हरियाणा में पंजाबी भाषा के प्रश्न पर कतिपय कॉमरेडों के अज्ञान पर संक्षिप्त चर्चा
अरविन्द
हाल ही में एक चीज़ से सामना हुआ है। कुछ लोग इसे हरियाणा में रहने वाले एक पंजाबीभाषी व्यक्ति के दिल की कराह कह सकते हैं, लेकिन वास्तव में यह तथ्यहीन बातों, अतार्किक भावनाओं और अज्ञान पर आधारित नॉस्टैल्जिक झुकावों के पुलिन्दे से ज़्यादा कुछ नहीं है। राष्ट्रवाद की मरी हुई लाश को ढोने के प्रयास में कुछ लोग अनर्गल प्रलाप की सारी सीमाओं को लाँघने में लगे हैं। ‘महापंजाबियत’ के नॉस्टेल्जिया में अटके कुछ लोग मनमाफ़िक़ बातों से ज्ञानचक्षुओं को चकाचौंध करने का कार्यभार अपने कन्धों पर उठाये हुए हैं। कोई रूढ़िवादी ऐसा करे तो समझ में आता है किन्तु यदि कोई कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी इस तरह से ‘अक्कल के पाछै लट्ठ लेकै पड़ जायें’ तो कहें किससे और सुनें किसकी?
ये कतिपय कॉमरेड कभी तो कहते हैं कि हरियाणा तो पंजाब ही है, कभी कहते हैं कि हरियाणा में तो बहुतायत में पंजाबी भाषा ही बोली-समझी जाती है और कभी कहते हैं कि हरियाणवी बोलियाँ हिन्दी की बोलियाँ नहीं हैं बल्कि पंजाबी की ही बोलियाँ हैं। ये कतिपय कॉमरेड अब अपनी तथ्यहीन कल्पनाओं में यहाँ तक पहुँच गये हैं कि हरियाणा में पंजाबी लोगों के ख़िलाफ़ षड्यंत्र रचे जा रहे हैं, कि बेचारे पंजाबियों को इतना डरा-धमका कर रखा जाता है कि वे यह तक नहीं बता पाते कि उनकी माँ-बोली पंजाबी है! इनका यह भी कहना है कि यहाँ रहने वाली 30 प्रतिशत (यह इनकी निजी गणना है, इसके लिए कोई ठोस आँकड़े नहीं प्रदान किये गये हैं!) पंजाबी आबादी हर जगह अपना क्रिया-व्यापार वैसे तो पंजाबी में करती है, पंजाबी गानों पर नाचती है (!) किन्तु जब कोई सर्वे करने आता है तो अपनी मातृभाषा को छिपाकर थोपी हुई हिन्दी भाषा का नाम ले देती है! इस पर कहें भी तो क्या कहें?
इस तरह के निष्कर्ष राष्ट्रवादी विचलन का शिकार कोई कम्युनिस्ट ही निकाल सकता है, जो तथ्यों और तर्कों के आधार पर बात करने की तार्किक विमर्श की बुनियादी शर्तों को तिलांजलि दे चुका हो। असल में हरियाणा में तो पिछले पाँच साल से न केवल मुख्यमंत्री पंजाबी समुदाय से था बल्कि उसकी कैबिनेट में कई मंत्री तक इसी समुदाय से थे। हरियाणवी राजनीति और अर्थतंत्र में ऊपर से नीचे तक पैठ करने वाले पंजाबी व्यापारी व फ़ार्मर वर्ग के लोग भला किसी अदना से सर्वे करने वाले के सामने अपनी भाषा क्यों छिपायेंगे? आम पंजाबीभाषी लोग भी ऐसा नहीं करेंगे। हरियाणवी राजनीति के इतिहास में एक समय तो ऐसा था जब 30 विधायक पंजाबी समुदाय से थे जिनमें 11 मंत्री भी थे।
हरियाणा के भीतर पंजाबीभाषी आबादी के वास्तविक आँकड़ों पर हम आगे आयेंगे लेकिन इन लोगों के “तर्कों” के अनुसार पंजाबी गानों पर नाचना भी पंजाबी होने का एक पैमाना है! यदि कोई पंजाबी गाने पर नाच लेता है तो क्या इसे उसके पंजाबी होने के आधारों में से एक माना जा सकता है? इस तर्क पर चलें तो निष्कर्ष भयंकर निकल सकते हैं। आज सपना चौधरी के ठुमकों के साथ फूहड़ हरियाणवी गानों को कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक किसी-न-किसी को देखते-सुनते हुए पाया जा सकता है, तो इसका मतलब सब हरियाणवी तो नहीं हो गये! बाज़ारू पंजाबी गाने तो पूरे देश में शादियों में, पार्टियों में, जिमों में बजते रहते हैं। लोग उस पर नाचते पाये जा सकते हैं! लेकिन इससे उनकी भाषाई और राष्ट्रीय पहचान नहीं निर्धारित होती है।
