservation is completely brought to an end, not all the unemployed from the upper castes will get employment. Similarly the youth belonging to “dalit” and backward castes fail to realise that if the percentage of reservation is raised a little more and if it is implemented in an honest and effective manner, even then not even fifty percent of unemployed youth from “dalit” and the backward castes will obtain employment. Whatever meagre opportunities for employment will be available to them, even their benefits will primarily be reaped by an exceedingly small population of “dalits” who have joined middle class and people belonging to economically, socially and politically influential backward castes; and the vast majority of population living their lives as proletariat-semi proletariat will obtain almost nothing from it.

शिक्षा में सुधार बनाम एनजीओकरण

पाठ निर्माण और अन्यान्य क्षेत्र में एन.सी.ई.आर.टी. की भावी भूमिका किस तरह महत्वपूर्ण होने जा रही है, यह जान लेना भी जरूरी है। आज़ादी के 58 साल के अनुभव के बाद साफ़ है कि सरकारों की समानता पर आधारित शिक्षा की लाख घोषणाओं के बावजूद प्राइवेट स्कूलों और निजी प्रकाशकों की महँगी व तोड़ी-मरोड़ी गई पाठ सामग्रियों के कारण शिक्षा क्षेत्र में भयावह विषमता और अराजकता बढ़ी है। मूल्य निर्माण का नतीजा तो सामने है। ऐसे में निदेशक का यह कहना कि एन.सी.ई.आर.टी. का काम किताब निर्माण का व्यवसाय नहीं है, शिक्षा में आगामी सुधारों का संकेत दे देता है।

शासन–प्रशासन तंत्र की आपराधिक संवेदनहीनता ने छीन ली हज़ारों बच्चों की ज़िन्दगी

इंसफ़ेलाइटिस से पीड़ित होने वाले अधिकांश बच्चे गरीबों के ही हैं। इसका कारण भी बहुत साफ़ है। यह बीमारी मच्छरों के काटने से फ़ैलती है जो ठहरे हुए पानी में और गन्दे स्थानों पर पलते हैं। समझा जा सकता है कि गाँवों और शहरों की गन्दी बस्तियों में रहने वाली आबादी जापानी इंसफ़ेलाइटिस के विषाणुओं के वाहक मच्छरों के लिए आसान शिकार हैं। यही असल कारण भी है कि क्यों शासन–प्रशासन तंत्र पिछले 27 सालों से इसके रोकथाम के कारगर उपाय नहीं कर रहा है। पूँजीपतियों और अमीरों की सेवा में दिन-रात जुटी रहने वाली शासन–प्रशासन की मशीनरी के लिए गरीबों की जान की कोई कीमत ही नहीं है।

क्रान्तिकारी छात्र राजनीति से घबराये हुक़्मरान

अगर छात्रसंघ को ख़त्म किया जाता है तो यह एक फ़ासिस्ट और अलोकतांत्रिक कदम होगा। छात्र कहीं भी आवाज़ उठाएँगे तो उन्हें कुचला जाएगा और चुनावबाज पार्टियों के लग्गुओं-भग्गुओं का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, मगर कैम्पसों में एक मुर्दा शान्ति छा जाएगी। छात्रसंघ की गन्दी राजनीति का इलाज छात्रसंघ को ख़त्म करके करना वैसा ही है जैसे कि बीमार की बीमारी का इलाज करने की बजाय बीमार को ही ख़त्म कर दिया जाय। कोशिश यह होनी चाहिए कि कैम्पस में मौजूद क्रान्तिकारी ताकतें आगे बढ़कर छात्रसंघ की कमान अपने हाथ में ले लें।

इस बार भी आदमखोर शिक्षा व्यवस्था की बलि चढ़े मासूम बच्चे

भूमण्डलीकरण और उदारीकरण के दौर में बदली शिक्षा नीति ने इस प्रणाली को और अधिक अमानवीय बना दिया है जिसमें केवल सबसे पहले स्थान पर आने वाले के लिए ही मौका है, जबकि उससे कमतर छात्रों का भविष्य अंधकार में छोड़ दिया जाता है। साथ ही पूँजीवादी मीडिया और संस्कृति भी यही प्रचारित करती है “पढ़ो ताकि बढ़ा आदमी बनो और ख़ूब पैसा कमाओ’’। वह स्वयं भी गुनगुनाता है, “दुनिया जाए भाड़ में ऐश करो तुम”। यह सोच छात्रों को लालची, स्वार्थी और संवेदनशून्य बना रही है। इस शिक्षा व्यवस्था के दूसरे पहलू पर ग़ौर करना भी ज़रूरी है। कोई छात्र इस शिक्षा व्यवस्था में सफ़लता प्राप्त कर ले, तो क्या वह एक बेहतर इंसान की ज़िन्दगी जी पाएगा? इस शिक्षा व्यवस्था के केन्द्र में इंसान नहीं है आम घरों से आने वाले छात्रों को शिक्षा इसलिए दी जाती है ताकि उन्हें इस व्यवस्था के यंत्र का एक नट-बोल्ट बनाया जा सके। यानी उस भीड़ में शामिल किया जा सके जो इस व्यवस्था की सेवा में लगी है।

अब इंजीनियरिंग-मेडिकल भी रोज़गार की गारण्टी नहीं

भारत में यह सोच काफ़ी हावी रही है कि बेटा अगर इंजीनियर या डाक्टर बन गया तो समझ लो कि रोज़गार पक्का। लेकिन भूमण्डलीकरण की कड़वी सच्चाई अब इस भ्रम को तोड़ रही है। आज भारत में 20 प्रतिशत इंजीनियर बेरोज़गार घूम रहे हैं। एक समय में ये क्षेत्र रोज़गार की गारण्टी माने जाते थे। नतीजतन, कोई इंजीनियर–डाक्टर से नीचे कुछ बनना ही नहीं चाहता था। भारत में 1993 में 5,97,680 इंजीनियर थे। 2003 में यह संख्या दोगुनी होकर 11,83,186 हो गई। नतीजतन, सरकारी और निजी संस्थानों में इंजीनियरिंग कोर्सों की मोटी फ़ीस देकर आज जब छात्र इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर निकलता है तो कह नहीं सकता कि उसे नौकरी मिलेगी या नहीं। जाहिर है, कि हमेशा ऊपर देखने की आदत रखने वाले मध्य वर्ग को इस बदलाव से थोड़ा होश आएगा और उसके नौजवान अपने कैरियरवाद को तिलांजलि देकर समाज के बारे में सोचने को मजबूर होंगे।

जनता के भगवान डॉक्टर, डॉक्टर का भगवान पैसा

क्या कहा? स्वस्थ करने की गारण्टी? भई गारण्टी तो पैसा लौटाने की होती है, स्वस्थ करने की नहीं। मरीज का कर्त्तव्य है पैसा देना और डाक्टर का कर्त्तव्य है इलाज करना। फ़िर बीच में स्वस्थ करना कहाँ से आ गया? यही है हमारे भूमण्डलीकरण के ज़माने की उदारीकरण की बयार, जहाँ हर चीज़ का निजीकरण हो चुका है। चिकित्सा का भी निजीकरण हो चुका है। डॉक्टर लोग काफ़ी उदार हो गए हैं, इतने उदार कि लोगों की जान लेने में उदारता की सीमा पार कर जाते हैं।