प्रेम प्रकाश की कविता
हमारा सच और उनका सच
सच को होना है सच की तरह
कि बची रहे उसकी ज़िन्दादिली;
जैसे बादलों में चमकती बिजली,
तप्त धरती पर गिरती बूँद,
और धरती से उठती सोन्धी गन्ध सच है।
और यह आधा सच है कि फौलाद पिघलता है
दहकती भट्ठियों में टहकदार कोयले से,
कहो कि पूरा सच यह है;
कि फौलाद पिघलता है गरम पसीने के साथ
हमारी धमनियों के गरम लहू के ताप से,
सच है कि आधुनिक ज्ञान के पुरोधा
हमें अज्ञानी कहते हैं
और यह भी सच है कि उनकी हर चीज़,
‘अज्ञानियों’ की उँगलियों की सर्जना है;
सच है कि
हमारे हिस्से के ज्ञान पर कुण्डली मारकर बैठे
हमारे हिस्से की सम्पदा पर कुण्डली मारकर बैठ गए हैं
क्या यह ज़रूरी नहीं है कि सारे विश्वविद्यालयों के मठाधीशों को
खटाया जाय खेतों-खलिहानों और फ़ैक्ट्रियों में
कि उत्पादन का सच समझाया जा सके।
कि सच को समझने के लिए
चीजों को उलट देना ज़रूरी है
कि जैसे नमी को जानने के लिए शुष्कता
उजाले के लिए अन्धेरा और
दिन को जानने के लिए रात
और आज़ादी को जानने के लिए ज़रूरी है;
हमारे दिलों में जज़्ब जज़्बात की तड़प को समझना,
वैसे ही हमें जानने के लिए ज़रूरी है
कि एक दिन-एक दिन तुम ख़ुद
तप्त लोहे की छड़ मोड़कर देखो,
की यह महज़ कागज़ पर लकीर खींच देना भर नहीं है;
हमारी बनायी अटटलिका में बैठकर
हमारे लिए तय करना हमारी मेहनत की कीमत
यह आज का सच है
तुम्हारा सच;
हम इसे उलट देना चाहते हैं
कि सच को मुर्दों के हवाले नहीं छोड़ा जाय
कि सच ज़िन्दा है उसे ज़िन्दगी के साथ होना है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2013
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