कोई भाषा-समुदाय और यहाँ तक कि राष्ट्रीयता भी हर वस्तु की तरह गतिमान अवस्था में होते हैं। वस्तुएँ स्थिर और गतिहीन केवल और केवल कूपमण्डूकों के दिमाग़ में होती हैं। जिसकी अक्कल के बारह बाट हो गये हों आज वही हरियाणा ही नहीं बल्कि भारत में भी पंजाबियों की शासन-सत्ता में हिस्सेदारी को नकार सकता है। वोट बैंक के व्यापारी यदि गाहे-बगाहे किसी समुदाय-विशेष को निशाना बनाते हैं – जो कि निश्चय ही ग़लत है – तो इसका यह मतलब तो नहीं होता कि उक्त समुदाय को आम तौर पर दबाकर रखा जा रहा है या वह दमित समुदाय/राष्ट्रीयता/अस्मिता है। इतिहास में पहले भी ऐसा हुआ है कि किसी आर्थिक रूप से शक्तिशाली मगर धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय को सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संकट हावी होने पर शासक वर्गों ने निशाना बनाया हो, या वे निशाना बने हों। जब भी वर्ग अन्तरविरोध सही राजनीतिक अभिव्यक्ति नहीं पाते हैं, तो वे धार्मिक, नस्ली, जातिगत तौर पर ग़लत अभिव्यक्ति पाते हैं यानी मिसआर्टिक्युलेट होते हैं। हालाँकि यह मिसाल हमारे देश पर पूरी तरह लागू नहीं होती लेकिन फिर भी हमारे तर्क को समझने के लिए महत्वपूर्ण है : अमेरिका में यहूदियों को कई बार एण्टीसेमिटिज़्म के कारण निशाना बनाया जाता है, लेकिन फिर भी आर्थिक और राजनीतिक तौर पर वे वर्चस्वकारी स्थिति में हैं। अमेरिका के शासक वर्ग में उनकी अच्छी हिस्सेदारी है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज की शोषणकारी व्यवस्था में किसी भी समुदाय के ग़रीब तो हर जगह दमित और शोषित हैं ही। शासक वर्ग भाषा-क्षेत्र-जाति-धर्म के आधार पर जनता को लड़ाता ही है लेकिन जब क्रान्तिकारी ही राष्ट्रवादी विचलन या बिग नेशन शॉविनिज़्म, इतिहास के प्रति किसी तथ्यहीन नॉस्टेल्जिया और भाषाई शुद्धतावाद के शिकार होकर लोगों के बीच कृत्रिम दीवारें खड़ी करने लग जायें तो यह दुखदायी ही होगा।
हम यह बात बचपन से ही रटते आये हैं कि भारत एक कृषि-प्रधान देश है किन्तु भारत को विडम्बना-प्रधान देश कहा जाना चाहिए। इन विडम्बनाओं की भी अपनी एक श्रृंखला और तार्किकता है। आप परिघटनाओं की पूरी लड़ी में से एक कड़ी को पकड़कर उसका खूँटा गाड़कर उसके गिर्द ता-ता-थैया करेंगे तो कूपमण्डूक ही कहलायेंगे भले ही आपका प्रयोजन कूपमण्डूक कहलवाने का न भी रहा हो। कतिपय कॉमरेड लोग भी ऐसा ही कर रहे हैं। चीज़ों को समझने के लिए उन्हें सम्पूर्णता में देखा जाना चाहिए वरना कभी आपके हाथ में सींग आयेगा, कभी पूँछ और कभी आपको दुलत्ती भी नसीब हो सकती है। भारत की औपनिवेशिक ग़ुलामी, अंग्रेज़ों द्वारा पोषित साम्प्रदायिक राजनीति और धार्मिक आधार पर विभाजन इन सभी को आप अलग-अलग नहीं बल्कि एक श्रृंखला में ही समझ सकते हैं। भाषाई आधार पर हुए राज्य विभाजन में भी शासक वर्ग अपने हितों की पूर्ति की गुंजाइश तलाशता ही है लेकिन यह एक अलग मसला है और इस पर आगे आयेंगे। अधकचरी समझदारी न केवल कट्टरता के सीमान्तों को छू सकती है बल्कि इन कतिपय कॉमरेडों को राष्ट्रवादी विचलन और बिग नेशन शॉविनिज़्म के पंककुण्ड में भी धकेल सकती है।
कोई भी पहचान या अस्मिता चाहे वह भाषाई हो, क्षेत्रीय हो, जातीय हो, धार्मिक हो या फिर राष्ट्रीय ही क्यों न हो, न तो फूलकर कुप्पा होने की चीज़ होती है और न ही शर्मिन्दगी से मुँह छुपा लेने की चीज़ होती है। ये पहचानें व्यक्ति को पूर्व प्रदत्त होती हैं। मार्क्सवाद का मानना है कि ये अपने आप में अन्तरविरोध का स्रोत या स्थल नहीं होतीं। ये वर्ग अन्तरविरोधों की ग़लत समझदारी या मिसआर्टिक्युलेशन के कारण अन्तरविरोध का स्रोत बन जाती हैं। जहाँ तक राजनीतिक वर्ग पक्ष का प्रश्न है तो व्यक्ति विभिन्न सामाजिक, ऐतिहासिक और व्यक्तिगत सन्दर्भों के आधार पर अपना वर्गीय पक्ष चुनता है। सन्तुलित नज़रिये और कट्टरता के बीच की सीमा रेखा इतनी भी महीन नहीं होती कि वह नज़र ही न आये। हमारे लिए हरियाणवी, पंजाबी या कोई भी क्षेत्रीय या भाषाई पहचान न तो महिमामण्डन