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असम में एनआरसी पर ‘ललकार’ के भाषाई व राष्ट्रीय अस्मितावाद के शिकार साथियों की ग़लत अवस्थिति पर ‘आह्वान’ की ओर से 14 दिसम्बर 2019 को डाली गयी टिप्पणी

इस फ़र्क़ को समझने में कई प्रबुद्ध और प्रगतिशील लोगों से भी ग़लती हो रही है। मगर हैरत की बात तो यह है कि अपने को वाम क्रान्तिकारी कहने वाले कुछ लोग भी न सिर्फ़ असम में हो रहे कैब के विरोध के पीछे की राजनीति को समझ नहीं रहे बल्कि भाषाई अस्मितावाद और अन्धराष्ट्रवाद के अपने चश्मे से देखकर उसकी भी घोर अनर्थकारी व्याख्या पेश कर रहे हैं। वैसे, इसमें ज़्यादा हैरत की बात भी नहीं है। पिछले डेढ़ वर्षों के दौरान इनका भाषाई अस्मितावाद और राष्ट्रवादी भटकाव जिस दिशा में बढ़ता रहा है उसे यहीं तक जाना था। दूसरे, ये भी वाम आन्दोलन के अनेक हलक़ों में व्याप्त इस बीमारी से बुरी तरह ग्रस्त हैं जिसके चलते लोग इतिहास, राजनीति, भाषा, संस्कृति आदि की अधकचरी जानकारी लिये हुए हर बात पर ज्ञान बघारते रहते हैं, बिना यह समझे कि इसकी दूरगामी परिणतियाँ कितनी भयंकर होंगी।

भाषाई अस्मितावादियों के हवाई दावे और भाषा-बोली को लेकर बचकानी, हठीली नासमझियाँ

असल बात यह है कि लाख प्रयासों के बावजूद ये हिन्दी पट्टी की सभी बोलियों के अस्मितावादियों को एकजुट नहीं कर पा रहे हैं। ये प्रयास भी करें तो उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में इनकी लाइन की बात कोई नहीं सुनने वाला, हालाँकि अपने जैसे ही कुछ अस्मितावादी इन्हें ज़रूर मिल जायेंगे। उस वैज्ञानिक बात को जनता व्यावहारिक तौर पर समझती है, जिसे सैद्धान्तिक तौर पर इनका अस्मितावादी मन समझ नहीं पा रहा है।

भाषाई अस्मितावादियों से न्गूगी वा थ्योंगो को बचाओ!

इनके पास कोई तर्क नहीं है। तर्क की जगह इन्होंने भावनाओं को रख दिया है। ये भावनाएँ भाषाई अस्मितावादी और राष्ट्रवादी भावनाएँ हैं। इसी ज़मीन से इनका सारा कुतर्क पैदा होता है, इसी से इनके सवाल पैदा होते हैं। लेकिन ये किसी सवाल का जवाब नहीं देना चाहते हैं। इनसे हमने जितने सवाल पूछे या तो उन पर इन्हें सनाका मार गया है या ये गोलमाल कर रहे हैं। इनके तमाम प्रश्नों का हमने विस्तार से उत्तर दिया, उन उत्तरों पर भी इनका कोई उत्तर नहीं है। इनके पास बस एक ही चीज़ बची है : राष्ट्रवादी और भाषाई अस्मितावादी ज़मीन से भावनाओं को उभारना। ये उभर भी गयीं तो इसका नतीजा भविष्य में विनाशकारी ही होने वाला है। हम उम्मीद करते हैं कि इन्हें सद्बुद्धि आये।

भाषाई अस्मितावादियों का नया उत्खनन उर्फ़ बन्दर के हाथ में उस्तरा

इतिहास-विकास के क्रम में भाषा न बन पायी बोलियों/उपभाषाओं को आज की तारीख़ में फिर भाषा के रूप में विकसित करने का कार्यभार हमारा नहीं है। किसी समाजवैज्ञानिक या क्रान्तिकारी के सामने यह जीवन्त-ज्वलन्त सवाल है ही नहीं। जो लोग ऐसे ग़ैर-मुद्दों को मुद्दा बनाने में लगे हुए हैं वे जनता की सस्ती भावनाओं को भुनाने के चक्कर में आज के वास्तविक सवालों को दरकिनार करके अनजाने में ही किसकी मदद कर रहे हैं, इसे कोई भी समझ सकता है।

भाषाई अस्मितावादियों और राष्ट्रवादियों के नये गहने

लोकरंजकतावाद की अपनी गति होती है। इन्होंने तो एक भूतपूर्व अपराधी के द्वारा, जो कि राजनीति में आना चाहता है, ऐसी ही सस्ती और निचली कोटि की भाषाई अस्मितावादी कार्रवाइयों की हिमायत भी की थी। यह भूतपूर्व अपराधी हाइवे पर लगे मील के पत्थरों पर से हिन्दी और अंग्रेज़ी में की गयी ‍लि‍खावट पर कालिख पोत रहा था! उसे इन्होंने ‘दबी हुई भावनाओं की अभिव्यक्ति’ क़रार दिया था। लेकिन यही काम अगर अमित शाह के गुण्डे दिल्ली के साइनबोर्डों पर पंजाबी के साथ करें तो हम सभी उसकी निन्दा करेंगे।

