Category Archives: बहस

भाषाई व राष्ट्रीय अस्मितावादी विचलन के शिकार ‘ललकार’ के साथियों से चली हमारी बहस में दोनों पक्षों की अवस्थितियाँ : एक महत्वपूर्ण याददिहानी

जब अस्मितावाद का कैंसर फैलता है तो वह एक अंग में रुकता नहीं है। हमारे ‘ललकार’ के अस्मितावादी विचलन के शिकार साथियों का अस्मितावाद भाषा और राष्ट्र के सवाल पर शुरू हुआ है लेकिन इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि यह जल्द ही अन्य रूपों में भी प्रकट हो सकता है। मिसाल के तौर पर, दिल्ली में एक सिख ऑटो चालक के साथ पुलिस द्वारा मारपीट की घटना को इन्होंने यह कहते हुए धार्मिक रंग देने की कोशिश की कि उसे पुलिस ने इसलिए पीटा था क्योंकि वह सिख था। इस पर पंजाब के ही तमाम तर्कसंगत लोगों ने इनका विरोध किया था। सभी जानते हैं कि हर धर्म के ऑटो ड्राइवरों के साथ आये-दिन पुलिस मारपीट करती है, इसलिए क्योंकि वे मेहनतकश तबक़े से आते हैं।

राष्‍ट्रीय दमन क्‍या होता है? भाषा के प्रश्‍न का इससे क्‍या रिश्‍ता है? मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी अवस्थिति की एक संक्षिप्‍त प्रस्‍तुति

यह प्रश्‍न आज कुछ लोगों को बुरी तरह से भ्रमित कर रहा है। कुछ को लगता है कि यदि किसी राज्‍य के बहुसंख्‍यक भाषाई समुदाय की जनता की भाषा का दमन होता है तो वह अपने आप में राष्‍ट्रीय दमन और राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन का मसला होता है। उन्‍हें यह भी लगता है कि असम और पूर्वोत्‍तर के राज्‍यों में एन.आर.सी. उचित है क्‍योंकि यह वहां की जनता की राष्‍ट्रीय दमन के विरुद्ध ”राष्‍ट्रीय भावनाओं की अभिव्‍यक्ति” है और इस रूप में सकारात्‍मक है। तमाम क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट साथियों को यह बात सुनने में अजीब लग सकती है लेकिन यह सच है! वाकई वामपंथी दायरे में अस्मितावाद के शिकार कुछ लोग हैं, जो ऐसी बात कह रहे हैं। राष्‍ट्रीय प्रश्‍न पर ऐसे लोग बुरी तरह से दिग्‍भ्रमित हैं। इसलिए इस प्रश्‍न को समझना बेहद ज़रूरी है कि दमित राष्‍ट्रीयता किसे कहते हैं और राष्‍ट्रीय दमन का मतलब क्‍या होता है। इस प्रश्‍न पर लेनिन, स्‍तालिन और तुर्की के महान माओवादी चिन्‍तक इब्राहिम केपकाया ने शानदार काम किया है।

साइनाथ का एनजीओ प्रायोजित रैडिकलिज़्म और ‘परी’ की पॉलिटिक्स

ऐसा कोई निहायत भोला व्यक्ति ही सोच सकता है कि साइनाथ इन संस्थाओं के संदिग्ध चरित्र से परिचित न हों। दरअसल साइनाथ जैसों की कथित प्रगतिशीलता ही पूँजी-प्रतिष्ठानों द्वारा वित्तपोषित प्रगतिशीलता है, जो अलग-अलग कारणों से सी.पी.एम. ब्राण्ड संशोधनवादियों और भाँति-भाँति के नववामपंथियों और “सामाजिक आन्दोलनों” के छद्म रैडिकल बुद्धिजीवियों तक को खूब भाती है। साथ ही, समस्याओं की सतही, लोकरंजक, अनुभववादी समझ रखने वाले विभ्रमग्रस्त जागरूक नागरिकों को भी साइनाथ वैकल्पिक रैडिकल पत्रकारिता के स्टार जान पड़ते हैं।