की चीज़ होनी चाहिए तथा न ही हमारे द्वारा अतार्किक होकर अन्य पहचानों-अस्मिताओं को नकारने का प्रयास होना चाहिए। लेकिन लगता है कतिपय कॉमरेड लोग महापंजाबियत के काल्पनिक नॉस्टैल्जिया (इसके कई संस्करण हो सकते हैं, जैसे कि 1947 के पहले के पंजाब को वापस हासिल करना, 1966 के पहले के पंजाब को हासिल करना, या 1966 के पुनर्गठन की जगह नये भाषाई पुनर्गठन का ऐसा फ़ार्मूला सुझाना जिससे कुछ और ज़िले पंजाब में जुड़ जायें) और बिग नेशन शॉविनिज़्म की ख़ुमारी के पर्दे की वजह से साफ़ दिखाई दे रहे यथार्थ को देख ही नहीं पा रहे हैं।
अब इन कतिपय कॉमरेडों के “तथ्यों” और वास्तविक तथ्यों पर आते हैं।
हरियाणा में पंजाबीभाषी आबादी : कुछ तथ्य
हमारे कतिपय कॉमरेड कुछ “माहिर लोगों” के हवाले से हरियाणा की कुल आबादी में पंजाबी भाषियों की संख्या 30 प्रतिशत बता रहे हैं। नेशनल कमिश्न फ़ॉर लिंग्विस्टिक माइन्योरटीज़ (NCLM) के 2008 के एक पत्रक के अनुसार हरियाणा में बहुसंख्यक हिन्दी भाषी हैं जो कुल आबादी का 91 प्रतिशत हैं। इसी पत्रक के अनुसार पहले भाषाई अल्पसंख्यक पंजाबी हैं जो कुल आबादी का 7.11 प्रतिशत हैं तथा दूसरे भाषाई अल्पसंख्यक उर्दू भाषी हैं जो कुल आबादी का 1.99 प्रतिशत हैं (सन्दर्भ – Minority Languages in India – Thomas Benefited, March 2013, तालिका – 10, पृष्ठ संख्या – 36)। इकोनॉमिक एण्ड स्टेटिस्टिकल एनालिसिस डिपार्टमेण्ट के अनुसार हरियाणा में 87.31 प्रतिशत आबादी हिन्दी भाषी है जबकि 10.57 प्रतिशत आबादी पंजाबी भाषी, 1.23 प्रतिशत आबादी उर्दू भाषी और 0.89 प्रतिशत आबादी अन्य भाषाभाषी है (सन्दर्भ लिंक – http://esaharyana.gov.in/en-us/About-Us/State-Statistical-Abstract-of-Haryana/State-Statistical-Abstract-of-Haryana-2013-14 )। हरियाणा के सिरसा ज़िले में पंजाबी भाषी आबादी बाक़ी सभी ज़िलों से अधिक है जिसका प्रतिशत 65.94 प्रतिशत है (सन्दर्भ – उपरोक्त)। लेकिन मूल बात यह है कि क्या दोनों ही राज्यों की जनता की यह जनमाँग है कि भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हो? लेकिन पता नहीं क्यों कुछ “माहिर लोगों” के हवाले से इन कतिपय कॉमरेडों ने मनमाफ़िक़ आँकड़ों की झड़ी लगा दी है, जैसे कि उनके अनुसार सिरसा में 75 प्रतिशत पंजाबीभाषी हैं! न तो वे प्रस्तुत आँकड़ों का कोई सन्दर्भ देते हैं, न ही सरकारी और ग़ैर-सरकारी आँकड़ों को मान्यता देते हैं तथा न ही सिरसा के पूरे ज़िले के पैमाने पर अपने द्वारा जुटाये गये आँकड़ों या नमूना सर्वेक्षण की ही प्रस्तुति कर रहे हैं। इस पर हम करें तो क्या करें कबीरा कही न जाये! लेकिन हमारा मूल तर्क यह है ही नहीं। इस तर्क से तो बहुत से ज़िलों या क्षेत्रों या गाँवों के राज्यों में विभाजन पर बहस हो सकती है, जैसे कि अबोहर और फाजिल्का के 83 हिन्दीभाषी गाँव। लेकिन यह न तो वहाँ की जनता की कोई माँग है और न ही यह हरियाणा के किसी क्षेत्र की जनता की माँग है कि राज्यों का पुनर्गठन किया जाये। वैसे तो भाषाई कट्टरता का कीड़ा पैदा किया जाये तो पैदा हो भी सकता है, लेकिन आज के दौर में यह कोई जीवन्त मसला ही नहीं है। यह एक अलग बात है कि सिरसा समेत हर राज्य के हर ज़िले में जनता के विभिन्न हिस्सों को अपनी मातृभाषा में पढ़ने के विकल्प उपलब्ध होने चाहिए, चाहे व पंजाबीभाषी हो, हिन्दीभाषी हो या कोई और भाषा बोलने वाला।