5 नवम्बर 2019 को ‘आह्वान’ के फ़ेसबुक पेज पर डाली गयी टिप्पणी

कम्युनिस्टों को साफ़गो भी होना चाहिए। जब आपका शुरू से यही मानना था तो खुलकर यही कहना चाहिए था कि हमको बड़ा पंजाब चाहिए, इतने छोटे-से पंजाब में हमसे क्रान्ति नहीं हो पा रही। तब भाषा और बोलियों आदि पर घुमा-घुमाकर नाक पकड़ने की कोई ज़रूरत नहीं पड़ती। जैसाकि एक साथी ने कहा है, “फिर तो माँ बोली सम्मेलन नहीं बल्कि वाघा बॉर्डर पर महापंजाब सम्मेलन ही बुला लिया होता!” उसके छाते के नीचे आपकी सारी माँगें ज़्यादा अच्छी तरह आ जातीं।

हमारी बातों के मुख्य बिन्दु

हर बोली को भाषा के रूप में विकसित नहीं किया जा सकता है। वास्तव में, विभिन्न भाषाएँ कई बोलियों के ऐतिहासिक और वैज्ञानिक अमूर्तीकरण से जन्म लेती हैं और बाद में वे बोलियाँ उन भाषाओं के साथ-साथ अस्तित्वमान रह सकती हैं। लेकिन यह तर्क ही अनैतिहासिक और प्रतिक्रियावादी है कि ऐतिहासिक प्रक्रिया में जो बोलियाँ भाषा के रूप में विकसित नहीं हो सकीं, उन सभी को आज कम्युनिस्ट बैठकर भाषा के रूप में विकसित करें।

लोकरंजकतावाद और भाषाई अस्मितावाद के ख़तरे

इस प्रकार के भाषाई अस्मितावाद और लोकरंजकतावाद में बहना आत्मघाती होगा। दूरगामी तौर पर यह आन्दोलन के लिए भी ख़तरनाक होगा। यह जनता में बँटवारा पैदा करेगा और इसका लाभ पूँजीवादी दल ही उठायेंगे। इस प्रकार के अस्मितावाद की हिमायत विभिन्न भाषाओं के (हिन्दी समेत) बौद्धिक जगत में उत्तर-आधुनिकतावादी करते हैं। मिसाल के तौर पर, भोजपुरी के बौद्धिक जगत में कुछ बेहद पतित और दलाल क़िस्म के उत्तरआधुनिक बुद्धिजीवी भाषाई अस्मितावाद का झण्डा बुलन्द किये हुए हैं। उनका भी मानना है कि हर बोली को ही भाषा बनाया जाना चाहिए! यह एक प्रतिक्रियावादी, प्रतिगामी और अनैतिहासिक सोच है।

हरियाणा में पंजाबी भाषा के प्रश्न पर कतिपय कॉमरेडों के अज्ञान पर संक्षिप्त चर्चा

कोई भी पहचान या अस्मिता चाहे वह भाषाई हो, क्षेत्रीय हो, जातीय हो, धार्मिक हो या फिर राष्ट्रीय ही क्यों न हो, न तो फूलकर कुप्पा होने की चीज़ होती है और न ही शर्मिन्दगी से मुँह छुपा लेने की चीज़ होती है। ये पहचानें व्यक्ति को पूर्व प्रदत्त होती हैं। मार्क्सवाद का मानना है कि ये अपने आप में अन्तरविरोध का स्रोत या स्थल नहीं होतीं। ये वर्ग अन्तरविरोधों की ग़लत समझदारी या मिसआर्टिक्युलेशन के कारण अन्तरविरोध का स्रोत बन जाती हैं।

‘महापंजाब’ का आइडिया और राष्ट्रीय प्रश्न पर मार्क्सवादी अवस्थिति : आरज़ी तौर पर विचारार्थ कुछ बातें

पंजाब में खालिस्तानी पृथकतावाद की लहर को पीछे छूटे हुए एक लम्बा अर्सा बीत चुका है। उस समय खालिस्तानियों को पंजाबी राष्ट्रीय बुर्जुआ का प्रतिनिधि मानकर समर्थन करने वाली एक छोटी-सी क्रान्तिकारी वाम धारा भी थी जिसे विलुप्त होना ही था और वह हो चुकी है। यह बात अजीब नहीं लगती कि अभी भी यहाँ-वहाँ से बीच-बीच में खालिस्तानी पृथकतावाद जैसी आवाज़ें सुनाई पड़ जाती हैं। अजीब बात यह है कि क्रान्तिकारी वाम धारा में भी कभी-कभार पंजाबी ‘बिगनेशन शॉविनिज़्म’ का हैंगओवर अभी भी सिर उठाता रहता है। जैसे अचानक बीच-बीच में यहाँ-वहाँ से कुछ ऐसी आहें और कराहें सुनाई देने लगती हैं कि पिछले 70 वर्षों के दौरान हमारा “गौरवशाली महापंजाब” कितने टुकड़ों में बँट गया और अब हम कितने छोटे से पंजाब में गुज़ारा करने के लिए मजबूर कर दिये गये हैं।