जाति प्रश्न और अम्बेडकर के विचारों पर एक अहम बहस

हिन्दी के पाठकों के समक्ष अभी भी यह पूरी बहस एक साथ, एक जगह उपलब्ध नहीं थी। और हमें लगता है कि इस बहस में उठाये गये मुद्दे सामान्य महत्व के हैं। इसलिए हम इस पूरी बहस को बिना काँट-छाँट के यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं। हम चाहेंगे कि आम पाठक गण भी इसमें हस्तक्षेप करें ताकि यह बहस एक सही दिशा में आगे बढ़ सके। इस बहस को पढ़ने से पहले इस लिंक पर इस संगोष्ठी में चली पूरी बहस का वीडियो अवश्य देखें, ताकि इन लेखों में आने वाले सन्दर्भों को सही तरीके से समझ सकें: http://www.youtube.com/watch?v=TYZPrNd4kDQआनन्द तेलतुम्बडे के लेख का अनुवाद ‘हाशिया’ ब्लॉग चलाने वाले रेयाजुल हक़ ने किया है, जो कि सटीक नहीं है। जहाँ ग़लतियाँ हैं उन्हें ठीक करते हुए हम इस अनुवाद को प्रकाशित कर रहे हैं।

आनन्द तेलतुम्बडे को जवाबः स्व-उद्घोषित शिक्षकों और उपदेशकों के नाम

तेलतुम्बडे यहाँ असत्य वचन का सहारा ले रहे हैं कि उन्होंने मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के मिश्रण या समन्वय की कभी बात नहीं की या उसे अवांछित माना है। 1997 में उन्होंने पुणे विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में एक पेपर प्रस्तुत किया, ‘अम्बेडकर इन एण्ड फॉर दि पोस्ट-अम्बेडकर दलित मूवमेण्ट’। इसमें दलित पैंथर्स की चर्चा करते हुए वह लिखते हैं, “जातिवाद का असर जो कि दलित अनुभव के साथ समेकित है वह अनिवार्य रूप से अम्बेडकर को लाता है, क्योंकि उनका फ्रेमवर्क एकमात्र फ्रेमवर्क था जो कि इसका संज्ञान लेता था। लेकिन, वंचना की अन्य समकालीन समस्याओं के लिए मार्क्सवाद क्रान्तिकारी परिवर्तन का एक वैज्ञानिक फ्रेमवर्क देता था। हालाँकि, दलितों और ग़ैर-दलितों के बीच के वंचित लोग एक बुनियादी बदलाव की आकांक्षा रखते थे, लेकिन इनमें से पहले वालों ने सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन के उस पद्धति को अपनाया जो उन्हें अम्बेडकरीय दिखती थी, जबकि बाद वालों ने मार्क्सीय कहलाने वाली पद्धति को अपनाया जो कि हर सामाजिक प्रक्रिया को महज़ भौतिक यथार्थ का प्रतिबिम्बन मानती थी।………… अब पाठक ही बतायें कि तेलतुम्बडे जो दावा कर रहे हैं, क्या उसे झूठ की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए? क्या यहाँ पर ‘अम्बेडकरीय’ और ‘मार्क्सीय’ दोनों को ‘अम्बेडकरवाद’ और ‘मार्क्सवाद’ के अर्थों में यानी ‘दो विचारधाराओं’ के अर्थों में प्रयोग नहीं किया गया है? फिर तेलतुम्बडे यह आधारहीन और झूठा दावा क्यों करते हैं कि उन्होंने कभी ‘अम्बेडकरवाद’ शब्द का प्रयोग नहीं किया क्योंकि वह नहीं मानते कि ऐसी कोई अलग विचारधारा है? क्या यहाँ पर उन्होंने अम्बेडकर की विचारधारा और मार्क्स की विचारधारा और उनके मिश्रण की वांछितता की बात नहीं की? हम सलाह देना चाहेंगे कि तेलतुम्बडे के कद के एक जनपक्षधर बुद्धिजीवी को बौद्धिक नैतिकता का पालन करना चाहिए और इस प्रकार सफ़ेद झूठ नहीं बोलना चाहिए।

खुद पर फिदा मार्क्सवादियों और छद्म अम्बेडकरवादियों के नाम

अब जो लोग मेरे लेखन से वाकिफ़ हैं, उन्हें यह बात कहीं नहीं मिलेगी कि मैंने कभी अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद के समन्वय की हिमायत की है। बल्कि मैंने कभी अम्बेडकरवाद शब्द का इस्तेमाल भी नहीं किया है, जिसे मेरे नाम के साथ जोड़ा जा रहा है। ‘जाति का उन्मूलन’ के प्रति जैसा रवैया रखने का मुझ पर आरोप लगाया जा रहा है, कि यह कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र जितना ही अहम है, इससे यह संकेत मिलता है मानो जाति का उन्मूलन बेकार है। अप्रोच पेपर में दूसरों के नज़रियों का मज़ाक उड़ाने या उन्हें नकारने के साथ-साथ उनके अपने नज़रिए को ही सही समझदारी बताने के हवाले भरे पड़े हैं।

इतने शर्मिंदा क्यों हैं प्रो. एजाज़ अहमद?