यह सच है कि सरकारी आँकड़ों को हम हमेशा आलोचनात्मक निगाह से देखते हैं। विशेष तौर पर लेबर इकनॉमिक्स के आँकड़ों को कम्युनिस्ट हमेशा ही सन्देह से देखते हैं, क्योंकि इनका मक़सद होता है व्यापक मेहनतकश जनता के जीवन के हालात को छिपाना या उनकी एक ग़लत तस्वीर पेश करना, हालाँकि उसकी भी एकदम हवाई और काल्पनिक तस्वीर पेश करना मुश्किल होता है क्योंकि शासक वर्ग ख़ुद भी इन आँकड़ों का जरूरतमन्द होता है। लेकिन अन्य सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषाई व अन्य नृजातीय आँकड़ों की आवश्यकता राज्यसत्ता को शासक वर्ग हेतु नीति-निर्माण के लिए होती है और इन आँकड़ों में सटीकता के अभाव के बावजूद (वैसे कोई भी आँकड़े पूरी तरह सटीक नहीं हो सकते हैं!) इनमें ऐसा फ़र्क़ भी नहीं हो सकता है कि 10 प्रतिशत का 30 या 40 प्रतिशत बन जाये। लेकिन हमारे कतिपय कॉमरेडों का ज़ोर सिर्फ़ एक बात पर है कि पंजाबी भाषियों के ख़िलाफ़ आर्य समाज, आरएसएस व हरियाणा के तीनों लाल षड्यंत्ररत रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मनोहर लाल खट्टर को ये पंजाबी होने के चलते छूट देते हुए चल रहे हैं! 2016 में जाट आरक्षण आन्दोलन के समय निश्चय ही पंजाबियों को निशाना बनाया गया किन्तु उसका कारण शासक वर्ग की चालबाज़ियाँ और बँटवारे की राजनीति है। सच तो यह है कि ग़ैर-जाट आबादी को आम तौर पर निशाना बनाया गया था। शासक वर्ग यही तो करता है। यानी जनता के सामने झूठे दुश्मन खड़े करना, फूट डालना और राज करना और बहुसंख्यवाद की लहर में व्यापक मेहनतकश अवाम को बहा देना। क्या इस साधारण-सी बात को समझने के लिए किसी आकाशवाणी की दरकार है? क्या हरियाणा के शासक वर्ग में केवल किसी एक समुदाय या क्षेत्र विशेष से ताल्लुक रखने वाले लोग हैं? क्या शासक वर्ग में तमाम जातियों के धन्नासेठ और पैसेवाले नहीं हैं? ज़ाहिर है कि जो समुदाय आबादी में भी सबसे बड़ा होता है, आम तौर पर (हमेशा नहीं) शासक वर्ग में भी उसकी हिस्सेदारी अन्य समुदायों से ज़्यादा होती है, चाहे वह समुदाय जातिगत हो, भाषागत, राष्ट्रीय या जातीय (एथनिक)। लेकिन ये कतिपय कॉमरेड इस तरह से बात कर रहे हैं कि जैसे यहाँ की हिन्दीभाषी और पंजाबीभाषी मेहनतकश जनता के बीच ही कोई चीन की दीवार हो।
हम इस पर सहमत हैं कि हरेक को उसकी मातृभाषा में पढ़ने और व्यवहार का हक़ मिलना चाहिए और सभी के पास प्राथमिक शिक्षा यानी शुरू से ही मातृभाषा में पढ़ने-लिखने का अवसर होना चाहिए। हरियाणा की सरकारों के द्वारा पंजाबी की बजाय तेलुगू या तमिल को दूसरी भाषा का दर्जा देने के हम भी पक्ष में नहीं हैं। असल में दूसरी भाषा को चुनने और पढ़ने का विकल्प स्वेच्छा पर आधारित होना चाहिए।
मातृभाषा को दबाने का विरोध करना सही है लेकिन इस मुद्दे पर दोहरा बर्ताव करना ग़लत है!
मातृभाषा के दमन के हर प्रयास का विरोध क़तई जायज़ है। लेकिन जब दूसरी आबादी के भाषाई दमन पर आप मौन रहेंगे और उसपर एक शब्द भी नहीं उचारेंगे तो आपको क्या कहा जायेगा?! बेशक अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं को भी तवज्जो दी जानी चाहिए तथा इसके लिए सरकारों पर दबाव डालना चाहिए। लेकिन जब हिमाचल प्रदेश और हरियाणा पंजाब का हिस्सा थे और यहाँ पंजाबी थोपी हुई थी, तो उस घटना को आप गोल कर जायेंगे और इतिहास की उस ग़लती पर क्यों कुछ नहीं बोलेंगे? क्या आपको पता है कि 1986 में अबोहर व फाजिल्का नामक दो हिन्दी भाषी क़स्बों और 83 हिन्दी भाषी गाँवों को इसलिए हरियाणा में नहीं मिलने दिया गया क्योंकि कन्दूखेड़ा नामक पंजाबी भाषियों का मात्र एक गाँव बीच में पड़ता था। (सन्दर्भ लिंक हेतु कृपया फ़ेसबुक पोस्ट देखें – सम्पादक) क्या राष्ट्रवादी विचलन के शिकार इन कतिपय कॉमरेडों को जनता को लड़ाने और भाषाई-धार्मिक-क्षेत्रीय आधार पर बाँटने की पंजाब के शासक वर्ग की कारगुज़ारियों का पता ही नहीं है? क्या वे बहुत भोले व अज्ञानी हैं या राष्ट्रवादी विचलन और बिग नेशन शॉविनिज़्म का चश्मा और भाषाई कट्टरतावाद का मोतियाबिन्द उन्हें पंजाबियों में मौजूद शोषक-शासक वर्ग को पहचानने ही नहीं देता?!
सिरसा समेत हरियाणा के अन्य ज़िलों की पंजाबीभाषी आबादी के लिए आप माँग करते हैं कि इनका पढ़ाई-लिखाई से लेकर सभी दफ़्तरी काम, सब कुछ पंजाबी में होना चाहिए किन्तु पंजाब में लाखों की संख्या में खट रही बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि से आयी मेहनतकश आबादी के लिए आपके झोले में कुछ भी नहीं है? अबोहर-फाजिल्का क्षेत्र के हज़ारों हिन्दी भाषी लोगों के लिए भी आपके पास कहने-सुनने के लिए कुछ नहीं है? क्या उन्हें भी हिन्दी में पढ़ने-लिखने और सरकारी कामकाज का अधिकार नहीं है? पंजाब के लिए तो आपकी माँग है कि पूरी शिक्षा, पूरा सरकारी कामकाज, न्यायपालिकाओं व दफ़्तरों का काम केवल पंजाबी में होना चाहिए! तो फिर यही तर्क हरियाणा के उन क्षेत्रों पर क्यों नहीं लागू करते जहाँ पंजाबीभाषी आबादी एक विचारणीय अल्पसंख्या है। यह है आपका दोहरा पैमाना। राष्ट्रवादी विचलन और भाषाई कट्टरतावाद के झोल में आप यह तक भूल रहे हैं कि कोई भी भाषाभाषी समूह दीवारों के बीच नहीं रहता बल्कि उसे भी अपने आस-पास की आबादी से व्यवहार करना पड़ता है। भाषाएँ भी स्वतःस्फूर्त तरीक़े से ऐतिहासिक-सामाजिक प्रक्रिया में अन्ततोगत्वा आपस में घुलती-मिलती हैं, क्रिया-प्रतिक्रिया करती हैं।
चाहे सिरसा का मसला हो या फतेहाबाद का (फतेहाबाद में तो वैसे भी पंजाबीभाषी बहुसंख्यक नहीं हैं), मूल बात यह है कि आज जब देश की जनता के लिए तमाम सामाजिक-आर्थिक मसले और साथ ही राजनीतिक मसले अहम बने हुए हैं और जब राज्यों का पुनर्गठन किसी भी रूप में जनता की जीवन्त माँग है ही नहीं, तो यह माँग उठाकर दोनों राज्यों की जनता के बीच एक फूट डालने की सम्भावना क्यों पैदा की जाये? जल्द ही यह माँग कोई बुर्जुआ पार्टी ले उड़ेगी जो कि इसके आधार पर मेहनतकश जनता के बीच ही दीवार खड़ी कर देगी। ग़ौर करें कि हम इसके साथ मातृभाषा में शिक्षण व सभी राजकीय कामकाज के अधिकार की पूरी तरह हिमायत करते हैं और इसका एक मार्क्सवादी के लिए बुर्जुआ राष्ट्र में प्रान्तों की टेरीटोरियल सीमाओं से कोई लेना-देना नहीं होता है। मिसाल के तौर पर, सोवियत रूस में मॉस्को व पीटर्सबर्ग में भी एक दागिस्तानी छात्र को भी दागिस्तानी में पढ़ने का हक़ था। कोई कह सकता है कि यह तो समाजवादी राज्य में ही सम्भव है। निश्चित तौर पर। लेकिन हमारी माँगें राजनीतिक सहीपन के अनुसार तय होती हैं, हमेशा इस आधार पर तय नहीं होतीं कि पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर क्या सम्भव है, ख़ास तौर पर तब जबकि इसके कारण मेहनतकश जनता के बीच की एकता ही टूटने का ख़तरा हो।
बागड़ी बोली का प्रश्न
साथ ही कतिपय कॉमरेड लोग तथ्यों की तो बेशुमार ग़लतियाँ करते चले गये हैं। सभी ग़लतियों के वर्णन और उन्हें ठीक करने में तो कई रातें काली करनी पड़ सकती हैं इसलिए हम कुछ को ही इंगित कर रहे हैं। एक जगह ऐसे लोग भारत सरकार के हवाले से कहते हैं कि बागड़ी पंजाबी की बोली है (ऐसे लोग आवश्यकता के अनुसार सरकारी आँकड़ों पर भरोसा कर या नहीं कर सकते हैं!), जबकि असल बात यह है कि बागड़ी के अलग-अलग रूप हिन्दी और पंजाबी दोनों की ही बोलियों में शामिल हैं। बागड़ी को शाब्दिक तौर पर भी लें तो समझ आ जाता है कि यह बगड़ क्षेत्र की बोली है। इसे बोलने वाले मुख्य तौर पर राजस्थान और राजस्थान की सीमा से लगते हरियाणा, पंजाब, गुजरात के इलाक़ों में पाये जाते हैं तथा क्षेत्रीय भिन्नताओं के साथ बागड़ी बोली के भी विविध रूप प्रचलित हैं। बागड़ी भाषा पर हुए तमाम अध्ययनों के अनुसार बागड़ी बोली की लेक्सिकल समानता 65 प्रतिशत हरियाणवी के साथ है और इसका सब्जेक्ट-ऑब्जेक्ट-वर्ब ऑर्डर भी हरियाणवी से बिल्कुल क़रीब है। इसकी