किसी भी क्रान्तिकारी मार्क्‍सवादी की पहचान जिन बातों से होती है उनमें से एक यह है कि वह अपने विचारों को छिपाता नहीं है; और दूसरी अहम बात यह होती है कि वह अपने विचारों को लेकर शर्मिन्दा भी नहीं होता। इन कसौटियों को ध्यान में रखें तो आप प्रो. एजाज़ अहमद से यह सवाल पूछ सकते हैं कि आप अपने विचारों को लेकर इतने शर्मिंदा क्यों हैं? आप यह भी पूछ सकते हैं कि आप इतने हताश क्यों हैं?

खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेशः समर्थन, विरोध और सही क्रान्तिकारी अवस्थिति

पूँजीवादी विकास की नैसर्गिक गति छोटी पूँजी को तबाह करेगी ही करेगी और छोटे उत्पादकों, उद्यमियों और व्यापारियों के एक बड़े हिस्से को बरबाद कर सर्वहारा की कतार में ला खड़ा करेगी। ऐसे में, एक वैज्ञानिक क्रान्तिकारी का काम इस छोटी पूँजी को ज्यों-का-त्यों बचाये रखने की गुहार लगाना नहीं, बल्कि इस टटपुंजिया वर्ग में और ख़ास तौर इसके सबसे निचले हिस्सों में (जिसमें कि वास्तव में अर्द्धसर्वहाराओं की बहुसंख्या है) यह क्रान्तिकारी प्रचार करना है कि पूँजीवादी व्यवस्था में छोटी पूँजी की यही नियति है और पूँजीवादी व्यवस्था और समाज के दायरे में रहते हुए इस तबाही और बरबादी से छोटा निम्न पूँजीपति वर्ग नहीं बच सकता है। अगर उसे इस नियति से बचना है तो उसे इस व्यवस्था की चौहद्दी के पार सोचना होगा; एक ऐसी व्यवस्था के बारे में सोचना होगा जो हरेक नागरिक को रोज़गार, शिक्षा, चिकित्सा, आवास और हर प्रकार की बुनियादी सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा मुहैया करा सके। ऐसी व्यवस्था एक समाजवादी व्यवस्था ही हो सकती है। पूँजीवाद का यही एकमात्र सही, व्यावहारिक और वैज्ञानिक विकल्प है।

ग़रीबी रेखा के निर्धारण का दर्शन, अर्थशास्त्र और राजनीति

1973-74 के बाद सरकार ने कभी भी सीधे तौर पर नहीं देखा कि देश के कितने प्रतिशत लोग 2100/2400 किलो कैलोरी से कम उपभोग कर पा रहे हैं। उसने बस 1974 की ग़रीबी रेखा को कीमत सूचकांक में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार संशोधित करना जारी रखा। नतीजा यह है कि आज योजना आयोग रु.26/रु.32 प्रतिदिन की ग़रीबी रेखा पर पहुँच गया है! साफ़ है कि देश के शासक वर्ग ने बहुत ही कुटिलता के साथ एक ऐसी पद्धति अपनायी जो कि ग़रीबी को कम करके दिखला सके। यह पद्धति शुरू के 10 वर्षों तक अपना काम कर सकती थी; लेकिन उसके बाद यह बेतुकेपन के प्रदेश में प्रवेश कर गयी। आज साफ़ नज़र आ रहा है कि ऐसी ग़रीबी रेखा पर सिर्फ हँसा जा सकता है। इसके लिए अर्थव्यवस्था के बहुत गहरे ज्ञान की ज़रूरत नहीं है। वास्तव में, जिन्हें बहुत गहरा “ज्ञान” है, वही यह धोखाधड़ी का काम कर रहे हैं। जैसे कि मनमोहन-मोण्टेक की जोड़ी! वास्तव में, बुर्जुआ अर्थशास्त्र के ज्ञान का मुख्य काम ही इस प्रकार की जालसाजियाँ करना होता है।