पंजाबी से कुछ समानता फ़ोनोलॉजिकल टोंस के आधार पर है। लेकिन सापेक्षिक रूप से यह ज़्यादा निकट हरियाणवी व राजस्थानी के ही है न कि पंजाबी के। लेकिन फिर भी इसे हरियाणवी, पंजाबी और राजस्थानी के बीच की सेतु बोली भी कहा गया है, जिसमें इसकी ज़्यादा क़रीबी हरियाणवी और कुछ अध्येताओं के अनुसार राजस्थानी के साथ है। एम. पॉल ल्यूइस के अनुसार, बागड़ी राजस्थानी का अंग बनती है (‘एथनोलॉग, लैंग्वेजेस ऑफ़ दि वर्ल्ड’, सोलहवाँ संस्करण, डलास, टेक्सास, एसआईएल इण्टरनेशनल)। यह तो रही बागड़ी के बारे में तथ्यों की बात। लेकिन यही असल बात नहीं है।
असल में तो इन कतिपय कॉमरेडों के द्वारा हिन्दी और पंजाबी को जिस तरह से दुश्मन के तौर पर खड़ा किया जा रहा है वह तरीक़ा ही अनुचित है। शासक वर्ग की कुचेष्टाओं का बिल्कुल विरोध होना चाहिए लेकिन क्या हिन्दी और पंजाबी एक ही भाषा परिवार हिन्द-ईरानियन भाषा समूह का हिस्सा होने के नाते सहोदराएँ नहीं हैं? क्या भाषाओं के मामले में कट्टरता अपनाकर किसी भाषाभाषी समूह को लोहे की दीवारों में रखा जा सकता है? बोलियों और भाषाओं के अन्तर्सम्बन्धों पर राष्ट्रवादी विचलन और भाषाई कट्टरतावाद के शिकार इन कतिपय कॉमरेडों ने जो ज्ञान वर्षा की है उसे यदि कोई सच्चा भाषा-वैज्ञानिक पढ़ ले तो उसे दिल का दौरा पड़ सकता है।
इनका कहना है कि हरियाणा की बोलियों को हिन्दी की बोलियाँ नहीं कहा जा सकता! साथ ही ये इसी सन्दर्भ में एक और अवधारणा लाते हैं – उप-भाषा! लेकिन असल में इन्होंने भाषा, उप-भाषा और बोलियों के अन्तर्सम्बन्धों को समझने की कोशिश ही नहीं की है और बिना बात के ही मास्टरजी बन बैठे हैं।
हरेक बोली भाषा के तौर पर कैसे विकसित हो सकती है? मज़ेदार बात यह है कि हमारे कतिपय कॉमरेड इसी तर्क को पंजाबी भाषा पर लागू नहीं करते, क्योंकि उस तर्क के अनुसार तो पंजाबी की सभी बोलियों को स्वतंत्र भाषाओं के रूप में विकसित हो जाना चाहिए या किया जाना चाहिए! आप ख़ुद बतायें कि पश्चिमी पंजाब में बोली जाने वाली बोलियों में मुलतानी, डेरावाली, अवाणकारी और पोठोहारी एवं पूर्वी पंजाबी की बोलियों में पहाड़ी, माझी, दूआबी, पुआधी, मलवई और राठी इत्यादि स्वयं भाषाओं के तौर पर विकसित क्यों नहीं हो गयीं? यानी कि अन्य सभी भाषाओं की बोलियों को स्वतंत्र भाषाओं में विकसित हो जाना चाहिए, लेकिन पंजाबी की बोलियों को नहीं! क्या केवल हिन्दी पर ही आपकी जाड़ बजती है? हिन्दी के निर्माण और फैलाव के पीछे चाहे जो भी कारण रहे हों किन्तु हिन्दी आज करोड़ों लोगों द्वारा बोली जाने वाली एक जन-भाषा है। उसमें भी स्तरीय लेखन और साहित्य मौजूद है। हिन्दी को विकसित करने में बहुत-सी बोलियों का अक्षुण्ण योगदान है, उसमें भी सबसे ज़्यादा हरियाणवी के सबसे क़रीब पड़ने वाली खड़ी बोली का योगदान है। हरियाणा क्षेत्र की हिन्दी की बोलियों पर आगे अलग से संक्षिप्त चर्चा की गयी है। जिस तरह से पंजाबी भाषा को लेकर आपके दिल में दर्द है वैसे ही हिन्दी के बारे में अनाप-शनाप सुनने के लिए हिन्दीभाषी भी अभिशप्त नहीं हैं। भाषा सबसे पहले एक अभिव्यक्ति का साधन है तथा यह भी जीवित चीज़ के समान गतिमान है। शासक वर्ग के प्रयोजनों – जिनकी हम भी मुख़ालफ़त करते हैं – को एक तरफ़ रख कर हिन्दी को उसके ऐतिहासिक विकास क्रम में रखकर सोचें तब हो सकता है आपको हिन्दी को लेकर इस तरह की तकलीफ़ न हो जैसे अब हो रही है।
हरियाणवी बोलियों का सवाल
देसवाली, बांगरू, बागड़ी, ब्रज, मेवाती, अहीरी, कौरवी, अम्बालवी इत्यादि नामों से ख्यात बोलियाँ हरियाणा के क्षेत्र में बोली जाती हैं। ये बोलियाँ एक दूसरे के काफ़ी नज़दीक भी हैं। यह ज़रूरी नहीं होता कि हरेक बोली भाषा के तौर पर विकसित हो सके। और इसका बाद में कृत्रिम रूप से प्रयास करना वस्तुतः ऐतिहासिक तौर पर प्रतिक्रियावादी ही माना जायेगा। इस तर्क से तो हिन्दी किसी न किसी बोली से ही विकसित होनी चाहिए थी लेकिन हिन्दी ने बहुत-सी बोलियों और नये शब्दों के साथ ख़ुद को समृद्ध किया है, किसी से ज़्यादा तो किसी से कम। आमतौर पर होता यह है कि विभिन्न बोलियों का साहित्य (लिखित या अलिखित) और शब्दभण्डार भाषा को आधार मुहैया कराता है। आगे चलकर मानकीकरण की प्रक्रिया से गुज़रने के बाद कोई भाषा ढलती है और विकसित होती है। भाषा के विकसित हो जाने के लम्बे समय बाद तक भी बोलियाँ जीवित रह सकती हैं। यहाँ पर हमारा इस बात से क़तई इन्कार नहीं है कि हिन्दी समेत किसी भी भाषा के थोपे जाने का विरोध करना चाहिए। किन्तु यह स्पष्ट होना चाहिए कि हरियाणा की विभिन्न बोलियाँ और इनके शब्दभण्डार हिन्दी से जाकर मिलते हैं न कि पंजाबी या किसी और भाषा में। हरियाणा प्रदेश के बांगर, खादर, नैळी और बागड़ से लगते इलाक़ों में बोली जाने वाली विभिन्न बोलियों में से कुछ पर पंजाबी का प्रभाव अवश्य हो सकता है लेकिन इन्हें पंजाबी भाषा और इसकी बोलियाँ तो नहीं ही समझ सकते। यह प्रभाव भी पूर्णतः सापेक्षिक चीज़ है। किन्हीं भी दो भाषाओं के क्षेत्रीय सीमान्तों (टेरीटोरियल लिमिट्स) के आस-पास बोली जाने वाली दोनों ही भाषाओं के लेक्सिकॉन, फ़ोनोलॉजी और कर्ता-कारक-क्रिया क्रम पर दूसरी भाषा का कुछ प्रभाव होता ही है। यूरोप की सभी भाषाओं के सन्दर्भ में और भारत की भी तमाम भाषाओं के सन्दर्भ में यह बात देखी जा सकती है।
दूसरी बात, सीमित समय के लिए पेप्सू के अन्तर्गत आने के कारण जीन्द और हरियाणा के अन्य इलाक़ों का इतिहास नहीं बदल जाता। यदि हरियाणा का क्षेत्र ऐतिहासिक तौर पर पंजाब का हिस्सा रहा होता तो यहाँ की भाषा पंजाबी होती जो कि नहीं है। क्या ‘पेप्सू’ Patiala and East Punjab States Union (PEPSU) के अन्तर्गत आने वाले जीन्द और दादरी के इलाक़ों की बहुसंख्यक आबादी की भाषा पंजाबी रही है? नहीं, यह हिन्दी की ही बोलियों में से एक बांगरू और खड़ी बोली रही है। क्या हरियाणा का हिस्सा या पूरा हरियाणा ही पेप्सू या तथाकथित महापंजाब के अन्तर्गत आने के कारण पंजाब हो जाते हैं? नहीं। क्योंकि हरियाणा ऐतिहासिक तौर पर सल्तनत, मुगल, राजपूत, मराठा और ब्रिटिश शासन के अधीन भी रहा है। स्वयं पंजाब ही ऐतिहासिक तौर पर मराठों, राजपुताना और मुगलों व तुर्कों के क़ब्ज़े में रह चुका है। इसकी वजह से आज अगर उस पर राजस्थान या मराठा दावा ठोक दें, तो? तो भी यह उतनी ही मूर्खतापूर्ण बात होगी! जब हमारी बात का आधार कल्पना और इतिहास की कोई ख़ुशफ़हमी हो तो यह हास्यास्पद निष्कर्षों तक ले जाने में सहायक सिद्ध हो सकती है। यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि हरियाणा में बोली जाने वाली विभिन्न बोलियाँ किसी भी तौर पर पंजाबी या अन्य भाषा की बजाय हिन्दी से जुड़ती हैं। असल में हिन्दी को दुत्कारने और हरियाणवी बोलियों के स्वतंत्र अस्तित्व की बात करने के पीछे इन कतिपय कॉमरेडों का असली मन्तव्य येन-केन-प्रकारेण हरियाणा को पंजाबियत और आगे चलकर महापंजाब (जिसके, जैसा कि हम कह चुके हैं, कई संस्करण हो सकते हैं) नामक यूटोपिया से जोड़ने का प्रतीत होता है। चूंकि भाषा किसी भी राष्ट्रीय पहचान के प्रमुख तत्वों में से एक होती है इसीलिए इस तरह की उलटबासियों के प्रदर्शन हो रहे हैं। लेकिन हम ठीक भाषाई आधार पर ही महापंजाब के घोलमट्ठे में मुख्यतः और मूलतः हिन्दीभाषी हरियाणा की मिलावट को आसानी से ख़ारिज कर सकते हैं।
क्या भाषाई आधार पर इलाक़ों के पुनर्विभाजन की माँग उचित है?
मातृभाषा में पढ़ाई और व्यवहार पर हम अपनी बात ऊपर कर आये हैं लेकिन राष्ट्रवादी विचलन के शिकार हमारे कतिपय कॉमरेड भाषाई आधार पर फिर से पुनर्विभाजन की माँग उठा रहे हैं। सिरसा में पंजाबीभाषियों का संकेन्द्रण अधिक हो सकता है, लेकिन ऐसा तो पंजाब के भी कुछ ज़िलों के बारे में कहा जा सकता है, कि वहाँ कुछ क्षेत्रों या गाँवों में हिन्दीभाषी आबादी संकेन्द्रित है। लेकिन असली बात यह है कि भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की माँग आज दोनों ही राज्यों की व्यापक मेहनतकश जनता के लिए कोई जीवन्त मसला नहीं है।
ठीक उसी प्रकार चण्डीगढ़ को पूर्णतः पंजाब में शामिल करने की माँग भी आज सही नहीं ठहरती। भाषा के भी आधार पर देखा जाये तो वहाँ 73 प्रतिशत आबादी हिन्दीभाषी है और 22 प्रतिशत पंजाबीभाषी। यह सच है कि इतिहास में 50 पौधी (पंजाबी की एक बोली) बोलने वाले गाँवों को लेकर चण्डीगढ़ बनाया गया था। लेकिन इतिहास में पीछे नहीं जाया जा सकता। जो ऐसे तर्क की बात करते हैं उन्हें इस बात का भी समर्थन करना चाहिए कि ऐतिहासिक तौर पर फ़िलिस्तीन-इज़रायल से विस्थापित हुए यहूदियों को वहाँ बसाया जाना चाहिए और उनकी ऐतिहासिक भाषा यहूदी को ऐसे राज्य की राजकीय भाषा बनाया जाना चाहिए। इतिहास में आप कहाँ और कितने पीछे जायेंगे? लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात जिस पर कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को ध्यान देना चाहिए वह यह है कि आज चण्डीगढ़ के व्यापक जनसमुदायों की यह माँग ही नहीं है। तो फिर ऐसी बात केवल राष्ट्रवादी विचलन के कारण ही किसी कम्युनिस्ट के दिमाग़ में आ सकती है।
दूसरा, क्या पंजाबी भाषा के आधार पर एक-एक व्यक्ति को चुन-चुनकर पंजाब में शामिल किया जाना चाहिए? या क्या पंजाब के एक-एक हिन्दीभाषी को चुनकर हरियाणा या राजस्थान में शामिल किया जाना चाहिए? क्या यह आम जनमानस की माँग है या फिर आपके ही दिमाग़ के राष्ट्रवादी व भाषाई कट्टरतावादी विचलन की पैदावार है? वैसे तो अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी कोई विभाजन यदि होता है तो कुछ आबादी अपनी मर्ज़ी और मजबूरी के चलते भी इधर-उधर रह जाती है लेकिन भारत में ऐसे लोगों को ऐसा कौन -सा असुरक्षा-बोध खाये जा रहा है कि एक और विडम्बना रचने की पूर्वपीठिका निर्माण की तैयारी में आप लगे हैं? इन लोगों के तर्क पर ही चलें तो एक सवाल बनता है कि ऐसे लोगों को विचारणीय पंजाबीभाषी आबादी वाला सिरसा तो दिख गया लेकिन अबोहर-फाजिल्का और उस इलाक़े के 83 हिन्दी भाषी गाँव क्यों नहीं दिखे? क्या राष्ट्रवादी विचलन का चश्मा यह देखने की इजाज़त नहीं देता? निश्चित तौर पर भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की माँग आज एक प्रतिक्रियावादी माँग है, विशेष तौर पर इसलिए कि यह आम मेहनतकश जनता की माँग नहीं है। ऐसा करना शासक वर्ग के काम को आसान बनाना है तथा स्वयं ही जनता के बीच बँटवारे के बीज बोने के समान है। आज न केवल हरियाणा बल्कि पंजाब के भी लोगों के बीच भाषाई आधार पर पुनर्विभाजन जैसी कोई माँग नहीं है। ऐसे में बिग नेशन शॉविनिज़्म और काल्पनिक नॉस्टैल्जिया की ढफ़ली उठाकर पुनर्विभाजन का राग अलापना कहीं से भी जायज़ नहीं है।
इस प्रकार के विचारों की एक पूरी श्रृंखला है जिसके एक छोटे-से हिस्से पर ही हम यहाँ टिप्पणी कर पाये हैं। आगे इस पूरी श्रृंखला के पीछे मौजूद पहुँच और पद्धति पर हम विस्तार से अपनी बात रखेंगे, जिसमें कि भाषा का पूरा प्रश्न और मार्क्सवादी-लेनिनवादी पहुँच के सवाल पर चर्चा करेंगे।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020
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